यह संसार काल की एक ऐसी चक्की है, जो निरंतर घूम रही है। इसमें न कोई छोटा है, न बड़ा। काल की चोट से न तो अमीर सुरक्षित है, न गरीब। “चलती चक्की काल की पड़े सभी पर चोट” केवल एक कथन नहीं है, बल्कि जीवन की कड़वी सच्चाई है। आज का मनुष्य अपने धन, पद, शक्ति और दिखावे के घमंड में यह भूल जाता है कि काल की मार जब पड़ती है, तो वह किसी का पक्ष नहीं लेती।
यह ब्लॉग एक बड़ी ही सुंदर कहानी के माध्यम से उसी सत्य को उजागर करता है कि कैसे काल की मार सभी पर पड़ती है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि कालचक्र और ईश्वर को कभी न भूले।
रोचक कहानी:
सम्राट विक्रमादित्य अन्य राजाओं की तरह विलासी नहीं थे। वे हर समय प्रजा की चिंता में लगे रहते थे। एक दिन प्रातः चार बजे अपने महल से बिल्कुल अकेले किसान के वेष में बाहर निकले। और दूर एक जंगल में जाकर देखा कि एक रीछ एक तरफ से आया और उनके सामने वाली राह पर चलने लगा। उस रीछ ने महाराज को नहीं देखा परंतु महाराज ने उसे देख लिया था।
थोड़ी दूर चलकर वह रीछ जमीन पर लोटपोट हो गया और एक आलाबाला सोलह-साला सुंदर युवती बनकर एक कुएं पर जा बैठा। सम्राट भी छिपकर यह निराला तमाशा देखने लगे। तबतक कुएं पर दो सिपाही आये। दोनों सगे भाई थे। छुट्टी लेकर घर जा रहे थे।
युवती ने मुस्कुरा कर बड़े भाई से कहा- तुम्हारे पास कुछ खाने को है? बड़ा सिपाही- जी नहीं।
युवती ने अपने चितवन से उसे घायल करते हुए कहा- मुझे तो बड़ी भूख लगी है।
बड़ा सिपाही उस युवती पर मोहित हो गया और बोला- 'यदि आपकी आज्ञा हो तो समीप के किसी गाँव से ले आऊं?'
युवती- आपको तकलीफ होगी।
बड़ा- आपके लिए तकलीफ! आपके लिए तो मैं जान तक दे सकता हूँ।
युवती- तो ले आओ।
बड़ा भाई चला गया
अब युवती ने छोटे भाई को कटाक्ष मारा और अपने पास बुलाया। वह आकर अदब से बैठ गया।
युवती- मैं तुम्हीं पर रीझ गयी हूँ।
छोटा- ऐसा न कहिये। आपने बड़े भाई साहब पर अपनी कृपा-कटाक्ष किया था। इसलिए आप मेरी भावज हुयीं और भावज तो माता समान होती है।
युवती- तुम बड़े मूर्ख मालूम पड़ते हो।
छोटा- क्यों?
युवती- तुम्हारे बड़े भाई की उम्र क्या है?
छोटा- पचास साल।
युवती- और तुम्हारी?
छोटा- पैंतीस साल।
युवती- और मेरी।
छोटा- आप ही जानें।
युवती- अपनी बुद्धि से बताओ।
छोटा - होंगी पंद्रह-सोलह साल की।
युवती- अब तुम्हीं बताओ कि एक सोलह साल की लड़की पैंतीस साल के युवक को पसंद करेगी या पचास साल के बूढ़े को?
छोटा सिपाही निरूत्तर हो गया।
युवती- जो मैं कहूँ, वही करो। तुम मेरे साथ भाग चलो।
छोटा- कदापि नहीं। आप मेरे भाई से सप्रेम बात कर चुकी हैं। आप भावज हैं और माता के समान हैं।
युवती- अगर तुम मेरी आज्ञा नहीं मानोगे तो मारे जाओगे।
छोटा- चाहे कुछ भी हो, इसकी परवाह नहीं।
थोड़ी देर में पाव भर पेड़ा लेकर बड़ा सिपाही आ गया।
युवती ने अपनी साड़ी जहाँ-तहाँ से फाड़ डाली थी। उसी साड़ी से मुंह ढंककर वह रोने लगी।
बड़ा- रोती क्यों हो? यह लो पेड़ा खाओ।
युवती- पेड़ा उधर कुंएं में डाल दो और तुम भी उसी में कूद मरो।
बड़ा- क्यों?
युवती- तुम्हारा यह छोटा भाई बहुत दुष्ट है। यदि तुम जल्दी न आते तो इसने मेरा सतीत्व नष्ट कर दिया होता। यह देखो छीना-झपटी में मेरी रेशमी साड़ी तार-तार हो गयी है।
बड़ा- क्यों बे? तेरी ये हरकत?
छोटा- भाई साहब! यह झूठ कहती है।
बड़ा- हूँ! तू सच्चा और वह झूठी है?
छोटा- मैंने कुछ नहीं किया।
बड़ा- और यह बिना कारण ही रोती है? साड़ी कैसे फटी?
छोटा- मैंने कुछ भी नहीं किया।
बड़ा- अबे साले! तू बड़ा पाजी है।
छोटा- देखो, गाली मत देना।
बड़ा- चोरी और उपर से सीनाजोरी? तू भाई नहीं, दुश्मन है।
इतना कहकर म्यान से तलवार निकाली। छोटा भाई था तो सुशील; परंतु कलयुगी ही था न। वह भी आ गया सिपाहियाना गरमी में। उसने देखा कि बेकसूर होने पर भी उसका भाई एक अनजान और बदचलन औरत के बहकावे में उसे धर्मभ्रष्ट समझ रहा है। उसने भी तलवार सम्हाली।
दोनों ने पैंतरे बदले और चलने लगीं तलवारें। पांच मिनट में दोनों मरकर गिर गये। युवती हंसी। जमीन पर लोटपोट कर काला सांप बन गयी और आगे को चल दी। सम्राट ने प्रण कर लिया कि इस विचित्र जीव की पूरी कारगुजारी वे अवश्य देखेंगे।
आगे चलकर एक नदी मिली। उसमें एक बड़ी नाव आ रही थी। उसमें तीन सौ आदमी बैठे थे। जब वह नाव बीच धारा में पहुँची, वही काला सांप नाव की सीध में तैर चला। नाव के पास पहुंचा और चिटककर नाव में जा गिरा। लोगों ने जब यह तमाशा देखा तो मारे डर के, सभी नाव के एक तरफ हो गये। नाव उलट गयी और सब डूबकर मर गए। वह सांप फिर लौटा और जमीन पर लोटने लगा।
सम्राट ने सोचा- अजब लीला है।
अबकी बार वह एक वृद्ध ज्योतिषी बन गया, सफेद दाढ़ी, ललाट पर चंदन और हाथ में पत्रा लिए। सम्राट ने आगे दौड़कर उसके पैर पकड़ लिए।
वह- तुम कौन?
सम्राट- मैं एक राजा हूँ।
वह- क्या चाहते हो?
सम्राट- सुबह जब आप रीछ के रूप में थे, तबसे आपके पीछे लगा हूँ। आपने युवती और सांप बनकर जो करिश्मा किये हैं, वह सब मैंने देखा है। यह आपका चौथा रूप है।
वह- अच्छा तो तुम क्या जानना चाहते हो?
सम्राट- यह कि आप कौन हैं?
वह- तुम इस बवाल में मत पड़ो। अपने रास्ते जाओ।
सम्राट- नहीं, स्वामिन्! जबतक आपका परिचय प्राप्त नहीं कर लूँगा तबतक एक पग नहीं बढ़ूंगा।
वह- मैं महाकाल हूँ और लोगों के विनाश के काम में लगा रहता हूँ।
सम्राट- आप जिसे चाहते हैं, उसे साफ कर डालते हैं?
महाकाल- नहीं स्वतंत्र नहीं हूँ। परमात्मा का एक तुच्छ सेवक हूँ।
सम्राट- अच्छा तो मेरी मौत कब आयेगी?
महाकाल- यह बताने की आज्ञा नहीं है। तुम अभी बहुत दिन जीवित रहोगे और तुम्हारे द्वारा ईश्वर बहुत से परोपकार के कार्य करवायेंगे।
सम्राट- अब आप किसकी घात में हैं?
महाकाल- यह तुम्हारे अधिकार से बाहर का प्रश्न है।
सम्राट- आपने रीछ बनकर क्या किया था?
महाकाल- एक आदमी पेड़ पर चढ़कर लकड़ी काट रहा था। उसे पेड़ पर से गिराने के लिए रीछ बनकर पेड़ पर चढ़ गया और गिराकर मारा।
सम्राट- आप विविध प्रकार के रूप क्यों बनाते हैं?
महाकाल- जिसकी मौत जिस रूप में लिखी होती है, उसे उसी बहाने से मारता हूँ।
सम्राट- क्या कोई आपके कराल हाथ से बचा भी है?
महाकाल- कोई-कोई योगी बच गये, पारब्रह्म की ओट। चलती चक्की काल की, पड़े सभी पर चोट।।
सम्राट- क्या करने से काल की चोट नहीं होती?
महाकाल- परमात्मा की शरणागति से। परमात्मा अपने भक्त का काल अपने हाथ में ले लेते हैं। उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं रह जाता।
सम्राट- आपका आज का यह किस्सा किसी को सुनाऊँ तो क्या वह सुनेगा? और क्या विश्वास करेगा?
महाकाल- नहीं। अगर सुनेंगे तो भी गप मानेंगे। लोग दिलबहलाव के किस्से सुनते हैं। जिन कहानियों से दिमाग को खुराक मिलती है, उसे नहीं सुनते।
सम्राट- सचमुच यह जगत विचित्रताओं की रंगभूमि है। इस जगत को कोई नहीं जानता है, यद्यपि सभी यही समझते हैं कि वे इस जगत को जानते हैं। आपको मैं प्रणाम करता हूँ। अब आप जाइये। आपके दर्शन से यह उपदेश मिला कि, "काल और ईश्वर को कभी नहीं भूलना चाहिए।"
कहानी का स्रोत: गीताप्रेस से प्रकाशित पुस्तक, "एक लोटा पानी"
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