31 मार्च 2023

परमात्मा की प्राप्ति के सहज उपाय। दुखियों की सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है

भगवान प्राणिमात्र में स्थित हैं। अतएव किसी भी प्राणी का हित करना और उसे सुख पहुंचाना, भगवान की सबसे बड़ी सेवा है। दुखियों की सेवा करने से जितनी पुण्य-पवित्रता मिलती है उतनी और किसी साधन से नहीं मिलती है। निष्काम-भाव से परोपकार करने वाले को परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति होती है। सलिए, मनुष्य को उचित है कि स्वार्थ का सर्वथा परित्याग करके अपने तन, मन, धन से दीन, दुखी, अनाथ और आतुर प्राणियों की सेवा करे। 

सौजन्य: You Tube

इस विषय पर एक बहुत ही सुंदर प्राचीन कहानी है-

एक उच्चकोटि के विरक्त ज्ञानी महात्मा थे। उनके सत्संग में गरीब, दीन-दुखी से लेकर बड़े-बड़े राजा, महाराजा भी आया करते थे। उनका संदेश होता था कि, "निष्काम भाव से दीन-दुखी, आतुर प्राणियों को सुख पहुँचाने से परमात्मा की प्राप्ति सहजता से होती है"। 


एक दिन की बात है, उस नगर के राजा उसी महात्मा जी के पास आये और उनके चरणों में अभिवादन करके पूछा- भगवत्प्राप्ति का सहज उपाय क्या है? महात्मा जी ने उत्तर दिया- "परमात्मा प्राणिमात्र के हृदय में अवस्थित हैं। अत: संपूर्ण प्राणिमात्र की निष्काम भाव से तत्परता पूर्वक सेवा करने से परमात्मा की प्राप्ति सहजता से हो सकती है। परंतु प्राणियों में भी जो बहुत दुखी, अनाथ और आतुर हों, उनकी सेवा करने से और भी शीघ्र कल्याण हो सकता है।" इस उपदेश को सुनकर राजा अपने राजमहल को लौट गए और उसी दिन से अपने तन, मन, धन द्वारा निष्काम भाव से प्राणिमात्र की एवं दीन, दुखियों, आतुरों की सेवा विशेष रूप से करने लगे। 

एक वर्ष बाद, राजा एक दिन महात्मा जी के पास आये और बोले- आपकी आज्ञानुसार अनुष्ठान करते हुए एक वर्ष बीत गये किंतु अभी तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई। महात्मा जी बोले- राजन्! धैर्य रखो और निष्काम भाव से दुखियों की सेवा करते रहो। ऐसा करते रहने से तुम्हारा अंत:करण शुद्ध हो जायेगा और तुम्हें परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी। यह सुनकर राजा वापस लौटकर पहले से अधिक उत्साह के साथ दुखियों की सेवा करने लगे। 

इस प्रकार करते फिर एक वर्ष बीत गया परंतु भगवत्प्राप्ति नहीं हुई। तब राजा ने महात्मा जी के पास जाकर निवेदन किया-  आपके आज्ञानुसार अनुष्ठान करते हुए एक वर्ष और बीत गये किन्तु परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई। इस पर महात्मा जी ने कहा- तुम शंका छोड़, दृढ़ विश्वास रखो। परमात्मा की प्राप्ति तुम्हें जरूर होगी परंतु दुखियों की सेवा जैसी होनी चाहिए, वैसी अभी तक तुम्हारे द्वारा नहीं हुई। अत: तुम वश में किये हुए मन, बुद्धि और इंद्रियों को नि:स्वार्थ-भाव से दुखियों की सेवा में लगा दो। महात्मा जी के अमृतमय वचनों को सुन, राजा बड़े प्रसन्न हुए और वापस आकर दुगुने उत्साह के साथ दीन-दुखियों की सेवा में लग गए। 

उसी नगर में एक अत्यंत दुखी, अनाथ, विधवा-स्त्री रहती थी। उसका पांच साल का एक लड़का था। वह स्त्री, प्रतिदिन जंगल से सूखी लकड़ी लाती और उसे शहर में बेंचकर किसी तरह से अपने तथा अपने छोटे से बेटे का भरणपोषण करती थी। 

एक दिन जब वह स्त्री, लकड़ी लाने जंगल को जा रही थी तो रास्ते में उसके बच्चे ने एक अमीर घर के लड़के को लट्टू, फिरकी आदि खिलौनों से खेलते देखा। उसे देखकर वह नन्हा बालक अपनी माँ से वैसे ही खिलौनों की जिद करके रोने लगा। माता किसी तरह बच्चे को वहाँ से उठा कर घर ले आयी और उसे बहुत समझायी पर बच्चे ने उसकी एक न सुनी और खिलौनों के लिए रोता रहा। उस दिन वह स्त्री जंगल से लकड़ी न ला सकी, जिससे माँ-बेटे को दिनभर भूखे रहना पड़ा। बच्चे को दुखी देख, उसकी माँ भी दुखी हो, रोने लगी। 

निस्तब्ध, अर्धरात्रि का समय था। झोपड़ी में माँ-बेटे के तीव्र रुदन की आवाज, पास में ही स्थित राजमहल में सोये हुए राजा के कानों में पड़ी। करुण-रुदन की आवाज सुनकर, राजा ने कोतवाल को बुलाकर आदेश दिये- "तुम रुदन करने वाले को आश्वासन देकर शीघ्र मेरे पास लेकर आओ।" कोतवाल, तुरंत वहाँ पहुँच कर स्त्री से कहा कि तुम फौरन अपने बच्चे को लेकर महाराज के पास चलो, उन्होंने तुम्हें अभी बुलाया है। यह सुनकर वह स्त्री, भय से थर-थर कांपने लगी और बोली- सरकार! यह छोटा-बच्चा है, रोता है, इसके अपराध को क्षमा करें। कोतवाल ने धीरज बंधाते हुए कहा- तुम भय मत करो, मेरे साथ चलो। राजा ने दया करके तुम्हें बुलाया है। कोतवाल के वचनों से स्त्री का रोना तो बंद हो गया परंतु भय के मारे उसका शरीर कांप रहा था और बच्चा रोता हुआ उसके पीछे-पीछे चला जा रहा था। 

कोतवाल के साथ वह छोटा-बच्चा और उसकी माँ, दोनों राजमहल पहुंचे। राजा ने इस कारुणिक दृश्य को देखकर उस भयभीत स्त्री को आश्वासन देते हुए कहा- "बेटी! तू डर मत, साफ-साफ बता, यह बच्चा क्यों रो रहा है?" इस पर उस स्त्री ने राजा को सारी बात विस्तार से बता दी। राजा ने तुरंत महल के अंदर से स्वादिष्ट व्यंजन मंगवाकर खाने को दिया। और कोतवाल से बोले- तुम अभी बाजार जाओ और दुकान खुलवाकर एक टोकरी खिलौने ले आओ। बच्चा, खिलौनों के बिना खाना नहीं खाया और बच्चे को न खाने से उसकी माँ भी नहीं खायी। 

उधर, कोतवाल दुकान खुलवाकर एक टोकरी भरके, खिलौने ले आया और राजा की आज्ञा से बच्चे को दिया। बच्चा अपने दोनों हाथों में जितना खिलौना ले सकता था, लेकर जोर-जोर से हंसने और नाचने लगा। बालक को प्रसन्न देख, माता की भी प्रसन्नता की सीमा न रही। तदनंतर राजा ने उन दोनों को यथेष्ट भोजन कराकर तृप्त किया। तथा बचे हुए खिलौने और भोजन, उस बच्चे की माँ को सौंप दिए। माँ-बेटा, दोनों प्रसन्न हो, अपनी झोपड़ी में लौट आये। राजा की अनुमति से कोतवाल भी अपने स्थान को लौट गया। उसी समय राजा को परब्रह्म परमात्मा के स्वरूप की प्राप्ति हो गयी तथा उनके आनंद और शांति की सीमा न रही


प्रातःकाल होते ही राजा महात्मा के पास गए और साष्टांग प्रणाम करके अपने साथ घटी सारी घटना को आद्योपांत उन्हें कह सुनाई। तब महात्मा जी बोले- राजन्! तुमने बहुतेरे लोगों की सेवा की और परोपकार के निमित्त बहुत सा धन भी खर्च किया। किन्तु जैसी सेवा आज हुई है, वैसी सेवा इसके पहले कभी नहीं हुई थी। महात्मा जी के वचन सुनकर राजा बड़े प्रसन्न हुए और अपने राजमहल लौट आये।

जिस समय राजा अपनी घटना सुना रहे थे, उस समय वहाँ एक नितांत निर्धन खोमचेवाला भी महात्माजी की सेवा में बैठकर सब बात सुन रहा था। वह महात्मा जी से पूछा- महाराज! क्या मुझ जैसे गरीब को भी भगवान मिल सकते हैं? महात्मा जी बोले- "क्यों नहीं मिल सकते हैं? भगवान के यहाँ अमीर-गरीब का भेद नहीं है, वे तो भाव के भूखे हैं"। एक बार राजा चोल और विष्णुदास नामक गरीब ब्राह्मण में भक्तिविषय पर भगवत्दर्शन को लेकर परस्पर होड़ लग गयी। जिसमें अंत में गरीब विष्णुदास की ही विजय हुयी और उस गरीब ब्राह्मण को ही भगवान पहले दर्शन दिये। 

यह सुनकर खोमचेवाले को बड़ी प्रसन्नता हुई। और वह अपने गाँव जाकर भगवद्प्राप्ति का साधन करने लगा। वह नित्य दो रूपये कमाता। जिसमें से डेढ़ रूपयों में अपने परिवार का भरणपोषण करता और बाकी आठ आने दुखीअनाथ, असहाय और भूखे प्राणियों की सेवा में लगा देता। 

इस तरह से सेवा करते उसे तीन साल बीत गया। फिर भी भगवत्प्राप्ति का कोई लक्षण न देखकर वह महात्मा जी के पास गया और बोला- महाराज जी! मैं रोज दो रूपया कमाता हूँ। जिसमें डेढ़ रूपयों से अपने परिवार का भरणपोषण करके बाकी के आठ आने गरीब, दीन दुखी, आतुर की सेवा में लगाता रहा हूँ। परंतु अभी तक भगवान के दर्शन नहीं हुए। अब आप ही कोई उपाय बतलाइये जिससे शीघ्रातिशीघ्र भगवत्प्राप्ति हो सके। महात्मा जी बोले- तू जो करता है, ठीक ही है। और भी उत्साह और विश्वास के साथ गरीब, दीन-दुखी, दरिद्ररूप नारायण की सेवा, विशेष रूप से करता रह। यह सुन, खोमचेवाला 'बहुत अच्छा' कह, अपने घर लौट गया और महात्मा जी के आदेशानुसार पुनः विशेष उत्साह से दुखियों की सेवा करने लगा। 

उसी गाँव में एक लकड़हारा भी झोपड़ी बनाकर रहता था। वह बड़ी ही कठिनाई से अपना गुजर-बसर कर रहा था। एक दिन की बात है, पास के जंगल में, लकड़ी नहीं मिली तो वह काफी भीतर जंगल में चला गया। क्योंकि 'पापी पेट का सवाल जो था; लौटने में उसे काफी देर हुई। गर्मी और भूख-प्यास से उसका जी तड़फड़ाने लगा जिससे वह चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया। उसी समय, वह खोमचेवाला, उधर से गुजर रहा था। रास्ते में लकड़हारे को मुर्छित देख, उस पर दया करके उसके मुंह पर पानी के छिंटे मारकर कुछ पानी उसके मुंह में डाल दिया और कपड़े से हवा करने लगा। जिससे लकड़हारे को होश आ गया। 

होश में आने पर खोमचेवाले ने उसे चना खिलाया और पानी पिलाया। इससे उसकी आत्मा को बड़ी शान्ति मिली। तब उसने अपना दुख-दर्द, उस खोमचेवाले को सुनाया। उसका आभार व्यक्त करते हुए उसकी स्तुति करने लगा। तब खोमचेवाले ने लकड़हारे से कहा- "भैया! स्तुति के योग्य तो भगवान हैं। मैं तो केवल निमित्त मात्र हूँ। मेरे लायक जो भी सेवा हो सो बता। मैं तुम्हारी सेवा में हाजिर हूँ। लकड़हारे ने कहा- 'मैं अब ठीक हूँ'। यह कहकर लकड़हारा, लकड़ियों का गठ्ठर सिर पर लेकर गाँव की ओर चल दिया। 

तत्पश्चात् खोमचेवाला ज्योंही अपना खोमचा लेकर चलने को उद्यत हुआ, भगवान साक्षात् प्रकट हो गये। भगवान को साक्षात् सामने देख, उसे रोमांच और अश्रुपात होने लगा। उसे आनंद का पारावार न रहा भगवान ने उससे कहा- "गरीब-दुखी के रूप में की हुई तेरी सेवा से मैं संतुष्ट हूँ, तुझे जो इच्छा हो सो वरदान मांग।" खोमचेवाला बोला, "प्रभो! आज आपने मुझे अपना दर्शन देकर मुझे कृतार्थ कर दिया, अब इससे बढ़कर और है ही क्या? जिसे मैं मांगू"। भगवान के आग्रह करने पर वह बोला, "आपमें मेरा अनन्य, विशुद्ध प्रेम बना रहे"। इसपर भगवान 'तथास्तु' कहकर अंतर्धान हो गये। 

खोमचेवाला, भगवान के प्रेमानंद में निमग्न होकर महात्मा जी के पास आया। और उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम कर उनसे अपनी सारी घटना को आद्यंत कह सुनाई।  महात्मा जी बोले- इस गरीब, दरिद्र, दुखी लकड़हारे की जो तूने  सेवा किया, तेरा यह सेवा-कार्य पहले के तेरे सारे सेवा-कार्यों से श्रेष्ठ हुआ। खोमचेवाला महात्माजी के वचनों को सुन, आनंदमग्न हो उनको प्रणाम करके अपने घर लौट गया। 

कहानी से सीख

हमें दीन, दुखी और अनाथ लोगों की सेवा करते हुए घबराना नहीं चाहिए। वरन् समस्त प्राणियों में उसी परब्रह्म परमात्मा को व्याप्त समझकर निष्काम भाव से श्रद्धा, विश्वास, विनय और प्रेम पूर्वक सेवा और परोपकार में तत्पर होकर लगे रहना चाहिए। 

 साभार: श्री जयदयाल गोयंदका द्वारा लिखित पुस्तक, "महत्वपूर्ण शिक्षा"

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