जीवन दर्शन का अर्थ है, जीवन का दर्शन। यानी आत्मचिंतन द्वारा खुद को पहचानना तथा सत्य और ज्ञान की खोज करना है। मनुष्य खुद को जाने बिना अपने अस्तित्व एवं अपने अंदर नीहित असीमित शक्तियों को न तो जान सकता है और ना ही पहचान सकता है। मनुष्य के जीवन की सार्थकता उसके अच्छे कर्मों से होती है। समय बहुत ही अमूल्य और परिवर्तनशील है। एक पल जो बीत गया, वह जीवन में दुबारा कभी नहीं मिल सकता है। अतः वर्तमान के हर एक पल का भरपूर आनंद उठाना चाहिए। हमारे शास्त्रों में आध्यात्मिक ज्ञान की बड़ी महत्ता बताई गई है। आध्यात्मिक शक्तियों से संपन्न पुरुष काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक, भय, अहंकार आदि बाधाओं से परे हो जाते हैं। योग-साधना से मनुष्य की आयु ठहर सी जाती है। योग क्रिया में सिद्ध पुरुष, समाधिस्थ होकर अपने शूक्ष्म शरीर के द्वारा पृथ्वी पर कहीं भी विचरण कर सकते हैं तथा वे दुनियाँ के किसी भी कोने में किसी भी सिद्ध पुरुष से संवाद भी कर सकते हैं जिसे हम "टेलीपैथी" कहते हैं।
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समय परिवर्तनशील है। जीवन में अच्छे दिन भी
आते हैं और बुरे दिन भी आते हैं। अच्छे दिन के आने पर इतराना नहीं चाहिए, अभिमान
नहीं करना चाहिए। इसी तरह बुरे दिन के आने पर ईश्वर के उपर भरोसा रख, धैर्य से काम लेना चाहिए। क्योंकि धैर्य की वास्तविक परीक्षा तो
विपत्तिकाल में ही होती है। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है,
आपद्काल परखिअहिं चारी। धीरज, धर्म,
मित्र अरु नारी।।
जीवन में सुख-दुख, धूप-छांव की तरह आते-जाते रहते हैं और दोनों का अनुभव जीवन को सरस बनाता है। जैसे किसी को सुख की अनुभूति तभी हो सकती है जब उसने अपने जीवनकाल में दुख उठाया हो और खाने की कीमत तभी समझ में आती है जब भूख हो। जिस तरह एक जगह ठहरा हुआ पानी दूषित हो जाता है उसी तरह अगर जीवन में बदलाव न हो तो जीवन नीरस हो जायेगा और जीवन के वास्तविक मूल्य समझ में नहीं आयेंगे। इसलिए जीवन संघर्षमय होना चाहिए। कहा जाता है कि कठिन परिस्थितियों में संघर्ष करने से मनुष्य के जीवन में एक अमूल्य संपत्ति विकसित होती है उसका नाम है, "आत्मबल"।
आध्यात्मिक ज्ञान और उसका महत्व:
आत्मज्ञान को आध्यात्मिक ज्ञान कहा जाता है। आध्यात्मिक पुरुष हर जीव में ईश्वर की सत्ता के दर्शन करता है। उसके अंदर से अहं का भाव, हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है। उसके भीतर अपना-पराया जैसा बोध नहीं रह जाता है और उसके लिए तो पूरा संसार "वसुधैव कटुंबकम्' हो जाता है। आध्यात्मिक ज्ञान के बल पर मनुष्य अपने अंदर निहित शक्तियों को जागृत कर लेता है जिसे आध्यात्मिक शक्ति कहते हैं।
आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पन्न महापुरुषों के दर्शन हमें बड़े सौभाग्य से हो पाते हैं। ऐसे ही भारत के एक महान आध्यात्मिक पुरुष, "महर्षि देवरहा बाबा" के दर्शन का सौभाग्य मुझे सन् १९८० के दशक में उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में स्थित मईल नामक गाँव के समीप सरयू नदी के तट पर बने आश्रम में हुआ था। उनके जन्म और स्थान के बारे में किसी को भी सटीक जानकारी नहीं है। बड़े बुजुर्गों का उस समय कहना था कि उन्होंने देवरहा बाबा को जिस अवस्था में देखे थे उनके बाप-दादा भी उनको उसी अवस्था में देखे थे। इन सब तथ्यों से यह बात तो साफ है कि देवरहा बाबा की आयु हम सभी मनुष्यों से काफी ज्यादा थी। पर वास्तव में कितनी थी? इसकी सटीक जानकारी किसी को नहीं है।
विदुर नीति के अनुसार,
कर्मणा मनसा वाचा यदमीक्षणं निषेवते।
तदेवापहरत्येनं तस्मात् कल्याणमाचरेत।।
अर्थात् मन, कर्म तथा वचन से हम जिस
वस्तु के बारे में सोचते हैं, वही हमें अपनी ओर आकर्षित करती
है। अतः हमें हमेशा शुभ चीजों का ही चिंतन एवं मनन् करना चाहिए।
हम जैसा सोचते हैं, हमारे
जीवन पर वैसा ही प्रभाव पड़ता है। यदि हमारे सोच अच्छे होते हैं तो उसके परिणाम भी
अच्छे होते हैं। इसके विपरीत बुरे सोच के परिणाम भी बुरे ही होते हैं। जब हम अच्छा
या बुरा सोचते हैं तो हमारे मष्तिष्क से तरंगें निकलती हैं और वो तरंगें उस
व्यक्ति के मष्तिष्क के उपर वैसा ही अच्छा या बुरा प्रभाव डालती हैं जिस तरह की
सोच हम उस व्यक्ति के बारे में अपने मन में रखते हैं। सोच की ही तरह हमारी वाणी का
भी अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ता है। चूंकि वाणी ऊर्जा है और ऊर्जा के अविनाशिता के नियम (Law of conservation of Energy) के अनुसार ऊर्जा का कभी नाश नहीं
होता है। इसलिये जब भी बोलें, बहुत सोच समझकर बोलें और शुभ
बोलें। वाणी की महत्ता को प्रसिद्ध संतों और कवियों की रचनाओं में भी देखा जा सकता
है। संत कबीरदास जी ने कहा है-
ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा
खोय। औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय।।
बोली एक अमोल है, जो कोई
बोलै जानि। हिये तराजू तौलिये, तब मुख बाहर आनि।।
तुलसीदास जी की रचनाओं में भी वाणी का महत्व
दिखाई देता है,
जैसे-
तुलसी मीठे वचन तें, सुख उपजत
चहुँ ओर। वशीकरण एक मंत्र है, तज दे वचन कठोर।।
यह जगत कर्म भूमि है। निष्काम भाव से कर्म
करना ही हमारे हाथ में है फल देना तो ईश्वर के हाथ में है जैसा कि गीता में श्रीकृष्ण
भगवान ने कहा है,
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"।
तुलसीदास जी ने भी कर्म को प्रधान बताया है,
कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करहिं ताहि फल चाखा।।
इस जगत में हर चीज नश्वर है। संसार में जो पैदा होता है वह एक न एक दिन अवश्य नष्ट होता है। हमारा जीवन पानी के एक बुलबुले की तरह है। जैसे बुलबुले में से हवा निकलते ही वह बुलबुला नष्ट हो जाता है। वैसे ही हमारे शरीर में चल रही सांस के बंद होते ही हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जिस शरीर से हम सभी इतना प्रेम करते हैं वही शरीर, सांस के बन्द होते ही एक लाश बन जाता है। तब वह शरीर किसी को पसंद नहीं आता। यही है हमारा असली स्वरूप। जब अपने एक सांस पर भी हमारा अधिकार नहीं तो फिर हम किस अहंकार में जीते हैं। सबसे लड़ते-झगड़ते रहते हैं और तू-तू, मैं-मैं के चक्कर में यह दुर्लभ मनुष्य जीवन को हम सब यूँ ही व्यर्थ में गंवा देते हैं।
यह संसार असार है। यह जगत मिथ्या है पर हम सब उसी को सच मान बैठे हैं। असल सच तो मौत है जो एक न एक दिन सभी की होनी निश्चित है परन्तु उसी को हम सभी नजरंदाज किये रहते हैं। इसका कारण हमारी आंखों के सामने माया का पर्दा जो पड़ा रहता है। हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में चाहे-अनचाहे सोचते, देखते, सुनते एवं बोलते रहते हैं। हमारा मष्तिष्क हमेशा क्रियाशील रहता है। जब हम सोते हैं तब भी हमारा मष्तिष्क जागृत एवं क्रियाशील रहता है। इस तरह, हम कह सकते हैं कि हर वक्त हम जाने-अनजाने में कार्य करते रहते हैं। यह हमारे उपर निर्भर करता है कि हम कैसा कार्य करते हैं? शुभ करते हैं कि अशुभ।
जीवन बड़ा ही अमूल्य है। चौरासी लाख योनियों से गुजरने के बाद मनुष्य का जन्म मिलता है। जिस मनुष्य योनि में जन्म के लिए देवता भी तरसते हैं, उसे ऐसे ही व्यर्थ में नहीं गंवाना नहीं चाहिए। मनुष्य को चाहिए कि प्रकृति के सानिध्य में यथासंभव रहकर स्वयं को जानने और अपने अंतर्निहित शक्तियों को पहचानने की कोशिश करे तथा इह-लोक का सुख भोगकर, परलोक का मार्ग प्रशस्त करे। यह दुनियाँ एक रंग-मंच की तरह है, जहाँ अपने-अपने हिस्से का अभिनय करके यह जीवन छोड़ कर सभी को चले जाना होता है।
जीवन
थोड़ा है, इसलिए सबसे मिलजुल कर प्रेम पूर्वक रहना चाहिए।
दूसरे के दोष देखने से पहले अपने अंदर के दोष देखना चाहिए। धन संपत्ति में तो सभी
भागीदार होते हैं परन्तु कर्मों का भागीदार कोई नहीं होता है। संसार में हर किसी
को अपने अपने कर्मों के हिसाब से फल भोगना पड़ता है। अतः मन, वाणी तथा कर्म से किसी का भी दिल नहीं दुखाना चाहिए। पता नहीं फिर यह मनुष्य
शरीर मिले ना मिले।
Very Nice👍👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंVery nice
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