15 जनवरी 2023

जो होता है, अच्छे के लिए होता है (सच्ची घटना पर आधारित कहानी)

देवियों एवं सज्जनों

आपके समक्ष जीवन की एक सच्ची घटना पेश की जा रही है, सिर्फ पात्रों के नाम बदल दिये गए हैं। 

गीता में भगवान श्री कृष्ण जी ने कहा है, "जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा हो रहा है और जो होगा, वो भी अच्छा ही होगा" भगवान का यह उपदेश इस कहानी में चरितार्थ होता है।

सौजन्य: You Tube

सन् १९९५ इस्वी का गरमी का महीना था। परशुराम छुट्टी लेकर, अपने छोटे भाई की शादी में भाग लेने हेतु घर आया था। शादी का कार्यक्रम बीत चुका था। सगे-संबधी लगभग जा चुके थे। कुछ पुराने रिश्तेदार रह गए थे और परशुराम का एक दोस्त रमेश भी अभी परशुराम के घर रुका हुआ था। उस समय, परशुराम की माता जी किसी कारणवश परशुराम से बहुत नाराज हो गयीं और परशुराम से गुस्से में बोलीं, "परशुराम! तुम अपने परिवार को साथ ले जाओ और अपने ही पास रखो"। वहीं, पास में परशुराम के भाई थे और उसका दोस्त रमेश भी था। रमेश भी परशुराम की माताजी की कही हुयी सब बातें सुन लिया था। 

माताजी के वहाँ से जाने के बाद रमेश परशुराम को थोड़ी दूरी पर एकांत में ले गया। और परशुराम से कहा, "यदि तुम चाहते हो कि घर में सुख-शांति कायम रहे, कलह न बढ़े और घर-परिवार में विभाजन न हो तो तुम अपनी मां का कहना मानकर अपने परिवार को साथ ले जाओ और अपने पास रखो। जिसने मुंह दिया है, वही आहार भी देगा"।                                                                                    

उस समय समाज में सरकारी नौकरी को ज्यादा प्राथमिकता दी जाती थी। अतः परशुराम भी अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद बहुत सालों तक सरकारी नौकरी के पीछे भागता रहा। प्राइवेट नौकरी मिलती भी तो उस समय वह नहीं करता था। जब सरकारी नौकरी नहीं मिली तब परशुराम थक-हार कर प्राइवेट नौकरी करने को सोचा। तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी। उस समय प्राइवेट नौकरी भी नहीं मिलती थी। आखिरकार, परशुराम को एक प्राइवेट कंपनी में, बहुत मुश्किल से काम मिला। उसका वेतन बहुत बहुत कम था। परशुराम को काम करते हुए अभी दो साल के लगभग ही हुए होंगे कि उसके भाई की शादी पड़ गई। उसी शादी में भाग लेने हेतु परशुराम अपने घर आया था और शादी बीतने के बाद उसे उसकी माताजी का हुक्म हुआ कि था वह अपने परिवार को साथ ले जाए। 

परशुराम के घर में उस समय छोटे-बड़े कुल मिलाकर नौ सदस्य थे। उनमें परशुराम, उसके माता-पिता, परशुराम के दो छोटे भाई, परशुराम की पत्नी और उसके तीन बच्चे थे। परशुराम के बच्चों में दो बड़े बेटे तथा एक सबसे छोटी बेटी थी। बेटी की उम्र उस समय लगभग पांच-छः बरस की रही होगी। परिवार को अपने साथ रखकर उनकी परवरिश करना, परशुराम के लिए बहुत ही मुश्किल का काम था। परशुराम को उस समय, बाहर में परिवार का भरण-पोषण, बच्चों की उचित शिक्षा का बन्दोबस्त करना, आसान नहीं था। 
परशुराम के सामने बड़ी ही असमंजस की स्थिति थी। क्या करे? और कैसे करे? एक तरफ माँ का आदेश और दूसरी तरफ मित्र रमेश की सलाह मित्र रमेश की सलाह का परशुराम के अंतर्मन पर न जाने क्यों, गहरा असर हुआ और परशुराम अपने परिवार को साथ रखने का फैसला कर लिया।      
                                                  
परशुराम घर से चल दिया। ट्रेन पकड़ा और नौकरी पर जाने के लिए रवाना हो गया। परशुराम जहाँ काम कर रहा था, उस कम्पनी में पहुँच कर अपने विभाग के इंचार्ज साहब से मिला और उन्हें अपनी सारी स्थिति से अवगत कराया। उसके इंचार्ज उसे कम्पनी में सबसे बड़े साहब से मिलने को बोले। अतः वह तुरंत बड़े साहब से मुलाकात कर और उन्हें भी पूरी बात बताया और उनसे फेमिली रूम की मांग की। 

उस समय तक, परशुराम कम्पनी के गेस्ट हाउस में रहा करता था क्योंकि बैचलर स्टाफ को रहने के लिए कंपनी गेस्ट हाउस में व्यवस्था की थी। बड़े साहब, परशुराम की पूरी बात सुनकर उसे आश्वासन दिये कि परशुराम तुम घर जाओ और अपनी फेमिली लेकर आओ हम तुम्हारे लिए फेमिली रूम की व्यवस्था करेंगे। यह सुनकर परशुराम को आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी हुयी कि बड़े साहब ने मेरी मांग को एक बार में ही सहर्ष स्वीकार कर लिया। परन्तु मन में यह संशय था कि "साहब बोल तो दिये पता नहीं, रूम देंगे या नहीं। मैं फेमिली को लेकर आउं और रूम न दें तो उस  स्थिति में, मैं क्या करूँगा?" क्योंकि फैक्ट्री में उस समय परशुराम के अलावा और भी सीनियर स्टाफ थे, जिनको फेमिली रूम तब तक नहीं मिला था। खैर! परशुराम के पास और कोई उपाय भी तो नहीं था। 

वह घर वापस आया और घर में बात करके एक-दो दिन बाद ही घर से अपने परिवार को लेकर वापस ट्रेन पकड़कर नौकरी पर चल दिया। जब परशुराम कम्पनी के समीपवर्ती स्टेशन पर पहुँचा तो वहाँ के एक एस. टी. डी. बूथ से कंपनी के बड़े साहब को एक बार फोन किया, "सर, मैं परिवार को लेकर पहुँच रहा हूँ। मुझे फेमिली रूम निश्चित रूप से चाहिए" तो उधर से साहब का जबाब मिला "तुम परिवार लेकर आओ, घर जरूर दूंगा"।बड़े साहब की बातों से परशुराम पूरी तरह आश्वस्त होकर वहाँ से चला। वह जब थोड़ी ही देर में अपने गन्तव्य स्टेशन पर पहुंचा। तब तक शाम हो गई थी। उसने सोचा अब इस वक्त परिवार को लेकर कहाँ जाऊँ? साहब भी कम्पनी से इस वक्त तक निकल ही जाते हैं, फिर किससे बात करूँगा? उस समय कोई रास्ता न देख, परशुराम परिवार को लेकर सीधा कंपनी के गेस्ट हाउस में पहुँचा। जहाँ पर वह परिवार को लाने से पहले रहता था। वहाँ पर परशुराम को उसके परिवार के साथ देख वहाँ उपस्थित अन्य स्टाफ़गण उसके लिए एक कमरा खाली कर दिए। 

उस दिन परशुराम अपने परिवार के साथ गेस्ट हाउस में ही खाना बना-खाकर सोया। सुबह हुआ तो, परशुराम नाश्ता करके गेस्ट हाउस से कम्पनी गया, जो गेस्टहाउस के पास में ही थी। वहाँ पहुँचने पर बड़े साहब ने परशुराम को एक नये फ्लैट की चाबी दिये। उसके डिपार्टमेंट के इंचार्ज महोदय कंपनी की एक गाड़ी के ड्राइवर को आदेश दिये कि वह परशुराम को लेकर जाये और वह घर में शिफ्ट करने तथा जरूरी सामान खरीदने में परशुराम की मदद करे। परशुराम की मदद करने के लिए परशुराम के एक सहकर्मी स्टाफ जो बडे़ खुले दिमाग के और नेक दिल इंसान हैं, वो खुद से परशुराम की मदद करने के लिए उसके साथ हो लिए। वे घर में शिफ्ट कराने से लेकर गृहस्थी से संबंधित आवश्यक सभी सामान खरीदने में परशुराम की बहुत मदद की। इस तरह परशुराम कंपनी द्वारा प्रदत्त नये घर में अपनें परिवार के साथ शिफ्ट होकर बहुत खुश हुआ।

अब बारी आई परशुराम के बच्चों के स्कूल में दाखिले की। वहाँ बहुत छोटा कस्बा होने के कारण इंग्लिश मीडियम का केवल एक ही स्कूल था जो एक ट्रस्ट द्वारा संचालित था। उसमें नये बच्चों के प्रवेश के लिए डोनेशन भी देना पड़ता था। इसके लिए परशुराम अपने इंचार्ज साहब के सलाह पर पुनः बड़े साहब से मिला। बड़े साहब उस स्कूल के ट्रस्ट के सदस्य भी थे। वे परशुराम को एक चिट्ठी लिखकर दिये। उनका पत्र लेकर परशुराम स्कूल के प्रिंसिपल से मिला। पत्र के माध्यम से बच्चों के प्रवेश में लगने वाला डोनेशन माफ़ हो गया। और इस तरह परशुराम के तीनों बच्चों का स्कूल में प्रवेश मिल गया। 

आगे एक और संयोग देखिए। परशुराम के इंचार्ज महोदय के चार बच्चे थे वे भी उसी स्कूल में पढ़ते थे। उनके तीन बडे़ बच्चेपरशुराम के तीनों बच्चों से क्रमशः एक-एक क्लास आगे वाली कक्षा में पढते थे। अतः परशुराम के इंचार्ज ने अपने तीनों बच्चों की पहले वाली पुस्तकें परशुराम के बच्चों को पढ़ने के लिए दे दिए। और इस तरह परशुराम के बच्चों की पढ़ाई लिखाई भी शुरू हो गई। वहाँ से परशुराम के एक नये जीवन की शुरुआत हुई। 

यह घटनापरशुराम के लिए एक अप्रत्याशित सपना जैसा था। 

परशुराम अपने परिवार के साथ रहकर नौकरी करने लगा। फिरवह जीवन में वापस मुड़कर नहीं देखा। कंपनी परशुराम को जिस कम्पलेक्स में फ्लैट दिया थावह बिल्कुल नया और सुंदर कंपलेक्स था। शुरुआत में तो परशुराम अपनी कंपनी का इकलौता कर्मचारी थाजो उस कंपलेक्स में शिफ्ट हुआ था। पर कुछ समय बाद में ही कंपलेक्स के उसी ब्लॉक मेंकम्पनी के और कई सारे स्टाफ़ परशुराम के फ्लैट के अगल-बगल वाले फ्लैटों मे आकर रहने लगे थे। वे सभी परिवारों के लोगआपस में इस तरह घुल-मिल कर रहते थे मानो सभी एक ही घर परिवार के सदस्य हों। 

इस समय उस कंपनी और उस जगह को छोड़े हुए परशुराम को बहुत साल बीत चुके हैं। परंतु वहाँ पर बिताये हुए कुछ ही वर्ष, परशुराम और उसके परिवार के मानस पटल पर आज भी इस तरह जीवंत हैं कि मानों अभी कुछ दिन पहले की बात हो

सारांश:


इस घटना ने परशुराम के जीवन को बदल दिया। उसकी माँ का आदेश और उसके मित्र की सलाह को ईश्वर ने सच कर दिया। जो काम परशुराम के लिए उस समय असंभव सा प्रतीत हो रहा था, वह माँ का आदेश कहें या आशिर्वाद कहें, जो भी कहें, बिल्कुल सच हो गया और परशुराम के बच्चे उसके साथ रहकर पढ़-लिख पाए। आज परशुराम के सभी बच्चे स्वावलम्बी हैं। यह घटना परशुराम के जीवन के लिए एक अनसुलझी पहेली से कम नहीं है। परशुराम इसे जब भी याद करता है तो उसे रोमांच हो जाता है कि कोई तो अदृश्य शक्ति है जो हमें संचालित करती है। और वही शक्ति उस समय परशुराम के जीवन में भी उससे एक कदम आगे चलकर उसके मन की मुराद को पूरी की। इससे यह कहावत चरितार्थ होती है कि "जो होता है, अच्छे के लिए ही होता है।"

सीख:  

अपने माँ-बाप, अपने शुभचिंतकों, मित्रों और ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए और उनका आभारी होना चाहिए।

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