"भगवान अपने भक्तों के वश में होते हैं," यह भक्ति-मार्ग के उस गूढ़ सत्य को व्यक्त करता है, जिसमें यह कहा गया है कि निश्छल प्रेम, समर्पण और भक्ति के बल पर भक्त, भगवान को अपने वश में कर सकते हैं। हमारे धर्मग्रंथों, संतों और महापुरुषों की वाणी में यह सत्य बार-बार प्रकट हुआ है कि भगवान, जो संपूर्ण सृष्टि के नियंता और सर्वशक्तिमान हैं, अपने भक्तों के प्रेमपाश में आसानी से बंध जाते हैं। एक सच्चे भक्त का अपने भगवान के प्रति विश्वास अटूट होता है। इसीलिये तो भगवान अपने भक्तों के वश में हो जाते हैं और वे अपने भक्तों के विश्वास को कभी टूटने नहीं देते। उनकी एक करुण पुकार पर भगवान भक्त के सम्मुख तुरंत उपस्थित हो जाते हैं और उसके सभी कष्टों को हर लेते हैं। तो "भगवान कैसे अपने भक्तों के वश में होते हैं?" इसे विस्तार से जानने के लिए यहाँ महत्वपूर्ण पौराणिक कहानियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं जिन्हें पढ़कर आप भगवान की भक्ति के महत्व को समझ सकते हैं और उसकी गहराई को महसूस भी कर सकते हैं।
भक्त और भगवान का संबन्ध:
भक्त और भगवान का संबन्ध प्रेम और विश्वास पर आधारित है। इसमें न कोई शर्त होती है और न ही कोई स्वार्थ। भक्त अपनी भक्ति से भगवान का साक्षात्कार करता है और भगवान, भक्त की भक्ति से खुश होकर उसे आशीर्वाद और वरदान देते हैं। भगवान कहते हैं कि जो भक्त मुझसे सच्चे दिल से प्रेम करता है, मैं उसके वश में होता हूँ। जिन भक्तों के संपूर्ण कार्य भगवान के निमित्त होते हैं, वे भगवान के बहुत प्रिय होते हैं। भगवान और भक्त का यह रिश्ता, धार्मिकता के साथ मानवजीवन में मानसिक और आध्यात्मिक संतुलन स्थापित करने का माध्यम भी है।
भक्ति का प्रभाव:
भक्ति का अर्थ है भगवान के प्रति निष्काम प्रेम और पूर्ण समर्पण। जब भक्त नि:स्वार्थ भाव से भगवान का ध्यान करता है, उनका स्मरण करता है, तो भगवान उसकी भक्ति को स्वीकार करते हैं। यह सिद्धांत हमें श्रीमद्भगवद्गीता, रामायण, भागवत पुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथों में देखने को मिलता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है;
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।
अर्थात्, जो भक्त प्रेमपूर्वक मुझे पत्र,पुष्प, फल या जल अर्पित करता है, मैं उसे सहर्ष स्वीकार करता हूं।
इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान तो केवल भाव के भूखे होते हैं। उनको प्रसन्न करने के लिए किसी बाहरी साधन की आवश्यकता नहीं होती।
प्रेम में बंधे भगवान:
संतों और भक्तों के जीवन में कई ऐसी घटनाएँ सुनने में आती हैं, जो यह दर्शाती हैं कि भगवान अपने भक्तों के प्रेम में बंध जाते हैं। एक प्रसिद्ध उदाहरण तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस में मिलता है। जब श्रीराम के परम भक्त हनुमान जी ने अपने अटूट प्रेम और सेवा से भगवान राम को प्रसन्न किया, तो राम ने हनुमान को गले लगाते हुए कहा-
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभीन्तर मल कहहुँ न जाई।।
यहां भगवान श्रीराम स्वीकार करते हैं कि प्रेम और भक्ति के बिना संसार रूपी समुद्र को पार करना असंभव है। यही प्रेम भगवान को अपने भक्त के वश में कर देता है।
प्रेम और समर्पण का महत्व:
भक्ति केवल पूजा-अर्चना तक सीमित नहीं होती। यह भगवान के प्रति निश्छल भक्ति, निस्वार्थ प्रेम और समर्पण का भाव है। जब एक भक्त सच्चे दिल से भगवान को पुकारता है, तो भगवान स्वयं उसकी सहायता के लिए वैसे ही तुरंत प्रकट होते हैं और उसकी रक्षा करते हैं जैसे उन्होंने गज को ग्राह से बचाया, भक्त प्रहलाद को उसके पिता हिरण्यकश्यप से बचाया। भगवान अन्तर्यामी हैं, वे अपने भक्त की पीड़ा को बिन कहे भांप लेते हैं और उसे हर लेते हैं जैसे भगवद्भक्त राजा अंबरीष को भगवान ने दुर्वासा ऋषि के कोप से बचाया था और अपने भक्त का मान बढ़ाने के लिए दुर्वासा ऋषि को उसी भक्त से मांफी मांगने को मजबूर भी किया था। यह सब दृष्टांत हमें बताते हैं कि भगवान अपने भक्तों के वश में होते हैं और भगवान की भक्ति के लिए किसी बाहरी साधन की जरूरत नहीं है, केवल दिल में सच्चे प्रेम और भक्ति का भाव होना चाहिए।
पौराणिक कहानियाँ:-
१. राजा अंबरीष की भक्ति और क्षमाशीलता की अनूठी कहानी
श्रीमद्भागवत सुधासागर के नवम स्कन्ध के चौथे अध्याय में राजा अंबरीष की अटूट भक्ति का वृत्तांत मिलता है। राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी से कहा- भगवन्! मैं परमज्ञानी राजर्षि अंबरीष का चरित्र सुनना चाहता हूँ। तब श्रीशुकदेवजी ने राजा अंबरीष की कहानी, परीक्षित को सुनाया था, जो इस प्रकार है-
श्रीशुकदेवजी ने कहा- हे परीक्षित! मनु के पुत्र नभग हुए और उनके पुत्र का नाम नाभाग था। अंबरीष, नाभाग के ही पुत्र थे। वे भगवान विष्णु के परम भक्त, उदार एवं धर्मात्मा थे। उनको पृथ्वी के सातों द्वीप, अचल संपत्ति और अतुलनीय ऐश्वर्य प्राप्त था जिन्हें वे स्वप्नतुल्य समझते थे। जो ब्रह्मशाप कभी भी, कहीं भी रोका नहीं जा सका, वह ब्रह्मशाप भी राजा अंबरीष का स्पर्श तक न कर सका।
राजा अंबरीष की पत्नी भी उन्हीं के समान धर्मशील, विरक्त एवं धर्मपरायणा थीं। वह अपनी धर्मपत्नी के साथ एकादशी व्रत का पालन बड़ी श्रद्धा से करते थे। उन्होंने अपने राजमहल में अनगिनत यज्ञ और दान दिए, लेकिन उनके मन में किसी प्रकार का अहंकार नहीं था। वे अपने भक्ति और त्याग के लिए समस्त संसार में प्रसिद्ध थे। एक बार राजा अंबरीष ने "वर्षभर के कठिन एकादशी-व्रत" के पश्चात् द्वादशी के दिन पारण करने का संकल्प लिया। उन्होंने अपनी प्रजा और ऋषि-मुनियों के साथ यज्ञ का आयोजन किया। जैसे ही वे पारण करने की तैयारी कर रहे थे, उसी समय प्रसिद्ध तपस्वी दुर्वासा ऋषि उनके महल में पधारे। राजा ने उनका स्वागत किया और भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। दुर्वासा ऋषि ने कहा, "मैं पहले स्नान करूंगा और फिर भोजन करूंगा।" राजा ने सहर्ष स्वीकृति दी।
दुर्वासा ऋषि स्नान के लिए गए, लेकिन वे ध्यानमग्न हो गए और वापस लौटने में उन्हें बहुत समय लग गया। उधर, द्वादशी का समय समाप्त हो रहा था, और राजा अंबरीष के सामने एक दुविधा खड़ी हो गई। यदि वे पारण न करें, तो व्रत खंडित हो जाएगा, और यदि ऋषि के बिना पारण करें, तो ऋषि का अपमान होगा। अत: राजा ने इस विषय पर धर्म के मर्मज्ञों से विचार-विमर्श किया। उन्होंने सारे तथ्यों को समझते हुए एक समाधान निकाला कि राजा केवल तुलसी-जल का सेवन कर लें तो पारण का विधान भी पूर्ण हो जायेगा और तुलसी जो भोजन का अंश नहीं माना जाता है, इस तरह से ऋषि का अपमान भी नहीं होगा। अतः धर्मज्ञों के कथनानुसार राजा तुलसी-जल ग्रहण कर लिए। जब दुर्वासा ऋषि स्नान करके लौटे और यह जाना कि राजा ने उनके बिना ही पारण कर लिया है, तो वे अत्यंत क्रोधित हो उठे।
दुर्वासा ऋषि ने क्रोध में आकर राजा को श्राप देने का संकल्प लिया। उन्होंने अपनी जटा से कृत्या नामकी एक भयंकर राक्षसी को उत्पन्न किया, जो राजा को मार डालने के लिए दौड़ी। प्रजा भयभीत हो उठी, लेकिन राजा बिल्कुल शांत खड़े रहे। उनके मन में भगवान के प्रति अटूट विश्वास था। जैसे ही राक्षसी राजा की ओर बढ़ी, भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र ने प्रकट होकर राक्षसी को मार डाला और दुर्वासा ऋषि का पीछा करना शुरू कर दिया। ऋषि भयभीत होकर भगवान ब्रह्मा और भगवान शिव के पास गए, लेकिन दोनों ने कहा, "सुदर्शन चक्र को केवल भगवान विष्णु ही रोक सकते हैं।"
आखिरकार, दुर्वासा ऋषि भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनसे अपनी रक्षा की प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने कहा, "ऋषिवर! मैं अपने भक्तों के प्रति सदा समर्पित हूंँ। मेरा सुदर्शन चक्र तभी रुकेगा, जब राजा अंबरीष आपको क्षमा कर देंगे।" दुर्वासा ऋषि लज्जित होकर राजा अंबरीष के पास लौटे और उनसे क्षमा मांगी। राजा ने हृदय से ऋषि को क्षमा कर दिया और उनका आदरपूर्वक स्वागत किया। उनकी भक्ति और क्षमा के गुण ने ऋषि को गहराई से प्रभावित किया। राजा अंबरीष ने कहा, "भगवान की कृपा से ही सब कुछ संभव है। मैं तो केवल उनका एक तुच्छ सेवक हूंँ।" यह सुनकर दुर्वासा ऋषि को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने राजा की महानता को दिल से स्वीकार किया।
२. भक्त प्रह्लाद: भक्ति, विश्वास और भगवद्कृपा की अमर कहानी
इस कहानी का उल्लेख भी श्रीमद्भागवत सुधासागर के सप्तम स्कन्ध के चौथे अध्याय में किया गया है। बहुत समय पहले, असुरों के राजा हिरण्यकश्यप का शासन पूरे त्रिलोकी पर था। वह इतना शक्तिशाली और अभिमानी था कि उसने स्वयं को भगवान घोषित कर दिया था। उसने देवताओं को हराकर स्वर्गलोक पर कब्जा कर लिया और पूरे ब्रह्मांड को अपनी शक्ति के अधीन कर लिया। लेकिन हिरण्यकश्यप का बेटा प्रह्लाद भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था। यही बात हिरण्यकश्यप के अहंकार और प्रह्लाद की भक्ति के बीच टकराव का कारण बनी।
प्रह्लाद का जन्म हिरण्यकश्यप और उनकी पत्नी कयाधु के घर हुआ था। बचपन से ही प्रह्लाद का स्वभाव साधारण बच्चों से अलग था। जब वे अपनी माँ कयाधु के गर्भ में थे, तब ऋषिवर नारद ने कयाधु को भगवान विष्णु की महिमा सुनाई थी। यही कारण था कि प्रह्लाद जन्म से ही भगवान विष्णु के प्रति श्रद्धा और प्रेम में सराबोर थे। हिरण्यकश्यप को यह विश्वास था कि उसका पुत्र भी उसकी तरह ही बलवान और भगवान-विरोधी बनेगा। लेकिन समय के साथ प्रह्लाद की भगवान के प्रति भक्ति ने हिरण्यकश्यप को परेशान कर दिया।
जब प्रह्लाद कुछ बड़े हुए, तो हिरण्यकश्यप ने उन्हें असुरों के गुरु, शुक्राचार्य के पुत्र शण्ड और अमर्क के आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा। गुरुओं ने उन्हें शक्ति, अहंकार और असुरों के गुण सिखाने की बहुत कोशिश की, लेकिन प्रह्लाद हर बात पर भगवान विष्णु की भक्ति का ही पाठ करते। एक दिन असुरराज हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद से पूछा, "बेटा! तुम्हारी शिक्षा कैसी चल रही है? मुझे बताओ, संसार में सबसे बड़ा कौन है?" प्रह्लाद ने बड़ी ही मासूमियत से जवाब दिया, "पिताजी, संसार में सबसे बड़े भगवान विष्णु हैं। वे ही हमारे सच्चे स्वामी और पालनहार हैं।"
यह सुनकर हिरण्यकश्यप अत्यंत क्रोधित हुआ। उसने समझाने की भरसक कोशिश की, लेकिन प्रह्लाद अपने विश्वास पर अडिग रहे। हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को उसकी भक्ति से दूर करने के लिए अनेक प्रयास किए, अनेक यातनाएं दी। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि वे प्रह्लाद को मार डालें। वे भांति-भांति के हथियारों से प्रह्लाद के मर्मस्थानों पर घाव कर रहे थे। उस समय प्रह्लाद का चित्त तो परब्रह्म परमात्मा में लगा हुआ था। इसलिए दैत्यों के सारे प्रहार निष्फल हो गये। शूलों की मार का प्रह्लाद के उपर कोई असर नहीं हुआ। हिरण्यकश्यप प्रह्लाद को जान से मार डालने के लिए अब तरह-तरह के उपाय करने लगा। उसने प्रह्लाद को मतवाले हाथियों से कुचलवाया, विषधर सांपों से डंसवाया, पहाड़ की चोटी से नीचे फेंकवाया, विष पिलाया और यहाँ तक कि खाना भी बंद करवा दिया। परंतु किसी भी उपाय से हिरण्यकश्यप अपने पुत्र प्रह्लाद का बाल बांका नहीं कर सका। थक-हारकर, हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को बुलाया। होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में नहीं जल सकती। हिरण्यकश्यप ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर आग में बैठ जाए। होलिका ने प्रह्लाद को अपनी गोद में लिया और दोनों अग्नि में बैठ गए। लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित रहे, जबकि होलिका जलकर भस्म हो गई। यह घटना भगवान की भक्ति की जीत का पर्याय बन गई।
अंत में, हिरण्यकश्यप ने क्रोधित होकर प्रह्लाद से पूछा, "अगर तुम्हारे भगवान हर जगह हैं, तो क्या वे इस खंभे में भी हैं?" प्रह्लाद ने उत्तर दिया, "हाँ, पिताजी! भगवान हर जगह हैं।" हिरण्यकश्यप ने गुस्से में खंभे पर प्रहार किया। उसी क्षण, खंभे से भगवान विष्णु नरसिंह अवतार में प्रकट हुए। यह अवतार न तो मनुष्य का था और न ही किसी पशु का। नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में लिया और सूर्यास्त के समय द्वार पर ले जाकर अपने नाखूनों से उसका वध किया। हिरण्यकश्यप के वध के बाद, भगवान नरसिंह का क्रोध शांत नहीं हो रहा था। तब प्रह्लाद ने भगवान की स्तुति की और उन्हें शांत होने के लिए प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने प्रह्लाद को आशीर्वाद दिया और कहा, "तुम्हारी भक्ति संसार के लिए एक आदर्श बनेगी।"
निष्कर्ष:
"भगवान अपने भक्तों के वश में रहते हैं।" यह संदेश हमें सिखाता है कि भगवान के प्रेम को प्राप्त करने का सबसे सरल और श्रेष्ठ मार्ग भक्ति का है। जब भक्त निष्कपट और नि:स्वार्थ भाव से भगवान को पुकारता है, तो भगवान अवश्य उसकी पुकार सुनते हैं। भक्ति से भगवान का हृदय पिघल जाता है, और वह अपने भक्त को अपनी अनंत कृपा से अनुग्रहित करते हैं। यह विचार हमें सच्चे प्रेम, समर्पण और विश्वास का मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करता है।
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