21 नवंबर 2024

पढ़िए, शिवाजी महाराज का वो ऐतिहासिक पत्र जो राजा जयसिंह को लिखे थे

मुगल बादशाह औरंगजेब शिवाजी महाराज की शक्ति से आतंकित था। शाइस्ता खां और अफज़ल खां की शिवाजी से शिकस्त के बाद औरंगजेब ने शिवाजी को पकड़ कर मुगल दरबार में पेश करने काम आमेर के राजा जयसिंह को सौंपा। 


औरंगजेब का मामा शाइस्ता खां पूना से भागकर दिल्ली आया और औरंगजेब को लालमहल पर शिवाजी के हमले की घटना बताई, साथ ही अपने दाहिने कटे हाथ को दिखाया। बहुत गमगीन था आला सेनापति। इतने में सूरत की लूट की खबर पहुंची। औरंगजेब गुस्से से बौखला गया। बीस हजार की बेतरतीब मावलों की भीड़वाला शिवाजी, मुगल बादशाह की एक लाख बेहतरीन फौजों से लोहा ले रहा था। बात तो यकीन करने की नहीं थी, परंतु थी सच।

औरंगजेब अद्भुत कूटनीतिज्ञ था। उसने सोचा कि इस बार हिन्दुओं की बड़ी फौज दक्षिण में भेजी जाय ताकि दोनों तरफ से हिन्दू मरेंगेआमेर के राजा जयसिंह जिसे शाहजहाँ ने ४००० घुड़सवारों का सेनापति बनाकर उन्हें "मिर्जा राजा" की उपाधि दी थी, को यह भार सौंपा गया। वे मुगलों के बड़े सेनापति थे। पांच पीढ़ी से उनकी गुलामी करते आ रहे थे। सूझबूझ और सैनिक संधान में वे अद्वितीय गिने जाते थे।

औरंगजेब अव्वल दर्जे का धूर्त और वहमी था। सावधानी के लिए उसने एक दूसरे सेनापति दिलेर खां को राजा के साथ लगा दिया। फौज अधिकांश हिन्दुओं की थी। सन् १६६५ ई. की फरवरी में मुगल फौज बुरहानपुर पहुंच गई। यह दक्खिन का दरवाजा गिना जाता था।

राजा जयसिंह शिवाजी से मैदान में लड़ना चाहता था, परंतु शिवाजी उससे भी अधिक बुद्धिमान थे। वे अपनी सीमित शक्ति को जानते थे। बीजापुर का डर भी बना हुआ था। कहीं दो पाटों के बीच में नहीं फंस जायं, यह चिंता थी। 

उन्हें यह भी सूचना मिल गई थी कि इस बार अधिकांश हिन्दू फौजें हैं। उनके पास उस समय बीस हजार फौज थी, परंतु बेहतरीन हथियारों की कमी थी, जबकि मुगल फौज में हाथी, घोड़े, ऊंट, छोटी-बड़ी तोपें और बन्दूकें थीं। वे जयसिंह को लम्बे अरसे तक उलझाकर रखना चाहते थे।

शिवाजी यह भी जानते थे कि जयसिंह कट्टर धार्मिक है। औरंगजेब ने पिछले वर्षों में मथुरा, काशी और खास जयपुर के बहुत से मंदिर तोड़े हैं, इसलिए जयसिंह मन ही मन दुखी भी है। शिवाजी, जयसिंह की हिन्दू भावना को जाग्रत करके एक बहुत बड़ा सम्मिलित मोर्चा बनाना चाहते थे। शिवाजी की यह आकांक्षा नहीं थी कि वे स्वयं नेता बनें। मेवाड़ के राजा जयसिंह या जोधपुर के राजा जसवंत सिंह में से किसी को भी नेता बनाने को तैयार थे। शिवाजी का एकमात्र लक्ष्य था कि किसी भी तरह बढ़ती हुई मुगल-शक्ति को छिन्न-भिन्न किया जाय, जिससे हिन्दू धर्म मजबूत होकर देश में हिन्दू संस्कृति फले-फूले।

शिवाजी ने सोचा क्यों न एक बार राजा जयसिंह से मिलकर सारी बात स्पष्ट कर ली जायं। आखिर वह भी तो देश और धर्म का भला-बुरा सोचता ही है, उसके मन में भी इष्ट देवता के मंदिर टूटने का मलाल तो है ही। अतः शिवाजी महाराज ने राजा जयसिंह को ये पत्र लिखा-

रायगढ़, फरवरी सन् १६६५ ई. 

"हे रामचंद्र के हृदयांश! तुझसे राजपूतों का सर ऊंचा है। बुद्धिमान जयसिंह! शिवा का प्रणाम स्वीकार कर। परमात्मा तुझको धर्म-न्याय का मार्ग दिखायें।"

मैंने सुना है कि तुम मुझ पर आक्रमण करने और दक्षिण के प्रांत पर विजय प्राप्त करने आया है। हिन्दुओें के रक्त से तू संसार में यशस्वी होना चाहता है; पर तू यह नहीं जानता कि यह तेरे मुंह पर कालिख लग रही है। क्योंकि इससे देश और धर्म दोनों आपत्ति में पड़ जायेंगे। यदि तू स्वयं दक्षिण विजय करने आता तो मेरे सिर और आंख तेरे रास्ते के बिछौने बन जाते। मैं तेरे साथ बड़ी सेना लेकर चलता और एक सिरे से दूसरे सिरे तक की भूमि तुझे विजय करा देता; पर तू तो औरंगजेब की ओर से आया है। 

अब मैं नहीं जानता कि तेरे साथ कौन सा खेल खेलूँ। यदि मैं तुझसे मिल जाऊँ तो यह पुरुषत्व नहीं है और यदि मैं तलवार तथा कुठार से काम लेता हूँ तो दोनों तरफ से हिन्दुओं की ही हानि पहुंचती है। न्याय तथा धर्म से वंचित पापी औरंगजेब जो मनुष्य के रूप में राक्षस है। जब अफज़ल खां से कोई श्रेष्ठता न प्रकट हुई, न ही शाइस्ता खां की कोई योग्यता देखी तो तुझको हमारे निमित्त भेजा है। वह स्वयं तो हमारे आक्रमण को सहने की योग्यता रखता नहीं। वह चाहता है कि हिन्दुओं के दल में कोई बलशाली न रह जाय। सिंह-सिंह आपस में लड़कर घायल तथा शान्त हो जायं। यह गुप्त-भेद तेरे सिर में क्यों नहीं बैठता? 

तूने संसार में बहुत भला-बुरा देखा है। तुझे यह नहीं चाहिए कि हम लोगों से युद्ध करे, हिन्दुओं के सिर को धूल में मिलावे। व्याघ्र, मृग आदि पर व्याघात करते हैं, सिंहों के साथ गृहयुद्ध में प्रवृत नहीं होते। यदि तेरी काटनेवाली तलवार में पानी है तो तुझे चाहिए कि धर्म के शत्रु पर आक्रमण करे। तूने जसवंत सिंह को धोखा दिया और हृदय में ऊंच-नीच नहीं सोचा। तू लोमड़ी का खेल खेलकर अभी अघाया नहीं है, सिंहों से युद्ध के निमित्त ढिठाई करने आया है। तुझको इस दौड़धूप से क्या मिलता है? तू उस नीच की कृपा का क्या अभिमान करता है? तू जानता है कि कुमार क्षत्रसाल को वह किस प्रकार से अनिष्ट पहुंचाना चाहता था? तू जानता है कि दूसरे हिन्दुओं पर उस दुष्ट के हाथ से क्या-क्या विपत्तियाँ आयीं? मैं मानता हूँ कि तूने उससे संबंध जोड़ा है पर उस राक्षस के लिए यह बन्धन इजारबंद (पायजामे का नाड़ा) से अधिक मजबूत नहीं है। वह तो अपने इष्ट साधना के लिए भाई के रक्त और बाप के प्राणों से भी नहीं डरता। 

यदि तू पौरुष और बड़ाई मारता है तो अपनी जन्मभूमि के संताप से तलवार को तपा तथा अत्याचार से दुखियों के आंसू पर पानी दे। यह अवसर हम लोगों के आपस में लड़ने का नहीं है; क्योंकि हिन्दुओं पर इस समय बड़ा कठिन कार्य पड़ा है। हमारे देश, देशवासियों, धन, संस्कृति, मंदिरों पर आपत्ति आ पड़ी है। तथा उनका दुख असहनीय हो रहा है। यदि उसका अत्याचार इसी तरह कुछ दिन और चलता रहा तो इस धरती से हम लोगों का नामोनिशान मिट जायेगा। बड़े ही आश्चर्य की बात है कि मुट्ठी भर मुसलमान हमारे इतने बड़े देश पर प्रभुता जमावें। यदि तुझको समझ है तो देख वह हमारे साथ कैसी धोखे की चालें चलता है तथा हमारे सिरों को हमारी ही तलवारों से काटता है।

हम लोगों को हिन्दुस्तान तथा हिन्दू धर्म के निमित्त अधिक प्रयत्न करना चाहिए। यदि तू जसवंत से मिल जाय और मेवाड़ के राणा से भी एकता का व्यवहार कर ले तो आशा है कि बड़ा काम बन जाय। चारों तरफ से धावा करके तुम लोग युद्ध करो। उस सांप के सिर को पत्थर के नीचे दबा लो। मैं इस ओर भाला चलाने वाले वीरों के साथ इन दोनों बादशाहों का भेजा निकाल डालूँ। मेघों की भाँति गरजने वाली सेना से मुसलमानों पर तलवार का पानी बरसाऊं। इसके बाद युद्ध में दक्ष वीरों के साथ कोलाहल मचाती हुयी नदी की भांति दक्षिण के पहाड़ों से निकलकर मैदान में आऊं। हम लोग अपनी सेनाओं की तरंगों को दिल्ली में उस जर्जरीभूत घर में पहुँचा दें। उसकी न अत्याचारी तलवार रह जाय और न कपट का जाल। यह काम बहुत कठिन नहीं है, केवल यथोचित हृदय, हाथ तथा कान की आवश्यकता है। दो हृदय यदि एक हो जायं तो पहाड़ को तोड़ सकते हैं। समूह के समूह को तितर-बितर कर सकते हैं। मैं चाहता हूँ कि हमलोग परस्पर बातचीत कर लें, जिससे कि व्यर्थ में दु:ख न हो। यदि तू चाहे तो मैं तुझसे साक्षात बात करने के लिए आऊं और तेरी बातों को सुनूँ। 

तलवार और धर्म की शपथ लेता हूँ कि इससे तुझपर कदापि आपत्ति नहीं आयेगी। अफज़ल खां के परिणाम से तू शंकित मत हो; क्योंकि उसमें सच्चाई नहीं थी। वह मेरे लिए घात लगाए हुए था। यदि मैं पहले ही उसपर हाथ नहीं फेरता तो इस समय तुझको पत्र कौन लिखता? यदि मैं तेरा यथेष्ट उत्तर पाऊँ तो तेरे समक्ष रात्रि में अकेले आऊं। मैं तुझको वे गुप्त पत्र दिखाऊँ जो मैं शाइस्ता खां की जेब से निकाल लिये थे। यदि ये पत्र तेरे मन के अनुकूल न लगे तो फिर मैं हूँ और काटनेवाली तलवार तथा तेरी सेना। कल जिस समय सूर्यास्त होगा उस समय मेरा खंग, म्यान को फेंक देगा "

- शिवाजी

शिवाजी का पत्र पढ़ने के बाद जयसिंह के मन में उनके प्रति आदर-भाव बढ़ गया। वह मन ही मन महसूस करने लगा कि वीर शिवाजी हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अकेला ही मुगलों की बड़ी हस्ती से लड़ रहा है, परंतु जयसिंह में हिम्मत नहीं थी कि वह मुगलों से अलग हो जाय। 

नयी सन्धि के अनुसार शिवाजी अपनी फौजों के साथ जयसिंह के साथ आ गये। परंतु जयसिंह का सहायक सेनापति दिलेर खां हमेशा उनकी चुगली करता और मन में बैर ऐसा रखता कि मौका मिलते ही उन्हें मार डाले। 

एक दिन बादशाह का पत्र आया कि शिवाजी और उनके पुत्र को आगरा भेज दो। हम उनसे मिलना चाहते हैं। उनको इज्जत और मनसब (पद या ओहदा) भी देंगे। 

शिवाजी की माँ जीजाबाई शिवाजी को आगरा भेजने के पक्ष में नहीं थीं परंतु महाराज ने कहा भवानी रक्षा करेंगी, आप डरें नहीं। हमें उत्तर के हिन्दू सरदारों के मनोभाव जानने का भी मौका मिलेगा। राजा जयसिंह ने अपने इष्टदेव गोविन्ददेवजी की सौगंध खाकर शिवाजी की रक्षा का वचन दिया और इस हेतु अपने पुत्र रामसिंह को सारी बातें लिखकर भेज दीं। ५ मार्च सन् १६६६ ई. को अपने ३५० साथियों के साथ शिवाजी महाराज और उनका पुत्र शम्भाजी रायगढ़ से आगरा के लिए रवाना हुए। ११ मई को वे सब आगरा पहुँच गये। दूसरे दिन बादशाह के ५०वें जन्मदिन का जलसा था। शिवाजी अपने पुत्र के साथ दरबार-ए-आम में गये। शहर के रास्तों में लोग शिवाजी की जय-जयकार कर रहे थे जो मुसलमान सिपाहियों को बहुत बुरा लग रहा था। 

दरबार में उन्हें तीन हजारी सरदारों की पंक्ति में खड़ा किया गया। औरंगजेब, आदाब का जबाब भी नहीं दिया। शिवाजी को यह बहुत बुरा लगा और गुस्से से थर-थर कांपने लगे। पास में ही खड़े रामसिंह को बुरा-भला कहा और जल्दी से बादशाह को बिना सलाम किये दरबार से बाहर आ गये। 

यह बादशाह की सरासर तौहीन थी। वे अपने डेरे पर आ गये जहाँ उनके ठहरने का प्रबंध किया गया था। थोड़ी ही देर में मुगल सैनिकों ने उनके डेरे को चारों ओर से घेर लिया। तब उन्हें जीजाबाई की कही हुयी चेतावनी याद आयी परंतु अब क्या हो सकता था? अब तो वे पिंजरे में बंद थे। 

यद्यपि औरंगजेब खुद झगड़ा नहीं बढ़ाना चाहता था, परंतु उसका वजीर जाफर खां, जोधपुर का राजा जसवंत सिंह और मुगल शहजादी जहाँआरा, सब शिवाजी को खत्म कर देना चाहते थे। इसलिए उनकी सलाह मानकर औरंगजेब आगरे के कोतवाल अन्दाज़ खां के जिम्में उनको सौंप दिया। 

रामसिंह को यह पता चल गया कि शिवाजी और उनके पुत्र शम्भाजी की जल्द ही हत्या कर दी जायेगी। तब उसे अपने पिता के दिये वचनों की याद आयी। उसने अपने कुछ विश्वस्त सैनिक शिवाजी के डेरे पर रख दिये। 

शायद शिवाजी अबतक मार दिये जाते परंतु औरंगजेब राजा जयसिंह को नाराज नहीं करना चाहता था। आगरे में हिन्दू फौज के सिपाही भी शिवाजी का आदर करते थे। इसलिए मौके की ताक में था।

रामसिंह शिवाजी से बराबर मिलता रहता था। वह मन में बहुत दुखी था, परंतु कुछ उपाय भी तो नहीं था। 

शिवाजी को कैद में रहते एक महीना हो गया। चारों तरफ कड़ा पहरा था। कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। परंतु वे संकट में भी हिम्मत हारने वाले नहीं थे। 

९ जून सन् १६६६ ई. को शिवाजी ने अपने साथ के ३५० सैनिकों को दक्खिन भेजने की अनुमति मांगी। औरंगजेब तो यही चाहता था। अब योजना के अनुसार सारे मराठे सैनिक दक्खिन न जाकर आगरे के पास ही छिपकर इधर-उधर फैल गये। इधर शिवाजी की हत्या की सारी व्यवस्था हो गई। उन्हें दफनाने का बन्दोबस्त भी हो गया। 

रामसिंह को गुप्तचरों द्वारा सारी बातों का पता चल गया। उसने अपने पिता जयसिंह को बादशाह के विश्वासघात के बारे में ब्योरेवार समाचार दे दिया। एक दिन शिवाजी ने रामसिंह को बुलाकर कहा, "तुम मेरे छोटे भाई की तरह हो। मैं तुम्हें किसी प्रकार के मुगालते में नहीं रखना चाहता, बादशाह से तुम मेरी रक्षा की जिम्मेदारी से छुट्टी ले लो। फिर मैं जैसा ठीक समझूँगा, वैसा करूँगा। 

वर्षा ऋतु शुरू हो गई, जेल में ढाई महीने बीत गये। शिवाजी जानबूझकर अस्वस्थ रहने लगे; दिनरात चद्दर ओढ़े सोये रहते। वैद्य-हकीम आने लगे। बादशाह और उसके सरदार खुश थे कि शायद थोड़े दिनों में शिवाजी अपने-आप ही मर जायेगा, हत्या का बखेड़ा नहीं करना पड़ेगा। 

भादो महीने की कृष्णपक्ष की अष्टमी, भगवान श्रीकृष्ण का जन्मदिन। अत: महाराज के स्वास्थ्य लाभ के लिए हिन्दू-मुसलमान सभी को प्रचुर अन्न-फल दान दिया जाने लगा। शुरू में टोकरों को पहरेदारों ने खोलकर देखा, परंतु उनका तो अंत ही नहीं था, लगातार आते जा रहे थे। इसलिए पहरेदार थककर बैठ गए। 

इन्हीं पिटारों में से दो में शिवाजी महाराज और शम्भाजी बैठ गए और बातों-बातों में मुगलों के पहरे से बाहर निकल गये। घनघोर वर्षा की अंधेरी रात थी। वे औरंगजेब रूपी कंस के कैदखाने से निकलकर अपने सैनिकों के पास सही-सलामत पहुँच गये। शिवाजी की जगह उन्हीं की शक्ल का हीरो जी फरजंदे चद्दर ओढ़कर लेट गया। बाहर आकर टहलुआ मदारी पहरेदारों से कहने लगा, "भाई! महाराज तो शायद ही आज की रात काटें।" मुगल सरदार और पहरेदार खुश थे कि चलो, रोज की बला मिटी। 

दूसरे दिन सुबह सदा की तरह फौलाद खां जब महाराज के कमरे में गया तो पलंग खाली था। नीचे-उपर चारों तरफ देखा, परंतु शिवाजी या शम्भाजी दोनों ही नहीं मिले। उसने डरते हुए औरंगजेब के पास जाकर सूचना दी। बादशाह ने सिर पीटते हुए कहा, "बेवकूफों, नमकहरामों! तुम लोगों ने यह क्या किया? क्या वह कम्बख्त जमीन में धंस गया या आसमान में उड़ गया? जबतक तुमलोग उसे पकड़कर नहीं लाते, तबतक मुझे अपना काला मुंह मत दिखाना।"

यद्यपि रामसिंह की मनसबदारी तो छिन गयी, परंतु वह मन ही मन खुश था कि पिता की बात रह गई। चारों तरफ मुगल सैनिक घोड़े लेकर शिवाजी को पकड़ने के लिए निकले। 

इधर शिवाजी महाराज ने दाढ़ी-मूछें मुड़ाकर साधु का वेश धारण कर लिया। शम्भाजी को एक विश्वस्त मराठा परिवार में मथुरा छोड़कर वे काशी की तरफ रवाना हो गये। रास्ते में बिना आराम किये लगातार चलकर वे २५ दिनों में रायगढ़ पहुंचे। माता जीजाबाई को सूचना भिजवाई कि काशी के कुछ साधु-महात्मा आये हैं जो माँजी साहिबा से मिलने की जिद्द किये हुए हैं। 

महल के भीतर आकर उनमें से एक साधु माँजी के पैरों पर गिर पड़ा। एक बार तो वे बड़े धर्मसंकट में पड़ गयीं, पुत्र चाहे किसी भी वेष में हो, पहिचान में आ ही जाता है। दोनों तरफ से हर्षाश्रुओं के साथ हिचकियाँ बंध गयीं। शम्भाजी को भी कुछ दिनों के बाद एक विश्वस्त व्यक्ति के साथ रायगढ़ बुला लिया गया। औरंगजेब के मन में मरते दम तक इस बात का पछतावा रहा कि शेर पिंजड़े से भाग गया।

सौजन्य: गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक, 'भूले न भुलाये"

शिवाजी महाराज का पूरा जीवन-वृत्त जानने के लिए पढ़ें-

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