छत्रपति शिवाजीराजे भोसले (सन् १६३० - १६८० ईस्वी) भारत के एक महान राजा, निपुण योद्धा एवं कुशल रणनीतिकार थे जिन्होंने सन् १६७४ ईस्वी में पश्चिमी भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखी। इसके लिए उन्होंने मुगल शासक औरंगज़ेब और बीजापुर के सुल्तान से कड़ा संघर्ष किया। सन् १६७४ ईस्वी में रायगढ़ में उनका राज्याभिषेक हुआ और वह "छत्रपति" राजा बने।
संक्षिप्त जीवन परिचय:-
जन्म : १९ फरवरी सन् १६३० ईस्वी
मृत्यु : ३ अप्रैल सन् १६८० ईस्वी
पिता : शाहजीराजे भोसले
माता : जीजाबाई
संतान : सम्भाजी, राजाराम, राणुबाई
वंश : भोंसले (कुर्मिक्षत्रिय)
राज्याभिषेक: ६ जून सन् १६७४ ईस्वी
शासनावधि : ६ जून सन् १६७४ से ३ अप्रैल १६८० ईस्वी तक
छत्रपती शिवाजी महाराज ने अपनी अनुशासित सेना एवं सुसंगठित प्रशासनिक इकाइयों की सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया। उन्होंने समर-विद्या में छापामार युध्द या गोरिल्ला युद्धनीति की नई युद्ध-शैली विकसित की। उन्होंने प्राचीन हिन्दू राजनीतिक प्रथाओं तथा दरबारी शिष्टाचारों को पुनर्जीवित किया और मराठी तथा संस्कृत को राजकाज की भाषा बनाया।
प्रारंभिक जीवन:-
मालोजीराजे भोसले (सन् १५५२ - १५९७ ईस्वी) अहमदनगर सल्तनत के एक प्रभावशाली सेनानायक थे एवं पुणे, चाकण और इंदापुर के देशमुख थे। मालोजीराजे के बेटे शाहजीराजे भी बीजापुर के सुल्तान के दरबार में बहुत प्रभावशाली राजनेता थे। शाहजी राजे और उनकी पत्नी जीजाबाई से शिवाजी का जन्म १९ फरवरी, सन् १६३० ईस्वी को शिवनेरी के दुर्ग में हुआ था। उनके पिता शाहजीराजे भोंसले एक शक्तिशाली सामंत राजा थे तथा उनकी माता जीजाबाई अत्यंत प्रतिभाशाली महिला थी। शिवाजी के बड़े भाई का नाम सम्भाजीराजे था। शाहजीराजे की दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते थीं। उनसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम व्यंकोजीराजे था। शिवाजी महाराज के जीवनचरित्र पर वैसे तो माता-पिता दोनों का ही प्रभाव था फिर भी शिवाजी की माता बड़ी ही धार्मिक प्रवृत्ति की असाधारण महिला थीं जिनका शिवाजी के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उनका बचपन उनकी माता के मार्गदर्शन में बीता। उन्होंने राजनीति एवं युद्ध की शिक्षा ली थी। वे उस युग के वातावरण और घटनाओं से भलीभाँति परिचित थे। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ बाल्यकाल में ही प्रज्ज्वलित हो गयी थी।
शिवाजी का विवाह १४ मई सन् १६४० ईस्वी में सईबाई के साथ लालमहल, पुणे में हुआ था। सईबाई शिवाजी की पहली और प्रमुख पत्नी थीं। वह अपने पति के उत्तराधिकारी सम्भाजी की मां थीं। शिवाजी कुल ८ विवाह किए थे। वैवाहिक राजनीति के जरिए उन्होंने सभी मराठा सरदारों को एक छत्र के नीचे लाने में सफलता प्राप्त की।
मुगलों से युद्ध और शाइस्ता खां का अपनी जान बचा कर भागना:-
शिवाजी महाराज ने मुगलों की नाक में दम कर दिया था और वे भारत में उनके विस्तार को भी रोक दिया था। इसीलिए शिवाजी महाराज, मुगल बादशाह औरंगजेब के आंखों की किरकिरी बने हुए थे। अच्छा मौका देख, औरंगजेब ने अपने मामा और प्रमुख सेनापति शाइस्ता खां को एक लाख की विशाल फौज के साथ शिवाजी को पकड़़ने के लिए भेजा। उसकी बीस हजार फौज ने चाकण का किला घेर लिया और अस्सी हजार फौज के साथ वह स्वयं शिवाजी के पूना वाले लालमहल में जाकर डेरा डाल दिया। इस प्रकार शिवाजी महाराज चारों तरफ से घिर गए परंतु उन्होंने अपना धीरज नहीं खोया।
जब शिवाजी महाराज को चार महीने पन्हालगढ़ में घिरे हुए हो गये तब वे वहाँ से निकल जाना ही उचित समझा। जुलाई सन् १६६० ईस्वी की एक घनघोर वर्षा की रात में शिवाजी महाराज केवल ६०० सैनिकों के साथ किले के गुप्त द्वार से निकल कर दुश्मनों से जूझते हुए ५० मील की दूरी पर स्थित विशालगढ़ पहुँच तो गये, परंतु उन्हें चैन नहीं था। वे अपने मुख्य सरदारों से मंत्रणा कर सन् १६६२ ईस्वी की चैत्र रामनवमी के दिन अपने साथ केवल चार सौ सैनिकों को साथ लेकर दुश्मन की एक लाख सेना से भिड़़ने निकल पड़े। इतिहास में इस तरह की यह इकलौती घटना है। उन दिनों रमजान का महीना था। मुगल सैनिक रात में भरपेट खाना खाकर और शराब पीकर अधिकांश तो सो गए थे और कुछ सोने की तैयारी में थे। इसी समय शिवाजी अपने उस मुट्ठी भर सैनिकों के साथ उन पर आक्रमण कर दिया।
शाइस्ता खां भी अपने बड़े हरम में आराम से सो रहा था। तभी शिवाजी फुर्ती से खिड़की तोड़कर अंदर दाखिल हो गये। कुछ पहरेदार जब तक हरकत में आते, शिवाजी के सैनिकों ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया। लगातार आती आवाजों से शाइस्ता खां की नींद टूट गयी। अभी वह कुछ समझ पाता कि तलवार लिये सामने शिवाजी दिखाई दिए। परंतु उसका नसीब अच्छा था कि उसकी बेगम ने उसी वक्त बत्ती बुझा दी और शाइस्ता खां पीछे की खिड़की से कूद गया। उसकी तीन अंगुलियाँ महाराज की तलवार से कट गयीं परंतु शाइस्ता खां बच निकला। मुगल सैनिक एकदम सकते में आ गये और कहने लगे, "शिवाजी के वश में जिन्नात हैं तभी तो इतने बड़े पहरे में भी वह खां-साहब की अंगुलियाँ तराशकर फरार हो गया।" इधर शाइस्ता खां डर के मारे पूना छोड़कर आगरा भाग गया।
बीजापुर से संघर्ष और अफजल खां का बध:-
शिवाजी महाराज के विरुद्ध, बीजापुर के सुल्तान की माँ ने शिवाजी को पकड़ने का बीड़ा रखा। शिवाजी महाराज के डर से बीड़ा उठाने की हिम्मत किसी में भी नहीं हुई। आखिरकार, दैत्याकार अफ़जल खां ने उस बीड़ा को उठाया और वह एक लाख बीस हजार सैनिकों के साथ सन् १६५९ ईस्वी में शिवाजी महाराज को पकड़ने के लिए वहाँ से कूच किया। वह सन्धिवार्ता हेतु अपने दूत कृष्णजी भास्कर को शिवाजी के पास भेजा परंतु शिवाजी महाराज ने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने ही दरबार में रख लिया। अपने दूत गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से मिली खबर से शिवाजी को पता चला कि सन्धि की आड़ में अफजल खां, उन्हें बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खां को सन्धि-वार्ता के लिए राजी किया। १० नवंबर सन् १६५९ ईस्वी को तय स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खां ने छुपाये हुए कटार से पहले शिवाजी पर वार किया परंतु शिवाजी ने बड़ी ही फुर्ती से अपना बचाव करते हुए अफजल खां को अपने वस्त्रों में छुपे बघनखों से चीरकर मार डाला।
शिवाजी का मुगल बादशाह औरंगजेब की कैद से बच निकलना:-
शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुगल बादशाह औरंगजेब ने अपने सबसे प्रभावशाली सेनापति मिर्जा राजा जयसिंह के नेतृत्व में लगभग एक लाख सैनिकों की बड़ी फौज भेजा। शिवाजी महाराज को औरंगजेब की हिन्दुओं को हिन्दुओं से ही लड़ाने वाली कूटनीतिक चाल का जब पता चला तब भारी रक्तपात से बचने के लिए शिवाजी ने राजा जयसिंह से संधि की पेशकश की। दोनों, संधि की शर्तों पर सहमत हो गए। २२ जून सन् १६६५ ईस्वी को 'पुरन्दर की सन्धि' के अनुसार अपनी सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन पाकर छत्रपति शिवाजी महाराज आगरा के दरबार में औरंगजेब से मिलने के लिए चल दिए। वे ९ मई सन् १६६६ ईस्वी को अपने पुत्र शम्भाजी एवं अपने चार हजार मराठा सैनिकों के साथ मुगल दरबार में सीना तानकर उपस्थित हुए। यह बात औरंगजेब को बड़ी नागवार लगी। अतः औरंगजेब ने दरबार में उनकी उपेक्षा की और उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया। जिससे शिवाजी महाराज गुस्से में आकर भरे दरबार से बाहर निकल गये। जिसके कारण औरंगजेब ने शिवाजी एवं उनके पुत्र को "जयपुर भवन" में कैद कर दिया और वहां पर कड़ा पहरा लगा दिया। कैद में ज्यादा दिनों तक पड़े रहने से वीर शिवाजी बीमार रहने लगे और खाना-पीना छोड़ दिया। यह जानकर मुगल पहरेदार बहुत खुश हुए कि शिवाजी अब खुद-बा-खुद मर जायेगा और इस तरह उनकी तरफ से वे थोड़े लापरवाह रहने लगे। आखिरकार! लगभग तीन महीने बाद शिवाजी महाराज १३ अगस्त सन् १६६६ ईस्वी को वहां से फलों की टोकरी में छिपकर फरार होने में कामयाब हो गये और २२ सितम्बर सन् १६६६ ईस्वी को वे रायगढ़ पहुंचे। यह शिवाजी महाराज के जीवन की सबसे आश्चर्यजनक घटना है।
दुर्गों पर आक्रमण और उनका साम्राज्य विस्तार:-
उस समय बीजापुर का राज्य, आपसी संघर्ष तथा विदेशी आक्रमण के दौर से गुजर रहा था। ऐसे साम्राज्य के सुल्तान की सेवा करने के बजाय शिवाजी मावलों को बीजापुर के खिलाफ़ संगठित करने लगे। मावल प्रदेश १५० किलोमीटर लम्बा और ३० किलोमीटर चौड़ा एक क्षेत्र है जो पश्चिमी घाट से जुड़ा है। इस प्रदेश में मराठाओं के साथ और सभी जाति के लोग रहते हैं। शिवाजी महाराज इन सभी जाति के लोगों को "मावल" नाम देकर संगठित किया। जब बीजापुर का सुल्तान आदिलशाह बीमार पड़ा तो बीजापुर में अराजकता फैल गई तब शिवाजी महाराज ने अवसर का लाभ उठाकर बीजापुर के दुर्गों पर अधिकार करने की नीति अपनाई और चढ़ाई कर, सबसे पहले रोहिदेश्वर के दुर्ग पर कब्जा किया फिर तोरणा का दुर्ग। उसके बाद राजगढ़ के दुर्ग पर शिवाजी का अधिकार हो गया। तत्पश्चात् चाकण और फिर शिवाजी महाराज के ही तानाजी मालुसरे ने कोंडना दुर्ग पर कब्जा किया परंतु उस युद्ध में तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए। उन्हीं की याद में कोंडना दुर्ग का नाम सिंहगढ़ रखा गया।
इसी समय पुरन्दर के किलेदार की मृत्यु हो गई और किले के उत्तराधिकार के लिए उसके तीनों बेटों में लड़ाई छिड़ गई। दो भाइयों के निमंत्रण पर शिवाजी महाराज पुरन्दर पहुंचे और कूटनीति का सहारा लेते हुए उन्होंने सभी भाइयों को बन्दी बना लिया। इस तरह पुरन्दर के किले पर भी उनका अधिकार स्थापित हो गया। जैसे ही शिवाजी ने पुरंदर और तोरण जैसे किलों पर अपना अधिकार जमाया, उनकी शोहरत सारे दक्षिण भारत में फैल गई और यह खबर आग की तरह आगरा तथा दिल्ली तक जा पहुंची थी।
शिवाजी महाराज ने आबाजी सोनदेव के नेतृत्व में कोंकण सहित नौ अन्य दुर्गों पर अधिकार कर लिया। इसके अलावा ताला, मोस्माला और रायटी के दुर्ग भी उनके अधीन आ गए थे। अफजल खां की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद तो पवनगढ़, वसंतगढ़, राजापुर और दावुल भी उनके कब्जे में आ गया।
शिवाजी महाराज की शासन व्यवस्था और व्यक्तित्व:-
४ अक्टूबर सन् १६७४ ईस्वी को शिवाजी महाराज ने "छत्रपति" की उपाधि ग्रहण की। इस समारोह में हिन्दू स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण भारत में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया। शिवाजी महाराज को एक कुशल और प्रबुद्ध शासक के रूप में जाना जाता है। उनकी वीरगाथा का यशगान करते हुए वीर-रस के प्रसिद्ध कवि भूषण अपने ग्रंथ, "शिवा बावनी" में लिखते हैं कि, "शिवा को बखानौ कि बखानौ क्षत्रशाल को.......।"
यद्यपि उनको अपने बचपन में पारम्परिक शिक्षा कुछ खास नहीं मिली थी, पर वे भारतीय इतिहास और राजनीति से सुपरिचित थे। उन्होंने शुक्राचार्य तथा कौटिल्य को अपना आदर्श मानते हुए उन्होंने आवश्यकतानुसार कूटनीति का सहारा लेना उचित समझा था। अपने समकालीन मुगलों की तरह वे भी एक निरंकुश शासक थे। अर्थात् शासन की समूची बागडोर उनके हाथ में ही थी पर उनके प्रशासनिक कार्यों में मदद के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद थी जिन्हें अष्टप्रधान कहा जाता था। इसमें मंत्रियों के प्रधान को पेशवा कहते थे जो राजा के बाद सबसे प्रमुख हस्ती हुआ करता था।
मराठा साम्राज्य तीन-चार विभागों में विभक्त था। प्रत्येक प्रान्त में एक सूबेदार था जिसे प्रान्तपति कहा जाता था। हरेक सूबेदार के पास भी एक अष्टप्रधान समिति होती थी। कुछ प्रान्त केवल करदाता थे परंतु प्रशासन के मामले में स्वतंत्र। न्यायव्यवस्था प्राचीन पद्धति पर आधारित थी। हिन्दू धर्मशास्त्रों को आधार मानकर निर्णय दिया जाता था। राज्य की आय का साधन, भूमि से प्राप्त होने वाला कर था। इसके अलावा चौथ और सरदेशमुखी से भी राजस्व वसूला जाता था। 'चौथ' पड़ोसी राज्यों की सुरक्षा की गारंटी के लिए वसूला जाने वाला कर था। शिवाजी महाराज, अपने को मराठों का "सरदेशमुख" कहते थे और इसी हैसियत से सरदेशमुखी कर वसूला जाता था।
शिवाजी महाराज का पर-नारी के प्रति मातृत्व भाव:-
क्षत्रपति शिवाजी महाराज कुशल योद्धा, महान शासक के साथ-साथ उच्च कोटि के चरित्रवान भी थे। वे अपने राजदरबार में संस्कार और चरित्र को लेकर उच्च पैमाने स्थापित किए थे। वे पराई नारी में मातृदर्शन करते थे। इतिहास में इससे संबंधित एक बड़ी ही रोचक घटना का वर्णन मिलता है-
सन् १६५७ ईस्वी के अक्टूबर महीने की एक सुहानी संध्या। शिवाजी महाराज देवी-भवानी के मंदिर से बाहर निकले तो चकित रह गये। खच्चरों और बैलों का लम्बा सा कारवां- हीरे, पन्नों और जवाहरातों से भरे हुए, सोने-चांदी से दबे पशु धीरे-धीरे किले में प्रवेश कर रहे थे। पंतप्रधान मोरोपंत ने उनकी जिज्ञासा शांत की और बोले, "महाराज! वीर सेनापति आबाजी सोनदेव ने कल्याण के सूबे पर अधिपत्य कर लिया है और लूट का बहुत सामन लेकर आये हैं।" शिवाजी ने आबाजी को गले से लगाते अपने बहुमूल्य कंठहार से पुरस्कृत किया। परंतु वहाँ पालकी देखकर चौंकते हुए पूछा, "इस पालकी में क्या है?" आबाजी ने मुस्कराते हुए जबाब दिया, "महाराज! इस पालकी में कल्याण की सबसे सुंदर नाजनीन, मुल्ला अहमद की पुत्रवधू है जिसकी खूबसूरती की शोहरत पूरे महाराष्ट्र में फैली हुई है।" आबाजी अपनी इस सफलता पर फूले नहीं समा रहे थे; परंतु शिवाजी अत्यंत विचलित हो उठे।
शिवाजी ने देखा कि हीरे-जवाहरातों से सजी हुई एक परम सुंदर नवयुवती सहमी सी एक ओर खड़ी है। कुछ देर तक वे उसकी ओर अपलक देखते रहे। फिर कहने लगे, "बहन! उम्र में तुम मुझसे छोटी हो; पर तुममें मुझे अपनी माताजी दिखाई देती हैं। फर्क इतना ही है कि परमात्मा ने तुम्हें अतुलनीय सौन्दर्य दिया है। काश! इस सौन्दर्य का अंशमात्र भी मेरी माँ को मिल जाता तो उन्हें दुहाग (पति के जीवित होते हुए किसी स्त्री को विधवा जैसी जिंदगी जीना) का दुख नहीं सहन करना पड़ता और मैं भी सुन्दर होता। मेरे सेनापति ने तुम्हारा अपमान किया है। जिस धारणा से वह तुम्हें यहाँ ले आया, उसे सोचकर लज्जा से मेरा सिर झुका जा रहा है। खैर! तुम चिंता मत करो। तुम्हें इज्जत के साथ तुम्हारे शौहर के पास पहुंचा दिया जायेगा।
शिवाजी महाराज क्रोध से कांपते हुए आबाजी से कहा, "तुमने अपनी मूर्खता से इतनी बड़ी जीत को हार में बदल दिया। क्या कभी भी मेरे अंदर इस प्रकार की इच्छा का आभास तुम्हें हुआ? आबाजी! तुमने मेरी इज्जत में बट्टा लगा दिया। यदि राजा स्वयं अपना शील खो बैठेगा तो सैनिकों और प्रजा का क्या होगा? कसूर तो तुम्हारा इतना है कि तुम्हें इसी वक्त फांसी पर लटका दिया जाय। चूंकि; मैं इस समय मैं क्रोध में हूँ इसलिए तुम्हारा फैसला, प्रधानमंत्री-मोरोपंत पर छोड़ता हूँ।"
प्रधानमंत्री मोरोपंत हाथ जोड़कर शिवाजी महाराज से विनती की, "महाराज! यह उसका पहला अपराध है, इसलिए उसे कृपा कर क्षमादान दिया जाय।" वह सुंदरी जिसके मन में शिवाजी महाराज को लेकर पहले तो नाना प्रकार की शंकाएं और दुर्भावनाएं थीं। परंतु यह दृश्य देखकर तो वह समझ नहीं पा रही थी कि "शिवाजी महाराज इंसान हैं या इंसान के वेश में कोई फरिश्ता।" उसकी आंखों से अश्रु की अविरल धारा बहने लगी। शिवाजी महाराज अपनी उस मुंहबोली बहन को सुसज्जित पालकी में बिठा कर पूरे सम्मान एवं प्रचुर दहेज के साथ वहाँ से विदा किया। वही आबाजी सोनदेव अब उसे अपनी सुरक्षा में उसे विदा करने जा रहा था।
सार:-
छत्रपति शिवाजी महाराज अपने अदम्य साहस और वीरता से हिन्दू साम्राज्य की स्थापना उस समय की; जब मुगल आक्रमणकारियों का जुल्म, शोषण, अन्याय अपनी चरम सीमा पर था। उनके द्वारा हमारी माताओं-बहनों पर अत्याचार के साथ-साथ हमारे प्राकृतिक संसाधनों की लूट, हिंदू संस्कृति को नष्ट करने और हिन्दुओें को आपस में ही लड़ाने की खौफनाक साजिश से जब पूरा देश पीड़ित था।
शिवाजी महाराज की वीरता और सूझबूझ के अनेक कारनामे, जिनमें आगरा से उस वहशी औरंगज़ेब की कैद से फरार होना, अपने से अधिक ताकतवर अफजल खां का वध करना, शाइस्ता खां की उंगलियां काट कर उसे पूना से भागने पर विवश करना। कैसे तानाजी मालुसरे ने अपने बेटे की शादी छोड़ कर कोंडाना किला फतह करने में अपनी जान गंवा दी थी? यह सब जानना हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत एवं गर्व का विषय है। छत्रपति शिवाजी महाराज की वीरता, चरित्र और उनके आदर्शों की कहानियों से हमें अपने बच्चों को भी अवगत कराना चाहिए।
हमारा इतिहास तो विदेशी आक्रमणकारियों, मुग़ल-शासकों की गाथाएँ, अंग्रेजी हुकूमत और स्वतंत्रता संग्राम इत्यादि में ही सिमट कर रह जाता है। परंतु यह है देश का असली इतिहास जहाँ १६ साल का एक लड़का जो अपने रक्त से शपथ लेता है कि वह हिंदू स्वराज्य की स्थापना करके ही रहेगा। उसके पास ना तो धन है, ना तो कोई बड़ी लावलश्कर है और ना ही कोई बड़ा सहारा। आदिलशाही सल्तनत और औरंगज़ेब जैसे क्रूर और निर्दयी शासक से उनका टक्कर लेना बेहद रोमांचक है। ऐसे शौर्य एवं पराक्रम की प्रतिमूर्ति, महान शासक, कालजयी छत्रपति वीर शिवाजी महाराज को कोटिशः नमन!!!
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