दिल्ली में लोहे की एक बड़ी ऊंची लाट है। उसके संबंध में कहा जाता है कि इसको बनाने के लिए जिस उच्च कोटि की धातु काम में लायी गयी है उससे बेहतर तो क्या उसकी बराबरी की लाट आज तक दुनियाँ में किसी ने नहीं बनायी है। इस लाट को देख रहा था एक व्यक्ति जिसके चेहरे पर सजी संवंरी दाढ़ी-मूछें थी और सिर पर पगड़ी थी। देखा दूर से भी और करीब से भी। फिर देख-परख कर वह व्यक्ति बिहार चला गया। वहाँ इधर-उधर न जाने क्या खोजता हुआ गाँव-गाँव और शहर-शहर घूमा। नदियों, पर्वतों और मैदानों में उस व्यक्ति ने न जाने क्या देखा? और बिहार के सिंहभूमि जिले में साक्वी नामक गाँव जो नदियों की संगम स्थली पर है, रुक गया। शायद उसकी वह चीज मिल गयी थी जिसकी उसे तलाश थी। और वह बुदबुदा उठा- "अब मेरा संकल्प साकार होगा, दिल्ली की लाट में इस्तेमाल की गई धातु से बेहतर धातु मैं बनाऊंगा।" यह संकल्प उसने दिल्ली की लाट का निरीक्षण करते समय ही कर लिया था और कच्चे लोहे की खोज कर रहा था जो संकल्प को साकार करने में सहायक बन सके। यहाँ उस व्यक्ति ने अपना काम आरंभ किया और अब स्थिति यह है कि उस स्थान पर स्थित बहुत बड़े कारखाने में सूई से लेकर रेल के इंजन तक सब कुछ बनता है। इतने व्यक्ति उस स्थान पर का काम करते हैं कि अब वह एक बड़ा जमशेदपुर नगर ही बन गया है।
जमशेदपुर में बनी वस्तुएँ एशियाई और यूरोपीय देशों में सभी जगह जाती है और लोग उसके उत्पादक का नाम देखकर ही प्रमाणिकता को परखना जरूरी नहीं समझते। वह व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि भारत के महान उद्योगपति जमशेदजी नौशेरवाँ जी टाटा ही थे जिन्होंने अपनी हर आवश्यकता की वस्तु को अपने ही देश में बनाने का सपना देखा था। वे चाहते थे कि भारतीयों की अपनी जरूरत की हर चीजें टिकाऊ हों, प्रमाणिक हों, कीमत में भी कम हों और अपने ही देश में बने। इस उद्देश्य से उन्होंने औद्योगिक क्षेत्र में नयी-नयी वैज्ञानिक खोजों के लिए, "इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज" की स्थापना भी की। यह संस्था आज भी उसी परंपरा में कार्यरत है।
संक्षिप्त जीवन-परिचय:
जन्म: ३ मार्च सन् १८३९ ई.
मृत्यु: १९ मई सन् १९०४ ई., बेड नौहियम, (जर्मनी)
आयु: ६५ वर्ष
पिता: नौशेरवाँ जी
माता: जीवन बाई
पत्नी: हीरा बाई दबू
बच्चे: २ बेटे- दोराबजी टाटा और रतनजी टाटा एवं २ बेटियां
धर्म: पारसी
गृहनगर: मुंबई (महाराष्ट्र)
शिक्षा: मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज से स्नातक
राष्ट्रीयता: भारतीय
व्यवसाय: परोपकारी एवं महान उद्योगपति तथा टाटा समूह के संस्थापक
भारतवर्ष के आर्थिक कायाकल्प का सपना देखने वाले जमशेदजी का जन्म गुजरात के नवसारी नामक स्थान पर ०३ मार्च सन् १८३९ में हुआ था। उनका परिवार पारसी धर्मानुयायी था और पिता पारसियों की पूरोहिताई करते थे। उनके पूर्वज ईरान से चलकर भारत में आ बसे थे। अब यही उनका घर हो गया था। यह देश ही उनकी मातृभूमि बन गयी और विशिष्ट संस्कार-संपन्न जमशेदजी, अपनी मातृभूमि को हर दृष्टि से हरी-भरी और फली-फूली देखना चाहते थे। यूँ तो पारसी, स्वभाव से ही मेहनती और परिश्रमशील थे पर जमशेदजी के पिता अपनी पैतृक परंपरा से ही पारसियों में पुरोहिती करते आ रहे थे। अत: उनकी आर्थिक स्थिति ब्राह्मणों की सी ही थी, न संपन्न और न निर्धन।
उस समय नवसारी में कोई पाठशाला नहीं थी। अत: पिता ने अपने ही एक सजातीय शिक्षक बंधु के पास उनकी शिक्षा का प्रबंध कर दिया। बाद में उन्हें उच्च शिक्षा के लिए एल्फिंस्टन कालेज में भरती करवाया। पिता भी नवसारी छोड़ कर मुंबई आ गये। जिस मकान में वे रहते थे, वह एक ऊंचे मकान की छत पर बना एक घर था जिसकी छत खपरैलों की थी और इतनी नीची थी कि जब कभी बारिश होती या बूंदाबांदी होती तो खपरैलों पर गिरने वाली बूंदों की आवाज से आपस में कुछ कहना व सुनना संभव नहीं हो पाता।
कुछ दिनों बाद छत पर बना वह कमरा गिर गया। संयोग या सौभाग्य से पिता और पुत्र उस समय बाहर आ गये थे। अत: किसी को कुछ भी नहीं हुआ। मुंबई में रहते हुए उनके पिता ने अपना पैतृक व्यवसाय छोड़ दिया और एक छोटा सा बैंक खोला, लेकिन यह बैंक भी ज्यादा दिन नहीं चला। इस प्रकार परिस्थितियों के चक्कर में पिता-पुत्र दोनों ही धक्के खाते रहे।
सन् १८५८ ईस्वी में जमशेदजी, ग्रेजुएट की परीक्षा पास की। इसके बाद जमशेदजी का मन पढ़ाई में नहीं लगा और यहाँ से व्यवसायिक जीवन आरंभ करने का निश्चय किया। मुंबई की चमक-दमक और वहाँ के निवासियों का भड़कीला जीवन, इनको बहुत प्रभावित किया। वे सोचने लगे कि लोगों के तड़क-भड़क वाले जीवन से संबंधित नित-उपयोग में आने वाली वस्तुएँ कहाँ से आती हैं? जब इस जिज्ञासा का समाधान ढूंढ़ा तो पता चला कि ये वस्तुएँ विदेशों से आती हैं। अब जमशेदजी का विचारशील मन सोचने लगा कि इन सब वस्तुओं को आयात करने में अपने देश भारत का कितना धन विदेशों को चला जाता होगा? काश! इन सब चीजों को यहीं बनाया जाता।
यह 'काश' शब्द ही उनके भावी जीवन का प्रवेश द्वार बना। कुछ प्रयास करके उनके पिता नौशेरवांजी पैसा कमाए और धीरे-धीरे बड़ा कारोबार करने लगे। बेटे, जमशेदजी को व्यापार के आवश्यक अनुभव प्राप्त करने के लिए हांगकांग भेजा पर वे जा पहुंचे लंदन। लंदन में उस समय रूई का भाव एकाएक चढ़ जाता और उतर जाता। यह क्रम अनेक बार चला। जमशेदजी ने इस अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया और इसका लाभ उठाया। नतीजा यह हुआ कि जब ये भारत आये तो उनके पास नये-नये विचार और नयी-नयी योजनाएँ थीं।
भारत आकर उन्होंने कपड़ा मिल खोलने का निश्चय किया और इसके लिए उपयुक्त स्थान की तलाश की। स्थान की कमी तो नहीं थी पर अंग्रेजी सरकार कोई न कोई बहाना बनाकर उन्हें हर बार रोक देती थी। अंत में। नागपुर में एक दलदली जगह पर अपनी सारी जमापूंजी लगा करके कपड़े का कारखाना खोल दिया। लेकिन जमशेदजी को पूंजी के अभाव के साथ-साथ अन्य कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। बिना घबराये जमशेदजी उन सभी तरह की बाधाओं का डटकर सामना किया। यह कपड़ा मिल, महारानी विक्टोरिया के आगमन के दिन शुरू हुआ। भारत आने के बाद विक्टोरिया ने भारत की साम्राज्ञी का पद ग्रहण किया था। अतः उन्हीं की स्मृति में ही मिल का नाम एम्प्रेस (रानी की एक उपाधि जो उन्होंने भारत की साम्राज्ञी बनने के समय ग्रहण की थी) मिल्स रखा गया।
जमशेदजी ने इसी समय यह सिद्धांत बनाया कि "सस्ती मजदूरी पर काम कराने के बजाय यदि व्यक्ति को पर्याप्त वेतन दिया जाता है तो वह पूरे मनोयोग से काम करता है।" टाटा समूह आज भी इसी सिद्धांत पर काम करता है। जमशेदजी ने नागपुर की कपड़ा मिल में इसी सिद्धांत के अनुसार ही व्यवस्था की थी। कर्मचारियों और उनके परिवार के लिए मनोरंजन के तमाम साधन के अलावा स्कूल, पुस्तकालय, अस्पताल आदि बहुत सारी सुविधाओं का प्रबंध उन्होंने कारखाने के पास ही नि:शुल्क किये थे।
नागपुर में जिस स्थान पर एम्प्रेस मिल थी वहाँ नदियाँ पूर्व की ओर बहती थीं तथा उन्हें इच्छित दिशा में प्रवाहित किया जा सकता था। इस प्रवाह-शक्ति का उपयोग करने के लिए एक योजना बनाई जो सन् १९१५ में जल-विद्युत केन्द्र के रूप में साकार हुयी। इन नदियों से उत्पादित विद्युत-शक्ति का उपयोग आज भी मुंबई के विभिन्न संयंत्रों में होता है।
जमशेदजी ने इसके बाद अपना ध्यान इस्पात उद्योग की ओर केन्द्रित किया तथा उनके प्रयासों के फलस्वरूप जमशेदपुर में एक विशाल इस्पात का कारखाना खुला जिसका उल्लेख प्रारंभ में किया जा चुका है। जमशेदजी का व्यावसायिक उद्देश्य, मात्र संपत्ति अर्जित करना ही नहीं रहा बल्कि प्रमुखतया वे भारत-राष्ट्र के आर्थिक पुनर्निर्माण को अपना लक्ष्य समझते थे। सामान्य और लौकिक प्रयासों से जब ऊंचा उद्देश्य जुड़ जाता है तो व्यक्ति की महिमा और गरिमा, दोनों ही आकाश को छूने लगती है। यूँ तो उन्होंने हजारों लोगों को समृद्ध बनाया पर वे भारत की एक सामान्य जनता की भांति ही अपना जीवन जीए। उनकी आवश्यकताएँ बहुत ही सीमित थीं और जीवन बिल्कुल सादा। जबकि भारत की शान बढ़ाने के लिए और विदेशी पर्यटकों के ठहरने के लिए उन्होंने मुंबई बंदरगाह के पास एक शानदार होटल "ताजमहाल होटल" बनवाया। जो सभी आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त है और वहाँ ठहरने वाले सभी यात्रियों को घर जैसा सुकून एवं आराम मिलता है। यह उनकी कलात्मक रुचि का परिचायक है। मुंबई की शान कहे जाने वाले "होटल ताज" के बनने के पीछे एक कहानी प्रचलित है। कहा जाता है कि —- १९ वीं सदी के अंत में भारत के कारोबारी जमशेदजी टाटा, मुंबई के सबसे बड़े होटल में गये। दुर्भाग्य से वहां उन्हें रंगभेद का शिकार होना पड़ा और उन्हें होटल में घुसने से मना कर दिया गया था। तभी उन्होंने उससे भी बड़ा और आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित होटल बनाने का निर्णय लिया।
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि जमशेदजी उद्योग के क्षेत्र में पूंजीपति बनने का उद्देश्य लेकर नहीं, सेवा का आदर्श लेकर आये थे। उन्हें अपने कर्मचारियों की सुख-सुविधा के साथ भारत की बहुसंख्यक निर्धन जनता की भी सदा चिंता रहती थी। प्रतिभाशाली किन्तु निर्धन युवकों और छात्रों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए जे. एन. एन्डोमैंट की उन्होंने स्वयं ही स्थापना की जिसमें योग्य छात्रों को विदेश जाकर पढ़ने के लिए भी सहायता दी जाती। उनकी सेवा-परंपरा को उनके उत्तराधिकारियों ने भी यथावत् बनाए रखा। जमशेदजी के पुत्र ने सर वारीबाजी के नाम से एक ट्रस्ट स्थापित किया जिसका उद्देश्य मानवीय समस्याओं का अध्ययन और उनके निराकरण का उपाय करना है। इस ट्रस्ट द्वारा खनिज पदार्थों और औद्योगिक-अनुसंधान का कार्य किया जाता है। आधुनिक ढंग की चिकित्सकीय सेवाओं के लिए टाटा जी ने "टाटा मेमोरियल अस्पताल" खोला जो अपने ढंग का अनूठा और भारत भर में सर्वाधिक साधन व सुविधाओं से संपन्न है। "सर रत्न टाटा चैरिटीज" और "टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज" जैसी संस्थाएँ भी हैं।
१९ मई सन् १९०४ ई. में जमशेदजी का निधन हो गया, पर उनकी परंपरा आज भी अक्षुण्ण चल रही है और भारतीय जनता की सेवा में लगी हुई है। जमशेदजी का जीवन ज्वार-भाटाओं के बीच भी देदीप्यमान है जो उस प्रकाशस्तंभ की तरह है जिससे सागर में खोए हुए जहाज अपना रास्ता पहचानते हैं।
सौजन्य: युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट, गायत्री तपोभूमि मथुरा द्वारा प्रकाशित पुस्तक, "अध्यवसाय से अपना भाग्य बदलने वाले पुरुषार्थ संपन्न व्यक्तित्व"
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