16 मार्च 2023

कर्म-प्रभाव और फल I कर्म-फल का सिद्धांत

कर्म शब्द का अर्थ है "कार्य या क्रिया"। यह एक संस्कृत शब्द है जिसका प्रयोग भारतीय धर्मों जैसे कि हिंदू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म में किया जाता है। कर्म का धार्मिक अर्थ है कार्य, जिसे व्यक्ति अपने जीवन में करता है। अतएव शरीर, मन तथा वाणी से की गयी समस्त क्रियाओं को कर्म कहा जाता है हम हर वक़्त, हर पल, हर क्षणचाहे-अनचाहे कर्म करते ही रहते हैं। जैसा कि गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है-

नहिं कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मवृत।
कार्यते हृयशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।

अर्थात् कोई भी मनुष्य क्षण  भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता है। सभी प्राणी, प्रकृति के अधीन हैं। प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसके अनुरूप परिणाम भी देती है। 

भगवान श्रीकृष्ण ने यह भी कहा है-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। 
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि।। 

अर्थात् है अर्जुन! कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फल में नहीं। इसलिए तुम केवल अपने कर्म पर ध्यान दो और उसके फल की चिंता करना तुम छोड़ दो। 

शरीर, आत्मा के साथ मिलकर जन्म-जन्मान्तर के शुभ-अशुभ संस्कारों वाहक होता है। इस जन्म के संस्कार जिसमें मनुष्य खुद के पूर्व जन्मों के कर्म-फल तथा उसके माता-पिता के संस्कार जो बच्चे में उनके रज और वीर्य के माध्यम से सूक्ष्म शरीर में प्रविष्ट होते हैं, के अलावा बच्चे के गर्भधारण के समय की परिस्थितियों का संयोग होता है। मनुष्य के पूर्व जन्मों के अच्छे-बुरे संस्कार ही अगले जन्म में मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्मों के प्रेरणाश्रोत होते हैं। कर्म-संस्कार ही प्रत्येक जन्म में इकट्ठे होते जाते हैं। जिससे अच्छे-बुरे कर्मो का एक विशाल भंडार बन जाता हैजिसे संचित कर्म कहते हैं। इस संचित कर्मों का एक हिस्सा जो इस जन्म में भोगना पड़ता हैउसे प्रारब्ध कहते हैं। प्रारब्ध ही किसी भी जीव के अगले जन्म की योनि व कर्म-फल भोग का निर्धारण करता है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में यहाँ तक कहा है कि"मनुष्य की जीवन-यात्रा जहाँ से छूटती हैअगले जन्म में वह वहीं से शुरू होती है 

सौजन्य: Life Quotes Hindi

कर्म फल का सिद्धांत:

कर्म का एक बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्धांत है, "जैसा कर्म करोगे, वैसा ही फल पाओगे।" यह सिद्धांत उस विचारधारा को व्यक्त करता है जिसमें मान्यता है कि हमारे कर्म ही हमारे जीवन के परिणामों को निर्धारित करते हैं।

कर्म की यह अवधारणा भारतीय दर्शनों के केंद्रीय सिद्धांतों में से एक है। हिंदू दर्शन में कहा गया है कि अगर व्यक्ति ने अच्छा कर्म किया है तो उसे अच्छा फल मिलेगा और अगर उसने बुरा कर्म किया है तो उसे बुरा फल मिलेगा।

यही कारण है कि कर्म का एक महत्वपूर्ण तत्व है "कर्मफल"। कर्मफल का अर्थ है कर्मों का परिणाम। हिंदू धर्म में कहा गया है कि हमारे कर्मों का फल हमें इस जीवन में ही नहीं मिलता, बल्कि मृत्यु के बाद में भी हमें अपने संचित कर्मों के फल भोगने पड़ते हैं। इसे पुनर्जन्म के रूप में देखा जाता है।

कर्म की यह अवधारणा हमें जीवन के प्रति एक उचित दृष्टिकोण देती है। यह हमें यह सिखाती है कि हमारे हर कर्म का परिणाम होता है और हमें अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी होना चाहिए। यह हमें स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता है कि हमारी कठिनाईयों का कारण हमारे स्वयं के कर्म होते हैं और हमें अपने आचरण को सुधारने की जरूरत है।

इसलिए, कर्म का नीतिशास्त्र पर अद्भुत प्रभाव है। यह हमें जीवन के सभी पहलुओं में उचित और न्यायपूर्ण व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। कर्म की अवधारणा जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पाठों में से एक है: जो हम करते हैं, उसी का फल हमें भुगतना पड़ता है।

विशेष रूप से, कर्म की अवधारणा हमें निष्पक्षता और समानता की मूल भावना समझाती है। यदि हम किसी के प्रति जिस तरह का व्यवहार करते हैं, तो कर्म के सिद्धांत के अनुसार, हमें भी उसी तरह का बर्ताव अपने जीवन में झेलना पड़ता है। 

कर्म का सिद्धांत हमें एक महत्वपूर्ण सबक देता है कि हमारे जीवन का नियंत्रण हमारे हाथ में है। हम अपने कर्मों के द्वारा अपनी भविष्य की दशा तय कर सकते हैं और अपनी दिशा निर्धारित कर सकते हैं। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि हमारे कर्म ही हमारे जीवन की गति, दिशा, और गुणवत्ता को निर्धारित करते हैं।

इसलिए, "कर्म" शब्द का अर्थ भारतीय दर्शन में केवल "क्रिया" नहीं होता, बल्कि यह हमें जीवन के उचित और नैतिक तरीके के बारे में सिखाता है। कर्म के सिद्धांत से हमें यह समझने की आवश्यकता होती है कि हमें अपने कर्मों के फल को स्वीकार करना चाहिए और हमें यह स्वीकार करना होगा कि हमारे कर्मों का प्रभाव हमारे जीवन के हर क्षेत्र पर पड़ता है।

सभी मनुष्यों को कर्मशील रहना चाहिए। अपने जीवन-निर्वाह के लिए तथा सृष्टि-चक्र के संचालन के लिए यह आवश्यक है कि नियति द्वारा निर्धारित हम अपने कर्म-फल की चिंता किये बगैर, कर्म करते रहें। यही कर्म-योग है। हम अपने आसपास मौजूद सभी प्राणियों के प्रति मैत्री एवं करुणा का भाव रखें। और ऐसा कोई भी कर्म न करें जिससे किसी को भी, किसी भी तरह की असुविधा या कष्ट हो। यह हमारा सामाजिक धर्म है।निष्काम भाव से कर्म एवं साधना करके जन्म-मरण से मुक्ति पा लेना, मानव जीवन का सबसे बड़ा कर्म है। हिन्दू दर्शन के अनुसारसकाम-कर्म करने वाले, अपने पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग का सुख तो प्राप्त कर लेते हैं परंतु पुण्य क्षीण होने पर पुनः मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं। मनुष्य को उसके किये अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है

कर्म प्रधान विश्व करि राखा। 
जो जस करहिं ताहि फल चाखा।।

गीता में भगवान श्री कृष्ण निष्काम कर्म का उपदेश दिये हैं

कर्म फल की लालसा से विषयों में आसक्ति बढ़ती है। कामना की सिद्धि में विघ्न पड़ने से क्रोध आता है। क्रोध से मति भ्रष्ट होती है और अविवेक पैदा होता है। अविवेक से स्मृति का नाश होता है जिससे भले-बुरे की पहचान की क्षमता का लोप होता है और व्यक्ति अपने लिए श्रेष्ठ साधन का चयन नहीं कर पाता है। इस तरह वह कर्म के बंधन में फंसता चला जाता है

कर्म के प्रकार: कर्म मुख्य रूप से तीन होते हैं-

१.      १.  संचित कर्म       -    पूर्व जन्मों के कर्म। 
२.      २.  प्रारब्ध कर्म      -    पूर्व जन्मों के कर्म जिनका फल इस जन्म में भोगना पड़ता है। 
३.      ३.  क्रियमाण कर्म  -    वर्तमान में किये गए कर्मों और निर्णयों का प्रतिफल।
       
म    इसके अतिरिक्त मनुष्य अपनी दिनचर्या में निम्नलिखित कर्म भी करता है, जैसे-
  • ·        नित्य कर्म अर्थात् दैनिक कार्य। 
  •          नैमित्य कर्म यानी नियमशील कार्य। 
  •        काम्य कर्म अर्थात् किसी कामना के वशीभूत किया    गया कार्य। 
  •         निष्काम कर्म यानी निःस्वार्थ भाव से किया गया कार्य।
  •          निषिद्ध कर्म अर्थात् न करने योग्य कार्य। 

कभी-कभी अच्छे कर्म करने वाले के साथ बुरा और बुरा कर्म  करने वाले के साथ अच्छा क्यों होता है?


इसका जबाब इस तरह है कि, "अच्छे कर्म के परिणाम, सदैव अच्छे और बुरे कर्म के परिणाम सदैव बुरे ही होते हैं"। परंतु कभी-कभी मनुष्य के जीवन में उसके किये गये कर्मों के परिणाम हमें विपरीत होते हुए दिखाई देते हैं। जिसका प्रमुख कारण उसके पूर्व जन्मों के संचित कर्म-फल यानी प्रबल प्रारब्ध होता है। यहाँ दो स्थितयां हैं। 

स्थिति-१: अच्छा कर्म करने वाले के साथ जब बुरा होता है। तब लोग अक्सर यह कहते हैं कि इसका हाथ काला है, कितना भी अच्छा कर ले, इसके साथ तो बुरा ही होने वाला है। 

स्थिति-२: बुरे कर्म करने वाले के साथ  जब अच्छा होता है तो लोग कहते हैं कि इसका यशस्वी हाथ है, यह मिट्टी भी छूता है तो वह सोना बन जाती है। 

पहली स्थिति में मनुष्य के साथ बुरे कर्म का प्रारब्ध है। जो बैंक से लिये गए उस भारी कर्ज की तरह होता है। जिसमें मनुष्य कमाई तो खूब करता है। लेकिन उसकी सारी कमाई उसके द्वारा लिये गए उस भारी कर्ज को चुकता करने में ही लग जाती है फिर भी वह कर्ज पड़ा ही रहता है। उसी तरह, व्यक्ति इस जन्म में अच्छा कर्म तो कर रहा होता है, लेकिन उसके अच्छे कर्म के फल अच्छे होने के बावजूद उसके उस प्रबल किन्तु बुरे प्रारब्ध के प्रभाव से विलुप्त हो जाते हैं और अच्छे कर्मों के परिणाम भी बुरे परिलक्षित होते हैं। 

दूसरी स्थिति में मनुष्य का प्रारब्ध उसके अच्छे कर्मों का होता है। जो बैंक के उस बड़ी धनराशि के फिक्सड डिपाजिट की तरह होता है जिससे इतना ब्याज मिलता है कि उसके द्वारा किये गए फालतू खर्चों बावजूद उसका धन, कम होता हुआ नहीं दिखता है। वैसे ही, मनुष्य के इस जन्म में बुरे कर्म करने के बावजूद उसके प्रबल, किन्तु अच्छे प्रारब्ध के प्रभाव से उसके बुरे कर्मों के परिणाम बुरे होते हुए भी अच्छे प्रतीत होते हैं। 

सौजन्य: Life Quotes Hindi

कर्म चाहे मनवाणी या शरीर के इंद्रियों के द्वारा किया जायेकर्म और फल साथ-साथ चलते हैं। कर्म चाहे जिस परिस्थिति में किया गया होफल तो मिलेगा ही और उसे भोगना भी पड़ेगा। कर्म-फल से कोई बच नहीं सकता है, चाहे वो अमीर या गरीबराजा या रंकजो भी हो। आत्माअजर, अमर है, जो ईश्वर के अंश रूप में सभी प्राणियों में विद्यमान है। जिस तरह हम अपने पुराने कपड़े को छोड़ दूसरा नया कपड़ा पहन लेते हैं। ठीक उसी तरह यह आत्मा भी हमारे पुराने शरीर को छोड़नये शरीर को धारण कर लेती है। मृत्यु अटल सत्य है। इस संसार को छोड़कर सभी को चले जाना है। 

कर्म का थप्पड़ इतना भारी होता है कि हमारा जमा हुआ पुण्य कब खत्म हो जाये, पता भी नहीं चलता। पुण्य खत्म होने पर, राजा को भी भीख मांगनी पड़ती है। 

इसलिए मनुष्य को चाहिए कि-
  • अनासक्त भाव से बिना फल की कामना से, कर्तापन के अभिमान को त्यागकर, धैर्य और उत्साहपूर्वक, लोक-कल्याण हेतु कर्म करे। 
  • अपने समस्त कर्मों को परमात्मा को समर्पित कर, कर्म-बन्धन से मुक्त हो जाये। 
  • किसी के साथ छल-कपट करके उसकी आत्मा को दुखी ना करें।
*****


2 टिप्‍पणियां:

सबसे ज़्यादा पढ़ा हुआ (Most read)

फ़ॉलो

लोकप्रिय पोस्ट

विशिष्ट (Featured)

मानसिक तनाव (MENTAL TENSION) I स्ट्रेस (STRESS)

प्रायः सभी लोग अपने जीवन में कमोबेश मानसिक तनाव   से गुजरते ही हैं। शायद ही ऐसा कोई मनुष्य होगा जो कभी न कभी मानसिक त...