12 जून 2023

अपने जीवन को दिव्य बनाना ही, मानव जीवन का उद्देश्य है।

संसार में आकर यह चेष्टा करना कि सब लोग एक सा ही जीवन व्यतीत करें, एक निरर्थक सी बात है। जीवन जीने के जो विभिन्न स्वरूप हैं, वे महत्व की दृष्टि से भले ही न्यूनाधिक हों पर समाज में सभी तरह के व्यक्तियों के लिए स्थान होता है। न तो सबके भोगी बन जाने से काम चल सकता है और न तो त्यागी बन जाने से। पर मनुष्य किसी भी लौकिक प्रवृत्ति को ग्रहण करे, उसे आत्मोन्नति का ध्यान अवश्य करना चाहिए। जो लोग जीवन का उद्देश्य केवल खाना, पीना और सांस लेना ही समझते हैं, वे भूल करते हैं। 

जीवन दो तरह का होता है, एक तो भौतिक और दूसरा आध्यात्मिक। वैज्ञानिकों का कथन है कि विचारना, जानना, इच्छा करना, भोजन करना, सांस लेना इत्यादि जो कार्य हैं, वही जीवन है। परन्तु यह जीवन अमर नहीं होता। ऐसा जीवन दुख, सुख, चिंता, आपत्ति, विपत्ति, पाप, बुढ़ापा-रोग इत्यादि का शिकार बना रहता है। अतएव प्राचीन महर्षियों, योगियों और तपस्वियों ने अपने चित्त और इन्द्रियों को वश में करके त्याग, तप, वैराग्य और अभ्यास आदि के बल से आत्मनिरीक्षण किया है और निश्चयपूर्वक कहा है कि जो आत्मा में रत है, केवल वही स्थायी और असीम आनंद एवं अमरत्व प्राप्त कर सकता है। उन्होंने भिन्न-भिन्न स्वभाव योग्यता और रुचि के अनुसार आत्मसाक्षात्कार के लिए विभिन्न निश्चित मार्ग बतलाये हैं।

जिन लोगों को ऐसे महात्माओं में, वेदों में और गुरु के वचनों में अटूट श्रद्धा है, वे आध्यात्मिक और सत्य के मार्ग पर निर्भिकता से विचरते हैं और स्वतंत्रता, पूर्णता या मोक्ष प्राप्त करते हैं। वे लौटकर फिर मृत्युलोक में नहीं आते। वे सच्चिदानंद ब्रह्म में या अपने ही स्वरूप में स्थिर रहते हैं। यही मानव जीवन का ध्येय एवं उद्देश्य है, यही अंतिम लक्ष्य है, जिसके अनेक नाम जैसे- निर्वांण, परमगति, परमधाम और ब्राह्मी स्थिति है। आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रयत्न करना मनुष्य का परम कर्तव्य है। 

परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि हम भौतिक जीवन की उपेक्षा करें। भौतिक जगत भी परमेश्वर या ब्रह्म का ही स्वरूप है जिसको कि उसने अपनी लीला के लिए बनाया है। अग्नि और उष्णता, बर्फ और शीत, पुष्प और सुगन्धि की भांति जड़ और चेतन, अभिन्न हैं। शक्ति और शक्त एक ही हैं। ब्रह्म और माया अभिन्न और एक हैं। ब्रह्ममय और शाश्वत जीवन प्राप्त करने के लिए, भौतिक जीवन एक निश्चित साधन है। संसार आपका एक सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है, पंच-तत्व आपके गुरु हैं। प्रकृति आपकी माता है और पथप्रदर्शिका है, यही आपकी मूक शिक्षिका है। यह संसार, दया, क्षमा, सहिष्णुता, विश्व-प्रेम, उदारता, साहस, धैर्य, महत्वाकांक्षा इत्यादि दिव्य गुणों के विकास के लिए एक सर्वश्रेष्ठ शिक्षालय है। यह संसार आसुरी स्वभाव से युद्ध करने के लिए एक अखाड़ा है और अपने भीतर की दैवी शक्ति को प्रकाश में लाने के लिए एक दिव्य क्षेत्र है। गीता और योग वशिष्ठ की मुख्य शिक्षा यही है कि मनुष्य को संसार में रहते हुए आत्मसाक्षात्कार करना चाहिए। जल में कमल-पत्र की भांति संसार में रहते हुए भी उसके बाहर रहिये। स्वार्थ, काम क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष आदि नीच आसुरी स्वभाव को त्याग कर मानसिक त्याग और आत्मबलिदान का दिव्य स्वभाव धारण करिये। 

अपने आदर्श और लक्ष्य तक पहुंचने के लिए, संग्राम करते रहना ही जिंदगी है। इस संग्राम में विजय प्राप्त करना ही जीवन है। अनेक प्रकार की जागृतियों को ही जीवन कहते हैं। मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करिये। ये ही आपके असली शत्रु हैं। अपनी वाह्य और आंतरिक प्रकृति पर विजय प्राप्त करिये। अपनी पुरानी बुरी आदतों तथा कुविचारों को, कुसंस्कारों और कुवासनाओं को अवश्य जीतना होगा। इन पैशाचिक शक्तियों से युद्ध करना होगा। 

आपका जन्म ही आत्मसाक्षात्कार के लिए हुआ है। आत्मिक रूप से नियमित भजन करिये और आत्मिक सुख का अनुभव करिये। निष्काम कर्म के द्वारा अपने मन और बुद्धि को शुद्ध करिये। इन्द्रिय-निग्रह से अपने ही स्वरूप में स्थिर होइए। जीवन संग्राम में जब आप पर प्रतिदिन चोटें पड़ती हैं, जब आप धक्के खाते हैं तभी मन आध्यात्मिक पथ की ओर झुकता है। तब सांसारिक विषयों से अन्यमनस्कता उत्पन्न होती है, अरुचि होती है और इस प्रपंच से उद्धार पाने की उत्कंठा जाग्रत होती है, विवेक और वैराग्य होता है।



आध्यात्मिक जीवन निरा काल्पनिक नहीं है, केवल आवेश मात्र नहीं है यही सच्चा आत्मस्वरूप जीवन है। यह विशुद्ध आनंद और सुख का अनुपम अनुभव है। इसी को पूर्णता प्राप्त जीवन कहते हैं। एक स्थिति ऐसी होती है जहाँ सदा शाश्वत-शांति और केवल आनंद ही आनंद है, परमानन्द है। वहाँ न तो मृत्यु है और न वासना ही, वहाँ न दुख है न दर्द, न भ्रम है न शंका। 

इस शरीर को ही आत्मा समझ लेना बड़ा पाप है। इस भ्रमात्मक भाव को त्याग दिजिए। सांसारिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करना, तरकीबों का सोचना, विचारधारा, झूठे मंसूबे बांधना, ख्याली पुलाव छोड़िये, चिरपालित मायावी आशावों को तिलांजलि दिजिए। वासनाओं और इच्छाओं का दमन कर उपर उठिए, बुद्धि से काम लीजिए। उपनिषदों का मनपूर्वक अध्ययन करिये। नियमित निदिध्यासन करिये। अविद्या और अज्ञान के गहन अंधकूप से बाहर निकलिए और ज्ञान रूपी सूर्य की जगमगाती ज्योति में स्नान करिये। इस ज्ञान में दूसरों को भी साथी बनाइये। अपवित्र इच्छाएँ और अविद्या आपको बहका  लेती हैं। अत: इसे कभी न भूलिए कि मानव जीवन का मुख्य लक्ष्य और अंतिम उद्देश्य आत्म साक्षात्कार करना ही है। झूठे वाह्य आडम्बरों और माया के मिथ्या प्रपंचों में मत फंसिये। कल्पना के मिथ्या स्वप्नों से जागिए और थोथे, सारहीन प्रलोभनों के जाल में न फंसकर ठोस और जीती-जागती असलियत को ही पढ़िये। अपनी आत्मा से प्रेम करिये क्योंकि आत्मा ही परमात्मा या ब्रह्म है। यही सजीव मूर्तिमान सत्य है। 

अपने हृदय में प्रेम की ज्योति जगाइए, सबको प्यार करिये, अपनी प्रगाढ़ प्रेम की बाहुओं से प्राणिमात्र का आलिंगन करिये। प्रेम एक ऐसा रहस्यमय सूत्र है जो सबके हृदयों को, "वसुधैव कुटुंबकम" समझकर एक में बांध लेता है। प्रेम एक ऐसी पीड़ानाशक स्वर्गीय महाऔषधि है जिसमें जादू की सी सामर्थ्य है। अपने प्रत्येक काम को विशुद्ध प्रेममय बनाइये। लोभ, धूर्तता, छल, कपट और स्वार्थपरता का हनन किजिए। अनवरत दयालुता के कार्यों से ही लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। प्रेम में सने हुए हृदय से सतत सेवा करने से आपको अधिक बल, अधिक आनंद, और अधिक संतोष की प्राप्ति होगी। सब आपसे प्रेम करेंगे। दया दान और सेवा से हृदय पवित्र और कोमल हो जाता है और साधक का जीवन प्रस्फुटित और उर्ध्वमुखी होकर ईश्वरीय प्रकाश को ग्रहण करने के योग्य बन जाता है।

साभार: श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक, "जीवन और मृत्यु'

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

सबसे ज़्यादा पढ़ा हुआ (Most read)

फ़ॉलो

लोकप्रिय पोस्ट

विशिष्ट (Featured)

मानसिक तनाव (MENTAL TENSION) I स्ट्रेस (STRESS)

प्रायः सभी लोग अपने जीवन में कमोबेश मानसिक तनाव   से गुजरते ही हैं। शायद ही ऐसा कोई मनुष्य होगा जो कभी न कभी मानसिक त...