10 सितंबर 2025

भगवत्कथा और भगवद्भक्ति का महात्म्य (पौराणिक कथा भाग-२)

"ॐ नमो भगवते वासुदेवाय"

भूमिका:-

"भगवत्कथा और भगवद्भक्ति का महात्म्य" का वर्णन श्रीद्भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध के दूसरे अध्याय में आती है। एक बार शौनकादि श्रृषियों ने नैमिषारण्य में भगवत्प्राप्ति की इच्छा से सूतजी का पूजन किया और उन्हें ऊंचे आसन पर बड़े आदर के साथ बैठाकर, जगत-कल्याण हेतु बड़ा ही सुन्दर प्रश्न किया। 

सौजन्य: You Tube

कथा प्रारंभ:-

श्रृषियों ने कहा- हे सूतजी! आप संपूर्ण वेद-वेदान्त और शास्त्रों के मर्मज्ञ हैं। अतः आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सभी शास्त्रों और गुरुजनों के उपदेशों में कलियुगी जीवों के जो जन्म-मृत्यु के घोर चक्र में पड़ा हुआ हैं, उनके परम कल्याण का सहज साधन क्या बतलाया गया है? 

सूतजी ने कहा- श्रृषियों! आपने बहुत ही सुंदर प्रश्न किया है। मनुष्यों के लिए सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति हो। भक्ति भी ऐसी कि जिसमें कामना न हो और जो नित्य निरंतर बनी रहे। ऐसी भक्ति से हृदय आनंदस्वरूप परमात्मा की उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है‌। भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति होते ही, अनन्य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव हो जाता है। धर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने पर भी यदि मनुष्य के हृदय में भगवान् की लीला-कथाओं के प्रति अनुराग का उदय न हो तो वह व्यर्थ का श्रम है। 

धर्म का फल है, मोक्ष। उसकी सार्थकता अर्थ-प्राप्ति में नहीं है। अर्थ केवल धर्म के लिए है। उसका फल भोगविलास नहीं माना गया है। भोगविलास का फल इंद्रियों को तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन है केवल जीवन निर्वाह। जीवन का फल भी तत्व-जिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है। तत्ववेत्ता लोग ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्द स्वरूप ज्ञान को ही तत्व कहते हैं। उसी को कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान् के नाम से पुकारते हैं। 

शौनकादि श्रृषियों! यही कारण है कि अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार मनुष्य जो धर्म का अनुष्ठान करते हैं, उसकी पूर्ण सिद्धि इसी में है कि भगवान् प्रसन्न हों। इसलिए एकाग्र मन से भक्तवत्सल भगवान् का ही नित्य-निरंतर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और अराधना करनी चाहिए। कर्मों की गांठ बड़ी कड़ी है। विचारवान पुरुष भगवान् के चिंतन की तलवार से उस गांठ को काट डालते हैं। तब भला ऐसा कौन मनुष्य होगा जो भगवान् की लीला-कथा में प्रेम न करे। 

शौनकादि श्रृषियों! पवित्र तीर्थों का सेवन करने से महत्सेवा, तदनंतर श्रवण की इच्छा, फिर श्रद्धा, तत्पश्चात् भगवत्कथा में रुचि होती है। भगवान् श्रीकृष्ण के यश का श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करने वाले हैं। वे अपनी कथा सुनने वालों के हृदय में आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओं को नष्ट कर देते हैं; क्योंकि वे संतों के नित्य-सुहृद हैं। 

जब श्रीमद्भागवत अथवा भगवद्भक्तों के निरंतर सेवन से अशुभ वासनाएं नष्ट हो जाती हैं तब भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में स्थायी प्रेम की प्राप्ति होती है। तब रजोगुण और तमोगुण के भाव- काम, क्रोध, लोभादि शान्त हो जाते हैं और चित्त इनसे रहित होकर सत्वगुण में स्थित एवं निर्मल हो जाता है। इस प्रकार भगवान् की प्रेममयी भक्ति से जब संसार की समस्त आसक्तियां मिट जाती हैं, हृदय आनंद से भर जाता है। हृदय में आत्मस्वरूप भगवान् का साक्षात्कार होते ही हृदय की ग्रंथि टूट जाती है, सारे संदेह मिट जाते हैं और कर्मबन्धन क्षीण हो जाता है। इसी से बुद्धिमान लोग नित्य-निरंतर बड़े आनंद से भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति करते हैं, जिससे आत्मप्रसाद की प्राप्ति होती है। 

प्रकृति के तीन गुण हैं- सत्व, रज और तम। इनको स्वीकार करके इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के लिए एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र- ये तीन नाम ग्रहण करते हैं। फिर भी मनुष्यों का परम कल्याण तो सत्वगुण स्वीकार करने वाले श्रीहरि से ही होता है। तमोगुण से रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुण से सत्वगुण श्रेष्ठ है; क्योंकि वह भगवान् का दर्शन करानेवाला है। 

प्राचीन युग में महात्मा लोग अपने कल्याण के लिए विशुद्ध सत्वमय भगवान् विष्णु की ही अराधना किया करते थे। अब भी जो लोग उनका अनुसरण करते हैं, वे उन्हीं के समान कल्याणभाजन होते हैं। जो लोग इस संसार-सागर से पार जाना चाहते हैं, वे यद्यपि किसी की निंदा तो नहीं करते, न किसी में दोष ही देखते हैं, फिर भी घोररूप वाले तमोगुणी-रजोगुणी भैरवादि भूतपतियों की उपासना न करके सत्वगुणी विष्णु भगवान् और उनके अंश- कला-स्वरूपों का ही भजन करते हैं। परंतु जिनका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन ऐश्वर्य और संतान की कामना से भूत, पितर  और प्रजापतियों की उपासना करते हैं; क्योंकि इन लोगों का स्वभाव उन (भूतादि) से मिलता-जुलता होता है। 

वेदों का तात्पर्य श्रीकृष्ण में ही है। यज्ञों का उद्देश्य श्रीकृष्ण ही हैं। योग श्रीकृष्ण के लिए ही किये जाते हैं हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण ही हैं। ज्ञान से ब्रह्मस्वरुप श्रीकृष्ण की प्राप्ति होती है। तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए की जाती है। श्रीकृष्ण के लिए ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं। 

यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण प्रकृति और उसके गुणों से परे हैं फिर भी अपनी माया से, जो प्रपंच की दृष्टि से है और तत्व की दृष्टि से नहीं है- उन्होंने ही सर्ग के आदि में इस संसार की रचना की थी। ये सत्व, रज और तम- तीनों गुण उसी माया के विलास हैं; इनके भीतर रहकर भगवान् इनके युक्त-सरीखे मालूम पड़ते हैं। वास्तव में वे तो परिपूर्ण विज्ञानानंदघन हैं। 

अग्नि तो वस्तुतः एक ही है, परंतु जब वह अनेक प्रकार की लकड़ियों में प्रकट होती है तब अनेक सी मालूम पड़ती है। वैसे ही सबके आत्मरूप भगवान् तो एक ही हैं, परंतु प्राणियों की अनेकता से अनेक जैसे जान पड़ते हैं। भगवान् ही सूक्ष्म भूत- तन्मात्रा, इन्द्रिय तथा अंत:करण आदि गुणों के विकारभूत भावों के द्वारा नाना प्रकार की योनियों का निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवों के रूप में प्रवेश करके उन योनियों के अनुरूप विषयों का उपभोग करते-कराते हैं। वे ही संपूर्ण लोकों की रचना करते हैं और देवता, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि योनियों में लीलावतार ग्रहण करके सत्वगुण के द्वारा जीवों का पालन पोषण करते हैं।

सौजन्य: गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित प्रसिद्ध पुस्तक, "श्रीमद्भागवत-सुधा-सागर"

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