15 जून 2024

धुंधुकारी की कथा और प्रेतयोनि से मुक्ति (पौराणिक कथा भाग-१)

 "ॐ नमो भगवते वासुदेवाय"

श्रीमद्भागवत शास्त्र के पहले अध्याय में श्रीमद्भागवत शास्त्र की महिमा का वर्णन करते हुए सनकादि ऋषि ने देवर्षि नारदजी से बोले, "श्रीमद्भागवतकथा के श्रवण मात्र से ही श्रीहरि हृदय में आ विराजते हैं और मुक्ति हाथ लग जाती है।" श्रीमद्भागवतपुराण में अट्ठारह हजार श्लोक और बारह स्कंध हैं जिनमें श्रीशुकदेवजी और राजा परीक्षित का संवाद है इसलिए इस शास्त्र को शुकशास्त्र भी कहते हैं।" 

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धुंधुकारी की कथा:-

श्रीमद्भागवत के चौथे अध्याय में धुंधुकारी की कथा का वर्णन मिलता है; जो इस प्रकार है-                                

पूर्वकाल में तुंगभद्रा नदी के तट पर एक अनुपम नगर वसा हुआ था। उस नगर में वेदों को जानने वाला और श्रौत-स्मार्त कर्मों में निपुण, आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह सूर्य की भांति तेजस्वी था। वह धनी होने पर भी भिक्षाजीवी था। उसकी प्यारी पत्नी धुन्धुली कुलीन, सुंदर, गृहकार्य में निपुण तो थी परंतु अपनी बात पर अड़ जाने वाली क्रूर स्वभाव की झगड़ालू औरत थी। ब्राह्मणदम्पति के पास धनदौलत और भोगविलास की सामग्री बहुत थी। परंतु उन्हें कोई संतान नहीं थी। जब अवस्था बहुत ढल गयी तो तरह-तरह के धर्म-कर्म, दान-पुण्य किये तो भी उन्हें संतान का मुख देखने को नहीं मिला। अब वह ब्राह्मण बहुत ही चिंतित रहने लगा। 

एक दिन वह ब्राह्मण देवता अत्यंत दुखी हो, घर से निकलकर वन की तरफ चल दिया। दोपहर के समय उसे प्यास लगी। इसलिए एक तालाब में जाकर पानी पिया और काफी थक जाने के कारण वह वहीं बैठ गया। दो घड़ी बीतने के बाद एक सन्यासी-महात्मा वहाँ आये। उन महात्मा को देख वह ब्राह्मण उनकी चरणों में गिरकर रोने लगा। महात्मा ने उस ब्राह्मण को उठाया और रोने का कारण पूछा। तब ब्राह्मण ने महात्मा से बोला- महात्मन! मेरे पास सब कुछ है किन्तु पूर्वजन्म के पापकर्मों के वजह से मुझे संतान नहीं है और इसी दुख से दुखी होकर प्राण-त्याग हेतु मैं यहाँ आया हूँ। सन्तानहीन जीवन को धिक्कार है। 

यह सब सुनकर उन महात्मा के हृदय में बड़ी करुणा उत्पन्न हुई। वे योगनिष्ठ थे। उन्होंने उसके ललाट की रेखाएँ देखकर सारा वृत्तांत जान लिया और फिर ब्राह्मण से बोले- हे ब्राह्मण देवता! तुम सन्तान प्राप्ति का मोह त्याग दो। कर्म की गति प्रबल है, विवेक का आश्रय लेकर संसार की वासना छोड़ दो। विप्रवर! मैंने तुम्हारा प्रारब्ध देखकर निश्चय किया है कि तुम्हें सात जन्मों तक कोई संतान नहीं हो सकती। अतः तुम कुटुम्ब की आशा छोड़, सन्यास धारण कर लो; उसी में सुख है। 

ब्राह्मण बोला- महात्माजी! मुझे विवेक नहीं पुत्र दिजिए; नहीं तो अभी मैं आपके सामने ही अपना प्राण त्याग दूंगा। लोक में पुत्र-पौत्रादि से भरा-पूरा गृहस्थाश्रम ही सुखदायक होता है। ब्राह्मण का ऐसा हठ देखकर उन तपोधन ने कहा कि विधाता के लेख को मिटाने का हठ करने से राजा चित्रकेतु को भी बड़ा दुख उठाना पड़ा था। इसलिए दैव जिसके उद्योग को कुचल देता है, उस पुरुष के समान तुम्हें भी पुत्र से सुख नहीं मिल सकेगा। तुमने तो बड़ा हठ पकड़ रखा है और एक अर्थी के रूप में तुम मेरे सामने उपस्थित हो; ऐसी दशा में मै तुमसे क्या कहूँ। 

जब महात्माजी ने देखा कि यह किसी भी प्रकार अपना आग्रह नहीं छोड़ता, तब उन्होंने उसे एक फल देकर कहा- "इसे तुम अपनी पत्नी को खिला देना, इससे उसे एक पुत्र होगा। तुम्हारी स्त्री को एक साल तक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय एक ही अन्न खाने का नियम रखना चाहिए। यदि वह ऐसा करेगी तो बालक बहुत शुद्ध स्वभाव वाला होगा। 

यों कहकर वे योगिराज चले गए और ब्राह्मण अपने घर चला आया। वहाँ आकर उसने वह फल अपनी स्त्री के हाथ में देकर पूरी बात बताकर स्वयं कहीं चला गया। उसकी स्त्री तो कुटिल स्वभाव की थी ही, वह रो-रोकर अपनी एक सखी से कहने लगी- सखी! मैं फल नहीं खाऊँगी। मुझे तो चिंता हो गयी कि फल खाने से गर्भ रहेगा जिससे पेट बड़ा हो जायेगा। फिर कुछ खाया-पीया नहीं जायेगा, इससे मेरी शक्ति क्षीण हो जायेगी। यदि प्रसवकाल के समय बच्चा पेट में टेढ़ा हो गया तो फिर प्राणों से ही हाथ धोना पड़ेगा। यूँ भी प्रसव के समय बड़ी पीड़ा होती है; मैं सुकुमारी भला यह सब कैसे सह सकूँगी? और मुझे तो ये सब नियम पालन करना भी कठिन जान पड़ता है। जो स्त्री बच्चा जनती है, उसे उस बच्चे के लालन-पालन में भी कष्ट उठाना पड़ता है। मेरे विचार से तो बन्ध्या अथवा विधवा स्त्रियाँ ही सुखी हैं। 

मन में तरह-तरह के कुतर्क उठने से वह फल नहीं खायी और जब उसके पति ने पूछा- फल खा लिया? तब उसने कह दिया, "हाँ, खा लिया।" एक दिन उसकी बहिन अपने आप ही उसके घर आयी। तब उसने अपनी बहिन को सारा वृत्तांत सुनाकर कहा कि, "मेरे मन में इसकी बड़ी चिंता है। तुम्हीं बताओ कि मैं क्या करूँ? उसकी बहिन ने कहा कि मेरे पेट में बच्चा है। प्रसव होने पर वह बालक मैं तुझे दे दूंगी। तबतक तुम घर में एक गर्भवती की तरह गुप्त रूप में सुख से रह। तुम मेरे पति को कुछ धन दे देगी तो वे तुझे अपना बालक दे देंगे। हम ऐसी युक्ति करेंगी कि जिससे सब लोग यही कहें कि इसका बालक छ: महीने का होकर मर गया और मैं नित्यप्रति तेरे घर आकर उस बालक का पालनपोषण करती रहूँगी। तू इस समय इसको परखने के लिए यह फल गौ को खिला दो। 

ब्राह्मणी ने स्त्री-स्वभाववश उसकी बहिन ने जो-जो कहा था, वैसे ही सब किया। इसके पश्चात् समयानुसार जब धुंधली की बहिन के पुत्र हुआ तब उसका पति धन के लोभ में चुपचाप अपने बालक को लाकर धुन्धुली को दे दिया और आत्मदेव को सूचना दी कि उसके यहाँ सुखपूर्वक बालक पैदा हो गया है। 

इस प्रकार आत्मदेव को पुत्र की प्राप्ति की खबर सुनकर सब लोग बड़े प्रसन्न हुए। ब्राह्मण ने बालक का जातकर्म-संस्कार करके ब्राह्मणों को दान दिया और उसके द्वार पर गाना-बजाना तथा अनेक-प्रकार के मांगलिक कृत्य होने लगे। धुंधली ने अपने पति से कहा, "मेरे स्तनों में दूध नहीं है और किसी और जीव के दूध से अच्छा है कि मेरी बहिन को यहाँ बुला लें, वह दूध भी पिला देगी और बच्चे के पालनपोषण में मदद भी कर देगी क्योंकि उसे अभी लड़का हुआ था किन्तु वह मर गया।" तब आत्मदेव ने पुत्र की रक्षा के लिए वैसा ही किया तथा माता धुंधली ने उस बालक का नाम धुंधुकारी रखा। 

इसके बाद तीन महीने बीतने पर उस गौ के भी एक मनुष्याकार बच्चा हुआ जिसे धुंधली ने महात्मा जी का दिया हुआ फल खिला दिया था। वह सर्वांगसुंदर, दिव्य, निर्मल तथा सुवर्ण के जैसा कांति वाला था। उसे देखकर ब्राह्मण देवता को बड़ा आनंद हुआ और उसने स्वयं ही उसके सब संस्कार किये। इस समाचार से लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ और लोग उसे देखने के लिए आने लगे। तथा आपस में कहने लगे, "देखो भाई! अब आत्मदेव का कैसा भाग्योदय हुआ है? कैसा आश्चर्य की बात है कि गौ के भी ऐसा दिव्य स्वरूप बालक उत्पन्न हुआ है। दैवयोग से इस गुप्त रहस्य का किसी को भी पता न लगा। आत्मदेव ने उस बालक के गौ की तरह कान देखकर उसका नाम "गोकर्ण" रखा। 

कुछ काल बीतने पर वे दोनों बालक जवान हुए। उनमें गोकर्ण तो बड़ा पंडित और ज्ञानी हुआ, किन्तु धुंधुकारी बड़ा ही दुष्ट निकला। ब्राह्मणोचित आचरण का उसमें नामोनिशान तक नहीं था। उसके अंदर सारे दुर्व्यसन जैसे- चोरी, हिंसा, वेश्यावृत्ति आदि कूट-कूट कर भरे हुए थे। वेश्यावृत्ति से जब सारी संपत्ति स्वाहा हो गई तब उसका कृपण पिता आत्मदेव फूट-फूट कर रोने लगा और बोला- इससे अच्छा तो इसकी माँ का बांझ रहना ही अच्छा था; कुपुत्र तो बड़ा ही दुखदायी होता है। अब मैं कहाँ रहूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे इस संकट को कौन दूर करेगा? 

उसी समय परम ज्ञानी गोकर्णजी वहाँ आये और पिता को उन्होंने वैराग्य का उपदेश करते हुए बहुत समझाया। वे बोले, "पिताजी! यह संसार असार है। यह अत्यंत दुखरूप और मोह में डालने वाला है। पुत्र किसका? धन किसका? सुख न तो इन्द्र को है और न चक्रवर्ती राजा को ही है।" सुख है तो केवल विरक्त, एकांतजीवी मुनि को। "यह मेरा पुत्र है" इस अज्ञान को छोड़ दिजिये। मोह से नरक की प्राप्ति होती है। यह शरीर तो नष्ट होगा ही। इसलिए सब कुछ छोड़कर वन में चले जाइए। 

गोकर्णजी के वचन सुनकर आत्मदेव वन में जाने के लिए तैयार हो गया और गोकर्णजी से कहने लगा, "बेटा वन में रहकर क्या करना चाहिए, विस्तार से बताओ। गोकर्णजी ने कहा- पिताजी! यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिर का पिण्ड है; इसे आप "मैं मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादि को "अपना" कभी न मानें। इस संसार को रात-दिन क्षणभंगुर देखें, इसकी किसी भी वस्तु को स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, एकमात्र वैराग्य-रस के रसिक होकर भगवान् की भक्ति में लगे रहें। भगवद्भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरंतर उसी का आश्रय लिए रहें। भोगों की लालसा को पास न फटकने दें और भगवान् की कथाओं के रस का ही पान करें। 

इस प्रकार गोकर्णजी की वाणी से प्रभावित होकर आत्मदेव ने घर छोड़कर वन में चला गया। वहाँ दिनरात भगवान् की पूजा अर्चना करने एवं नियमपूर्वक भागवत पाठ करने से उसने भगवान् श्रीकृष्ण को प्राप्त कर लिया। 

धुंधुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे मुक्ति:

पिता को वन में चले जाने पर एक दिन धुंधुकारी ने अपनी माता को बहुत पीटा और कहा- बता धन कहाँ रखा है? नहीं तो अभी तुम्हारा बहुत बुरा हाल करूँगा। उसकी धमकी से डरकर और पुत्र के उपद्रवों से अत्यंत दुखी होकर उसकी माता कुएँ में कूदकर जान दे दी। योगनिष्ठ गोकर्णजी तीर्थयात्रा के लिए निकल गए। उन्हें इन घटनाओं से कोई सुख-दुख नहीं होता था।

धुंधुकारी अब पांच वेश्याओं के साथ घर में रहने लगा। एक दिन उन कुलटाओं ने उससे बहुत सारे गहनों की मांग की। वह तो कामांध हो गया था। उसकी मति मारी गयी थी। उसे अच्छे-बुरे का ख्याल नहीं रहा। वह चोरी कर बहुत धन जुटाया और उससे कुछ सुंदर आभूषण तथा वस्त्र उन्हें लाकर दिये। चोरी का बहुत माल देखकर रात्रि के समय वेश्याओं ने आपस में विचार किया कि यह नित्य ही चोरी करता है इसलिए अवश्य ही एक न एक दिन पकड़ा जायेगा और राजा इसे प्राणदंड देगा। जब इसे मरना ही है तो क्यों न हम लोग ही गुप्त रूप से मार डालें और मालमत्ता लेकर यहाँ से निकल लें। 

ऐसा निश्चय कर उन्होंने सोये हुए धुंधुकारी को रस्सियों से कसकर बांध दिया और गले में फांसी का फंदा लगाकर मारने का प्रयत्न किया। जब वह जल्दी नहीं मरा तो उसके शरीर पर दहकते हुए अंगारे डाल, तड़पाकर मार डाला और एक गड्ढे में गाड़ दिया। 

वे कुलटाएं धुंधुकारी की सारी संपत्ति समेटकर वहाँ से चंपत हो गयीं। धुंधुकारी अपने कुकर्मों के कारण भयंकर प्रेत हुआ। वह बवंडर के रूप में सर्वदा इधर-उधर भटकता रहता था। कुछ काल बीतने पर गोकर्णजी ने भी लोगों से धुंधुकारी की मृत्यु का समाचार सुना। तब उसे अनाथ समझकर गयाजी में उसका श्राद्ध किया और भी जहाँ-जहाँ जाते, उसका श्राद्ध अवश्य करते। 

इस प्रकार घूमते-घुमते गोकर्णजी अपने नगर में आये और रात्रि के समय लोगों की नजर बचाकर सीधे अपने घर के आंगन में सोने के लिए पहुंचे। वहाँ अपने भाई को सोया देख, प्रेत आधी रात में अपना बड़ा विकट रूप दिखाया। वह कभी हाथी, कभी भैंसा, कभी भेंड़ का रूप धारण करता। अंत में वह मनुष्य के रूप में प्रकट हुआ। 

तब गोकर्णजी ने धैर्यपूर्वक पूछा- तू कौन है और मुझे अपना भयानक रूप क्यों दिखा रहा है? हमें बता तो सही- तू प्रेत है या कोई राक्षस है? गोकर्णजी के इस प्रकार पूछने पर वह प्रेत बोल तो नहीं पा रहा था परंतु कुछ संकेत अवश्य कर रहा था। तब गोकर्णजी अंजलि में जल लेकर उसे अभिमंत्रित करके उसपर छिड़के। इससे उसके पापों का कुछ शमन हुआ और वह इस प्रकार कहने लगा-

प्रेत बोला- मैं तुम्हारा भाई धुंधुकारी हूँ। मैंने अपने कुकर्मों जिनकी गिनती नहीं की जा सकती, से अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया। अब प्रेतयोनि में पड़कर यह दुर्दशा भोग रहा हूँ। भाई! तुम दया के समुद्र हो; अब किसी भी प्रकार जल्दी से इस योनि से मुक्ति दिलाओ। गोकर्ण जी उसकी बातें सुनने के बाद बोले- भाई! मुझे इस बात का बड़ा आश्चर्य है कि मैंने तुम्हारे लिए विधिपूर्वक गयाजी में पिण्डदान किया था फिर भी तुम्हारी मुक्ति क्यों नहीं हुई? प्रेत ने कहा- मेरी मुक्ति सैकड़ों गया-श्राद्ध से भी नहीं हो सकती। अब तुम कोई दूसरा उपाय सोचो। 

तब गोकर्णजी बोले- तुम अपने स्थान पर निर्भय होकर रहो, मैं कुछ प्रयत्न करता हूँ। गोकर्णजी इसके लिए बहुत से ज्ञानी, मुनि, योगियों से परामर्श किये, परंतु मुक्ति का कोई उपाय नहीं मिला। सबने सूर्यनारायण से आज्ञा लेने को कहा। अतः गोकर्णजी अपने तपोबल से सूर्य की गति रोक दी और स्तुति कर धुंधुकारी की मुक्ति का उपाय पूछा। गोकर्णजी की प्रार्थना सुनकर सूर्यदेव दूर से स्पष्ट शब्दों में श्रीमद्भागवतकथा का सप्ताह-पारायण करने का आदेश दिया। 

अतः गोकर्णजी श्रीमद्भागवतकथा सुनाने का निश्चय किये और  स्वयं व्यास गद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे। कथा सुनने के लिए भारी भीड़ इकट्ठा हुयी। कथा सुनने के लिए वह प्रेत भी आया और वहाँ पर रखे हुए एक सात गांठ वाले बांस के छिद्र में प्रवेश कर गया। 

कथा के पहले दिन, सायंकाल को एक विचित्र घटना हुई। वहाँ श्रोताओं के देखते-देखते उस बांस की एक गांठ तड़-तड़ाकर फट गई। दूसरे दिन बांस की दूसरी गांठ, तीसरे दिन तीसरी गांठ और इसी तरह कथा के सातवें दिन सायं सातवीं गांठ भी फट गयी और श्रीमद्भागवतकथा के बारहों स्कंद ध्यानपूर्वक सुनकर धुंधुकारी पवित्र होकर पापयोनि से मुक्त हो गया और दिव्यरूप में सबके सामने प्रकट हुआ। वह अपने भाई गोकर्ण जी को प्रणाम करके कहा- भाई! तुमने कृपा करके मुझे प्रेतयोनि की यातनाओं से मुक्त कर दिया।  

अंत में बैकुंठ से पार्षदों-सहित आये विमान पर चढ़कर परमधाम को गमन किया। गोकर्णजी ने पार्षदों से प्रश्न किया कि हे भगवान् के प्रिय-पार्षदों! कथा का सप्ताह-श्रवण तो यहाँ उपस्थित सभी लोगों ने किया फिर फल में इस प्रकार भेद क्यों? तब भगवान् के सेवकों ने कहा कि कथा का श्रवण तो सभी ने जरूर किया परंतु इसके जैसा एकाग्रचित्त हो कथा का श्रवण और मनन किसी ने नहीं किया। 

प्रेत-पीड़ा का नाश करने वाली श्रीमद्भागवत कथा धन्य है तथा भगवान् श्रीकृष्ण के धाम की प्राप्ति कराने वाला इसका सप्ताह-पारायण भी धन्य है। जिस प्रकार आग, गीली-सूखी, छोटी-बड़ी सभी लकड़ियों को जला डालती है, उसी प्रकार श्रीमद्भागवतकथा का सप्ताह-पारायण सभी प्रकार के पापों को भस्म कर देता है। सभी प्रकार के दोषों की निवृत्ति के लिए सप्ताह-श्रवण ही एकमात्र साधन है।

सौजन्य: गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित प्रसिद्ध पुस्तक, "श्रीमद्भागवत-सुधा-सागर"

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