मनुष्य का जीवन उसके सोच-विचार, कर्म और आत्मविश्वास का परिणाम होता है। यह वाक्यांश, "मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है" मनुष्य के अच्छे कर्म, आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास के महत्व को दर्शाता है। यह विचारधारा हमें यह सिखाती है कि हमारी जिंदगी में जो कुछ भी होता है, वह हमारे द्वारा किए गए कर्मों और लिए गए निर्णयों का परिणाम होता है। हमारा किसी दूसरे पर भले ही अधिकार नहीं है परन्तु खुद पर तो है। अपने सोच-विचार और कर्म पर तो है। हमारे कर्म ही हमारे भाग्य और भविष्य का निर्धारण करते हैं, न कि कोई रहस्यमयी शक्ति। हम अपने भाग्य के शिल्पकार खुद हैं। हम अपने जीवन को जो आकार देना चाहें, दे सकते हैं। जो व्यक्ति भाग्य के भरोसे सोये रहते हैं, उनका भाग्य भी सो जाता है और जो लोग मुश्किलों से घबराते नहीं बल्कि सजगता के साथ अच्छे कर्म करते रहते हैं, उनका भाग्य जग जाता है। अपने भाग्य के निर्माता होने की अवधारणा हमारे जीवन में जिम्मेदारी, संघर्ष और सफलता के महत्व को उजागर करती है।
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स्वयं को पहचानें:
इस संसार में चौरासी लाख योनियाँ हैं। इनमें भांति-भांति के जीव-जंतु, कीट-पतंग, पशु-पक्षी हैं। इन्हीं में से एक मनुष्य भी है। यह तो निर्विवाद सत्य है कि मनुष्य सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है। मनुष्य-योनि, कर्म-योनि है और बाकी सब भोग-योनियाँ हैं। हमें यह विचार करना होगा कि इस सुर-दुर्लभ मानव-योनि में हमारा जन्म क्यों हुआ? भगवान ने हमारे ऊपर यह विशेष कृपा क्यों की है? हम पूर्व जन्म में जरूर अच्छे कर्म किये होंगे तभी यह मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ है। जब मानव-शरीर प्राप्त हुआ है तो हमें उसी के अनुसार कर्म भी करना होगा ताकि इस जन्म के साथ-साथ हमारा अगला जन्म भी सफल हो सके।
पुनर्जन्म, भाग्य और कर्मफल का संबंध:
भारत में पुनर्जन्म, भाग्य और कर्मफल की अवधारणा बहुत पुरानी है। हिन्दू धर्म के अनुसार, कर्म के आधार पर ही मनुष्य का पुनर्जन्म और भाग्य निर्धारित होते हैं। कर्म का सिद्धांत यह कहता है कि हमारा कोई भी कर्म निष्फल नहीं होता, देर-सबेर उसका फल मिलता ही है। उदाहरण के लिए यदि हम किसी को गाली दें तो बदले में वह भी या तो हमें गाली देगा या थप्पड़ मारेगा। यहाँ हमारे कर्म का फल तो तुरंत मिल गया। लेकिन यदि कुछ उल्टा-सीधा खा-पी लें तो उसका फल कुछ दिन, कुछ सप्ताह, महीने या वर्षों बाद हमारे शरीर में रोग के रूप में मिलता है। ठीक इसी प्रकार हमारे कुछ कर्मों के फल इसी जन्म में मिल जाते हैं जबकि कुछ कर्मों के फल हमें अगले जन्मों में मिलते हैं लेकिन कर्मफल तो अवश्य मिलते हैं और हमें भोगना भी पड़ता है।
मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार ही सुख-दुःख, लाभ-हानि, सफलता-असफलता और उन्नति-अवनति का अनुभव करता है। "जैसा कर्म, वैसा फल" इस विचारधारा का मुख्य आधार है। यह हमें बताता है कि जो भी हम आज कर रहे हैं, उसका परिणाम भविष्य में हमें अवश्य मिलेगा। यह मानव-जीवन कर्म करने के लिए मिला है। यदि हम अपने भाग्य को बदलना चाहते हैं, अच्छा बनाना चाहते हैं तो हमें अच्छे कर्म करने होंगे। हमारे कर्मफल के अनुसार ही हमारे जीवन में अच्छी-बुरी परिस्थितियाँ आती रहती हैं। उसमें किसी का दोष नहीं होता। हमें ईश्वर की सत्ता और कर्म फल के सिद्धांत को सदैव ध्यान में रखना होगा।
पुरुषार्थ-चतुष्टय:
आज, सभी अपने फायदे की बात सोचते हैं। समाज और राष्ट्र-हित तो बहुत दूर की बात है। यदि हम समाज और राष्ट्र-हित के कार्य करें तो खुद का कल्याण तो स्वत: हो जायेगा। जब इस प्रकार की भावना मन में आयेगी तो मनुष्य कभी भी दुखी नहीं होगा। इसके लिये हमें पुरुषार्थ-चतुष्टय का महामंत्र अपनाना होगा। पुरुषार्थ-चतुष्टय का तात्पर्य है कि हमारा पुरुषार्थ, चार बिन्दुओं, धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष पर आधारित होना चाहिए। पहले धर्म, फिर अर्थ, तत्पश्चात् काम और अंत में मोक्ष।
महापुरुषों द्वारा संरक्षित धर्म का महा-वृक्ष सनातन काल से पल्लवित और पुष्पित होता चला आ रहा है। यह "जीयो और जीने दो" के सिद्धांत का पालन करने का संदेश देता है जिससे मानव सुख-शांति पूर्वक जीवनयापन कर सके। धर्म का अर्थ है कर्तव्य। मनुष्य का मनुष्य के प्रति कर्तव्य, पेड़-पौधों व पर्यावरण के प्रति कर्तव्य, समाज और राष्ट्र के प्रति कर्तव्य। पूरी निष्ठा, ईमानदारी एवं नि:स्वार्थ भाव से अपने कर्तव्य का पालन करना ही सच्चा धर्म है। यही मानवधर्म है।
धर्म के बाद दूसरा स्थान अर्थ यानी धन का है। धन के बिना संसार का काम नहीं चल सकता। जीवन की प्रगति का मूल आधार ही धन है। उद्योग-धन्धे, व्यापार, कृषि आदि सभी कार्यों के लिए धन की आवश्यकता होती है। यही नहीं, धार्मिक कार्य और अनुष्ठान भी धन से ही होते हैं। अर्थोपार्जन, मनुष्य का पवित्र कर्तव्य है। धर्म में यह भी बताया जाता है कि हमने प्रकृति से, समाज से जितना लिया है, धनोपार्जन करते हुए उससे कहीं अधिक वापस करने को सदैव तत्पर रहें।
धर्म और अर्थ के बाद काम को स्थान दिया गया है। काम, मनुष्य जीवन की प्राणशक्ति है। यदि मनुष्य में कामना नहीं होगी, लालसा नहीं होगी तो वह मृतप्राय हो जायेगा। प्रगति का चक्र ही रुक जायेगा। कामेच्छा से प्रेरित होकर ही मनुष्य तरह-तरह के आविष्कार करता है। अंत में मोक्ष का स्थान आता है। यह हमें तभी प्राप्त हो सकेगा जब हमारा अर्थ और काम, दोनों ही धर्म के अनुसार संचालित हों। तभी चारों ओर सुख-शांति का साम्राज्य होगा।
लक्ष्य निर्धारित करें:
एक बार भलीभाँति ठोक-बजाकर लक्ष्य निर्धारित कर लें। लक्ष्य जितना ऊंचा होगा, उपलब्धि भी उतनी ही ऊंची होगी। एक बार लक्ष्य के निर्धारित हो जाने पर उसी को फोकस करें और दृढ इच्छा-शक्ति के साथ उस पथ पर बढ़ते चलें। मार्ग में अनेक अड़चनें आयेंगी, भांति-भांति की समस्याएं आयेंगी, पर यदि संकल्प, दृढ़ है तो सारी उलझनें समाप्त हो जायेंगी। असफलताएं आयेंगी लेकिन आप बार-बार प्रयास करते रहें, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाय।
साधना, संयम, स्वाध्याय और सेवा:
अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए, मार्ग में आने वाले अवरोधों पर विजय पाने के लिए, साधना, संयम, स्वाध्याय और सेवा का अभ्यास करें। जिस प्रकार एक सैनिक सतत अभ्यास के द्वारा खुद को युद्ध के लिए हमेशा तैयार रखता है, चाहे युद्ध हो या न हो, उसी प्रकार हमें भी खुद को अपने जीवन-संग्राम के लिए सदैव तैयार रखना चाहिए। स्वयं को इस प्रकार तैयार करने का नाम ही साधना है। संयम के बिना साधना तो संभव ही नहीं है। अपनी इंद्रियों पर कठोर नियंत्रण रखें। साधना और संयम के द्वारा अपने शरीर और मन को समस्याओं का सामना करने हेतु तैयारी में स्वाध्याय बहुत सहायक होता है। प्रेरक और आदर्श साहित्य का अध्ययन हमें अंधकार से प्रकाश की तरफ ले जाता है। साधना, संयम और स्वाध्याय द्वारा अपने व्यक्तित्व का विकास करते हुए सदैव दूसरों की सेवा-भावना मन में रखें। परोपकार को जीवन का मूल उद्देश्य समझें। कमाई का एक अंश निर्बल, निर्धन, दीन-दुखियों की सेवा में लगाएं।
संस्कारवान बनें:
जीवनोत्थान में संस्कार की अहम भूमिका होती है। एक अच्छे संस्कारित, चरित्रवान व्यक्ति के रूप में अपना विकास, आपको स्वयं ही करना है। माता-पिता, शिक्षक और समाज का इसमें मार्गदर्शन तो मिल सकता है परंतु इस राह पर खुद से ही चलना होगा। संयम और साधना के द्वारा अच्छे संस्कारों का अभ्यास करें। समाज में अगर कुछ अच्छा करने जायें तो स्वभावतः विरोध हो सकता है लेकिन उसकी परवाह न करें, उस पर ध्यान न दें। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निर्धारित पथ पर निरंतर आगे बढ़ते रहें। परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, साहस और धैर्य के साथ उनका मुकाबला करें। संस्कारी व्यक्ति की यही पहचान है।
अपनी गलतियों को अनदेखा न करें:
मनुष्य से ही गलतियाँ होती हैं। दूसरों की गलतियों पर हम बहुत जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं और उन्हें दंड देने को भी तत्पर रहते हैं। पर खुद की गलतियों पर परदा डालते हैं। यही कारण है कि हम बार-बार गलतियाँ दोहराते हैं और उसके आदी भी हो जाते हैं। अगर हमें यह पता हो कि गलती करेंगे तो दण्ड मुझे अवश्य मिलेगा तो गलती की संभावना कम हो जायेगी। इसीलिए कोई हमें दण्डित करे या न करे, हमें खुद ही अपनी गलतियों का न्यायाधीश होना चाहिए और कड़ाई के साथ उचित दण्ड का निर्धारण भी करना चाहिए। इसे ही प्रायश्चित कहते हैं। इससे परिवार-समाज में मान बढ़ता है, आत्मसन्तोष होता है और अपराध-बोध से मुक्ति मिलती है।
निष्कर्ष:
"अपने भाग्य का निर्माता हम स्वयं हैं" यह वाक्य हमें जीवन में आत्मनिर्भरता, कर्मशीलता, और आत्म-विश्लेषण की ओर प्रेरित करता है। हमारे कर्म, हमारी सोच, और हमारा दृष्टिकोण ही हमारे जीवन के सबसे बड़े निर्णायक होते हैं। हम अपनी मेहनत, धैर्य, दृढ़ता और सकारात्मक सोच के माध्यम से अपने भाग्य को बदल सकते हैं। अगर हम जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें अपने कर्मों के प्रति सजग रहना होगा और असफलताओं से सीखते हुए अपने लक्ष्य की ओर निरंतर आगे बढ़ना होगा।
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