24 सितंबर 2024

लोभ; सभी परेशानियों की जड़ है।

लोभ का अर्थ है, लालच, लालसा, कामना। अधिकाधिक पदार्थ को प्राप्त करने की कामना को लोभ कहते हैं। बहुत जमा करने और खर्च के समय अनावश्यक कंजूसी को भी लोभ कहा जा सकता है। यह एक भावना है जो मनुष्य के अंदर अधिकाधिक पाने की चाहत पैदा करता है। लोभ एक गहरी मानवीय कमजोरी है। यह एक ऐसी भूख है जो कभी शांत नहीं होती। लोभ, पाप का दूसरा नाम है। धन की लालच में पड़कर इन्सान कोई भी पापकर्म करने से भी नहींं डरता। इसे संक्षेप में कहें तो, "लोभ सभी परेशानियों की जड़ है।

इसका उल्लेख निम्न श्लोक में अच्छे से किया गया है-

लोभमूलानि पापानि संकटानि तथैव च। 

लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति॥ 

अर्थ: लोभ, मनुष्य-जीवन के समस्त पापकर्मों का मूल कारण है। लोभ के कारण ही सभी संकटों का उदय होता है। लोभ के कारण ही एक मनुष्य दुसरे मनुष्य का बैरी हो जाता है और अत्यधिक लोभ के कारण ही विनाश होता है।

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निरंतर कृपणता, कंजूसी और जमा करने के विचार जब मष्तिष्क में आते रहते हैं, तो वे विचार कुछ समय बाद आदत का रूप धारण कर लेते हैं। लोभ की अनवरत विचारधारा जब अवचेतन मन पर असर करती है तो उसका स्वास्थ्य पर बहुत अनिष्टकर प्रभाव पड़ता है। रूपया-पैसा, यथार्थ में भोग की वस्तु है। ज्ञानवान मनुष्य इसे हाथ की मैल बताते हैं। धन का वास्तविक काम उसको उपयोग में लाना है। जैसे पानी, पीने की वस्तु है, उसको पीने में ही आनंद है। पानी को जो अनावश्यक मात्रा में जमा करता है, वह अयोग्य कार्य करता है। जमा किया हुआ पानी कुछ दिन बाद सड़ने लगेगा और चारों ओर दुर्गंध पैदा करेगा। 

जब व्यक्ति को किसी चीज का अत्यधिक लोभ होता है, तो वह उसे हासिल के लिए गलत-सही, हर संभव प्रयास करता है। जब उसके लोभ की पूर्ति नहीं हो पाती तब उसे क्रोध आता है और क्रोध व्यक्ति की बुद्धि का नाश कर देता है जिससे उसकी विचार-शक्ति खत्म होने लगती है और मनुष्य का विनाश प्रारंभ हो जाता है।

लोभी मनुष्य निरंतर धन का ही चिंतन करता है। उसे पैसा अधिक जोड़ने की चिंता बनी रहती है। इस प्रकार वह 'हाथ के मैल' को छुड़ाने की अपेक्षा उसे जमा करने का प्रकृति-विरुद्ध प्रयत्न करता है। इसका असर अवचेतन मन पर होता है। निरंतर संचय करने के, धन जोड़ने के विचारों का प्रवाह चलने के कारण अवचेतन मन पर भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है और वह 'संचय की नीति' को अपना लेता है। फलस्वरूप शरीर में जमा करने की क्रिया अधिक और त्यागने की कम होने लगती है। पेट पर इसका असर तुरंत पड़ता है। दस्त साफ नहीं होता। पेट खुलासा नहीं होगा और कब्ज बढ़ेगा जिससे पेट में जहरीले पदार्थों की उत्पत्ति होती है। यह सभी जानते हैं कि कब्ज, अनेक रोगों की जननी है। पेट का विष, रक्त में सम्मिलित होकर असंख्य रोगों का घर बन जाता है। सड़ा हुआ मल पेट में दूषित वायु पैदा करता है। हृदय की अधिक धड़कन, सिरदर्द, निद्रा की कमी तथा गठिया रोग, अक्सर इसी प्रकार के दूषित विकार से होते हैं। त्वचा के रोमकूप 'संकोच नीति' को अपनाकर पसीना अच्छी तरह बाहर नहीं निकालते और इसी नीति के कारण ही रक्त में मिले हुए विषैले पदार्थ दूर नहीं होते। लोभी व्यक्ति चाहे कितना भी बहुमूल्य भोजन करे या दवावों का सेवन करे, कदापि स्वस्थ न रह सकेगा।  

दूसरी एक और बात सिद्ध हो चुकी है कि लोभी या निपट-कंजूस व्यक्ति के या तो संतान होती ही नहीं या होती है तो मर जाती है। यद्यपि कई बार शारीरिक या अन्य कारणों से से भी संतान नहीं होती परंतु अधिकांश उदाहरण ऐसे ही मिलेंगे जिनमें लोभ के कारण संतान का अभाव होता है। वह सुख के लिए धन नहीं चाहता वरन् सुख को धन पर न्योछावर करता है। उसके लिए तो सबसे अधिक प्रिय-इच्छा धन-संचय करना होता है। यही बात अंतर्मन की गहराइयों में बैठ जाती है। मनोविज्ञान-शास्त्र के अनुसार, मनुष्य के समस्त कार्य, आदतें और सफलता-असफलता, उसके अवचेतन मन के विश्वासों पर अवलंबित हैं। 

हमारी कोई भी इच्छा तब पूर्ण होती है, जब अंत:करण उस बात को गहराई से चाहता है। धनवान लोग केवल बाहरी मन से संतान चाहते हैं, पर वास्तविक उपासना तो धन की करते हैं। वे संतान के लिए धन नहीं चाहते बल्कि धन की रक्षा के लिए संतान रूपी चौकीदार नियुक्त करना चाहते हैं, ताकि उनके मरने के बाद भी उनका धन सुरक्षित रहे। 

श्रृषियों ने जब देखा कि मनोविकार के कारण संतान नहीं होती तो उन्होंने उस भार को हटाने के लिए संतान के इच्छुकों को त्याग, तप, यज्ञ, दान आदि कर्मों में लगाया तब उन्हें संतान प्राप्त हुई। राजा दिलिप का गौ चराना, दशरथ का यज्ञ करना आदि अनेक ऐसे उदाहरण पाये जाते हैं। इन सबका मनोविज्ञान-अर्थ, उस व्यक्ति का ध्यान लोभ से हटाकर त्याग की ओर प्रवृत्त करना है।

लोभ में एक प्रकार का गोपनीयता का भाव है। लोभी आदमी अपने धन को, धन रखने के स्थान को, धन कमाने की विधि को गुप्त रखने का प्रयत्न करता है। उसे हर क्षण यही चिंता लगी रहती है, "कहीं मेरी यह बातें प्रकट न हो जाएं।" इसीलिए धन संबंधी गोपनीय भावनाओं से इसकी रक्षा का और नष्ट होने का भय बड़े उग्र रूप से बढ़ता है। लोभी का जीवन भय और चिंता से भरा रहता है और यह दोनों बातें आयु को कम करने वाली एवं स्वास्थ्य को नष्ट करने वाली होती हैं। 

वैसे तो अपने धन को कोई लुटा नहीं देता और नहीं सड़क पर फेंक देता है। व्यवस्था की दृष्टि से आपत्ति काल के लिए धन संचय करना और कम खर्च से रहना बहुत अच्छी बात है। धर्मपूर्वक धन कमाना, गौरव की बात है और बुद्धिमानी का लक्षण है। परंतु उस धन को उपयोग की वस्तु न समझकर, उसी में लिप्त हो जाना लोभ है। धन से आवश्यकता की पूर्ति होती है परन्तु जब धन ही आवश्यकता बन जाए तो वह एक प्रकार की प्यास उत्पन्न कर देता है जो कभी तृप्त नहीं होती। मनुष्य की प्रेम शक्ति चारों ओर से खिंचकर पैसे में लग जाती है और तब वह पैसे को ही सर्वोपरि प्रेम करने लगता है।

जब जीवन-स्रोत एक ही तरफ प्रवाहित होता है, स्वभावतः दूसरी ओर नहीं जाता, तब अन्य दिशाओं में प्रगति मंद हो जाती है। धन के द्वारा सुख प्राप्त होता है किन्तु लोग भ्रमवश धन को ही सुख समझ लेते हैं। दर्पण में स्वरूप दिखाई देता है, पर नादान चिंड़िया दर्पण में दिखाई देने वाले स्वरूप को ही वास्तविक समझ लेती है और उसी से लड़ती है‌। फलस्वरूप उसे कष्ट उठाना पड़ता है। लोभी पुरुष न तो शरीर को उचित भोजन दे सकता है और न ही मन को। पेट को जैसे-तैसे अन्न से भरता है और मन को स्वार्थ एवं चिंता से लादे रहता है। जब उन्हें सात्विक आहार नहीं मिलता और राजसी एवं तामसी भार लदा रहता है तो वे व्यथित होकर रोगी रहने लगते हैं। 

कहते हैं कि धन में बहुत गर्मी होती है, बहुत आकर्षण होता है। धन की यही आकर्षण-शक्ति मन को अपनी ओर खिंचती है। अतः जो जितना धनी होता है, उतना ही लोभी बनता है। इन सब बातों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हुए शास्त्रों में पैसे की अपेक्षा अन्न, वस्त्र, गौ का दान उत्तम बताया गया है एवं अपरिग्रह और संचय न करने को महाव्रतों में स्थान दिया गया है।

लालच की भावना का शरीर पर घातक असर हुए बिना नहीं रह सकता। इसलिए दान या उदारता को उसके निवारण का उपाय बताया गया है। दूसरों से उदारता का व्यवहार करो। अपनी जरूरतों में से कुछ बचाकर दूसरों को दो। यदि अपने ऊपर दस रूपया रोज खर्च हो तो उसमें से एकाध रूपया बचाओ और जरूरतमंदों को बांट दो। तुम देखोगे कि वे एकाध रूपये, लाख गुने होकर लौट रहे हैं। देने के बाद जो हल्कापन या सन्तोष प्राप्त होता है, वह हीरे की अंगुठी भी पहनकर भी प्राप्त नहीं हो सकता। देने की आदत सीखो। तुम्हारे पास जो कुछ हो, रोटी, पैसा, धन, बल, बुद्धि, विद्या वही दूसरों को दो, लेकिन अहंकार और तिरस्कारपूर्वक नहीं; नि:स्वार्थ होकर, आदर के साथ, प्रेमभावना से, अपना कर्तव्य समझकर। जैसी तुम्हारी स्थिति हो वैसा ही दो, पर दो जरूर। देने से बड़ी शांति मिलेगी। लेने वाले के हृदय में से उठी हुई आशीर्वाद की लहरें तुम्हारे मानस-तन्तुओं पर पड़ेंगी और वैसा ही पोषण करेंगी। जब तुम उदार हृदय से त्याग करते हो तो अप्रत्यक्ष रूप से अपने रोगों को भी त्यागते हो। एक बार, एक लड़का जीर्णज्वर से ग्रस्त था, वह रोज डाक्टर के पास दवा मोल लेने जाता। एक दिन उसने एक गरीब स्त्री को भूख से तड़पते देखा। लड़के को बड़ी दया आयी और दवा के सारे पैसे उसने उस स्त्री को दे दिये और बिना दवा लिए ही वापस लौट आया। उस रोज वह संतोष और प्रसन्नता के विचारों से डूबा रहा।। फलस्वरूप उसका कई महीनों का रोग, उसी दिन दूर हो गया। 

सारांश:

लोभ मनुष्य के जीवन का एक ऐसा मानसिक विकार है, जो उसके जीवन के उत्थान में बाधा डालता है। लोभी व्यक्ति आचरण से हीन हो जाता है। वह अपने स्वाभिमान को भुलाकर किसी कामना के वशीभूत होकर चाटुकार बन जाता है। लोभ ऐसा अवगुण है, जिसकी वजह से हमारे दूसरे गुणों का भी महत्व खत्म हो जाता है। लालच की वजह से व्यक्ति कभी भी संतुष्ट नहीं हो पाता है। लोभी, धनवान होते हुए भी हमेशा मन से निर्धन बना रहता है। उसकी असंतुष्टी की वजह से उसके जीवन से सुख-शांति गायब हो जाती है। 

अत्यधिक लोभ, व्यक्ति को अनैतिक अंधविश्वास और दुराचार के रास्ते पर ले जाता है। इससे व्यक्ति के समाजिक रिश्ते खराब होते हैं। लोभ स्ट्रेस, चिंता जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है।अत: कृपणता और अति-संचय का लोभ छोड़कर, यदि त्याग उदारता के भावों को अपने हृदय में स्थान देंगे तो निश्चय ही आपके स्वास्थ्य में असाधारण उन्नति होगी।

सौजन्य: पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित पुस्तक, "स्वस्थ और सुंदर बनने की विद्या"

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