5 नवंबर 2025

भक्त-शिरोमणि महाराज अम्बरीष, जिन्हें ब्रह्मशाप भी स्पर्श तक न कर सका (पौराणिक कथा भाग-३)

भूमिका:

भारतभूमि सदियों से संतों, महात्माओं और भक्तों की कर्मभूमि रही है। यहाँ ऐसे अनेक भक्त हुए जिन्होंने अपनी अटूट श्रद्धा, भक्ति, प्रेम और समर्पण से भगवान को भी अपने वश में कर लिया। उन्हीं में से एक महान भक्त थे — राजा अम्बरीष, जिन्होंने सांसारिक वैभव और राजसी सुखों के बीच रहकर भी परमात्मा के प्रति अपनी निष्ठा को कभी डगमगाने नहीं दिया। 

उनकी भगवद्भक्ति उच्च कोटि की थी। वही ब्रह्मशाप जो किसी भी काल में कभी भी और कहीं भी रोका नहीं जा सका, वह भी महाराज अम्बरीष का स्पर्श तक न कर सका।

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महाराज अम्बरीष की पावन-कथा श्रीमद्भागवत पुराण में नवम स्कन्ध के चौथे अध्याय में वर्णित है। यह कथा श्रीशुकदेवजी ने महाराज परीक्षित को सुनाई थी। इस कथा से हमें यह सीख मिलती है कि सच्ची भक्ति केवल पूजा नहीं, बल्कि पूर्ण-समर्पण, विनम्रता और सत्य-आचरण का नाम है।

🕉️राजा अम्बरीष कौन थे? 

महाराज अम्बरीष प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा और भगवान श्रीराम के वंशज थे। उनका जन्म इक्ष्वाकु वंश में हुआ था। वे महाराज नाभाग के पुत्र थे। राजा अम्बरीष का शासनकाल बहुत समृद्ध और शांतिपूर्ण था। उनके राज्य में प्रजा सुखी थी एवं न्याय और धर्म का पालन होता था।

महाराज अम्बरीष केवल एक राजा ही नहीं थे बल्कि वे एक परम वैष्णव-भक्त भी थे। राजा अम्बरीष की पत्नी भी उन्हीं के समान धर्मशील, विरक्त और भक्ति परायण थीं। अम्बरीष के जीवन का एकमात्र उद्देश्य था, "भगवान विष्णु की भक्ति करना और उनके आदेशानुसार प्रजा का कल्याण करना।" 

🌸 अम्बरीष की भक्ति का स्वरूप:

राजा अम्बरीष का हृदय भगवान विष्णु के चरणों में सदा लीन रहता था। वे नवधा-भक्ति (१. श्रवण २. कीर्तन ३. स्मरण ४. पादसेवन ५. अर्चन ६. वन्दन ७. दास्य ८. साख्य और ९. आत्मनिवेदन) के सभी अंगों का पालन करते थे। उनकी यह भक्ति केवल दिखावे की नहीं थी बल्कि पूर्ण समर्पण और विनम्रता पर आधारित थी। वे मानते थे कि “ एक राजा का कर्तव्य है कि वह अपने कर्मों से प्रजा और ईश्वर, दोनों का ऋण चुकाए।”

🍃 एक आदर्श राजा की छवि:

अम्बरीष पृथ्वी के सातों-द्वीपों के स्वामी होते हुए भी वे नि:स्पृह, सादगी और अनुशासन में विश्वास रखते थे। उन्होंने संपूर्ण राजवैभव को भगवान की सेवा में समर्पित कर दिया था।

राजा प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर गायत्री-मंत्र का जप करते, फिर ब्राह्मणों की सेवा, दान, यज्ञ और पूजा करते। वे अपने जीवन के हर कार्य को ईश्वर की प्रेरणा से करते थे। उनका मानना था कि, “जो कुछ भी मेरे पास है, वह भगवान का है। मैं तो केवल उनका सेवक हूँ।”

🌿 एकादशी-व्रत का पालन और उसकी महिमा:

महाराज अम्बरीष, भगवान विष्णु के परम भक्त थे और वे हर एकादशी-व्रत को अत्यंत श्रद्धा से करते थे। एक बार उन्होंने अपनी पत्नी के साथ वर्षभर का द्वादशी-प्रधान, एकादशी व्रत का नियम ग्रहण किया। हमारे शास्त्रों में इस व्रत का फल अत्यंत प्रभावशाली माना गया है। 

इस व्रत के अनुसार राजा ने एक वर्ष तक हर एकादशी का उपवास किया और द्वादशी को विधिपूर्वक भगवान की पूजा करके पारण किया। उन्होंने न केवल स्वयं उपवास किया बल्कि प्रजा को भी धर्ममार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। उनका यह संकल्प था कि “जब तक मेरे राज्य में कोई भूखा या दुखी रहेगा, मैं सुख से भोजन नहीं करूँगा।”

दुर्वासा ऋषि का आगमन:

एक बार जब महाराज अम्बरीष एकादशी उपवास कर रहे थे और द्वादशी के दिन उसका पारण करने वाले थे, तभी दुर्वासा ऋषि उनके महल में आए। राजा ने ऋषि का स्वागत किया और आग्रह किया कि वे पहले भोजन करें, फिर वे स्वयं व्रत खोलेंगे।

दुर्वासा ऋषि ने कहा, “राजन! मैं पहले यमुना स्नान करके आता हूँ, उसके बाद भोजन करूंगा।” राजा ने सहर्ष स्वीकार की। परंतु भगवान की इच्छा तो कुछ और ही थी।

द्वादशी का समय धीरे-धीरे बीत रहा था। यदि उस मुहूर्त में व्रत का पारण न किया जाए तो व्रत का फल नष्ट हो जाता है। राजा बहुत चिंतित हो गए और विचार किया, “यदि ऋषि के बिना मैं पारण करूँ तो उनका अपमान होगा, और यदि पारण का समय निकल गया तो व्रत भंग होगा।”

अंत में उन्होंने अपने राजगुरु और धर्माचार्यों से सलाह ली। उन्होंने कहा, “राजन! द्वादशी का समय निकले उससे पहले केवल जल ग्रहण कर लें। इससे व्रत भी पूरा होगा और वह भोजन नहीं माना जाएगा।” अत: राजा ने भगवान का स्मरण करते हुए थोड़ी मात्रा में जल ग्रहण किया और दुर्वासा श्रृषि का इंतजार करने लगे।

🔥 दुर्वासा ऋषि का राजा अम्बरीष पर क्रोध करना:

इधर दुर्वासा ऋषि जब स्नान करके लौटे, तो उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से जान लिये कि अम्बरीष ने उनके आने से पहले ही जल ग्रहण कर लिया है। वे अत्यंत क्रोधित हुए और बोले, "देखो तो सही यह कितना क्रूर और अभिमानी है। इसने अतिथि-सत्कार के लिए मुझे आमंत्रित किया और मुझे खिलाये बिना ही स्वयं खा लिया है। अच्छा! अब देख, "तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ।"

यह कहकर उन्होंने अपनी जटा से कृत्या नामकी एक भयानक राक्षसी उत्पन्न की और उसे अम्बरीष को भस्म करने का आदेश दिया। राजा अम्बरीष कृत्या को सामने देखकर तनिक भी विचलित नहीं हुये।

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🛡️ सुदर्शन-चक्र के द्वारा राजा अम्बरीष की रक्षा:

कहते हैं कि, "अपने भक्तों की रक्षा तो भगवान स्वयं करते हैं।" इसीलिए तो भगवान् अपने भक्त की रक्षा हेतु पहले से ही सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर रखा था। 

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जैसे ही राक्षसी कृत्या अम्बरीष की ओर बढ़ी, भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र वहाँ तुरंत प्रकट हुआ और उसने उस कृत्त्या को तत्क्षण भस्म कर दिया। फिर वह सुदर्शन चक्र दुर्वासा ऋषि की ओर दौड़ा। ऋषि भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। आत्मरक्षा हेतु वे पहले पृथ्वी पर, फिर देवलोक, ब्रह्मलोक, और फिर शिवलोक गये। लेकिन सभी ने सुदर्शन चक्र से उनकी रक्षा करने से मना कर दिया और विष्णु भगवान की शरण में जाने को कहा। तब वे भगवान विष्णु के शरण में पहुँचे और सुदर्शन चक्र से अपनी रक्षा की उनसे गुहार लगाई। 

🙏 दुर्वासा ऋषि का अपने कृत्य पर पश्चाताप: 

तब भगवान विष्णु ने मुस्कुराकर कहा, “ऋषिवर! मैं सदा अपने भक्तों के वश में रहता हूँ। जिसने मेरे भक्त को अपमानित किया यह समझो कि उसने मुझे ही अपमानित किया। मेरी शक्ति मेरे भक्तों में ही निहित है। अब आपकी रक्षा केवल भक्त अम्बरीष ही कर सकते हैं।”

दुर्वासा ऋषि यह सुनकर अत्यंत लज्जित हुए और तुरंत पृथ्वी पर लौट आए। वे अम्बरीष के पैर पकड़कर गिड़गिड़ाने लगे, “राजन, मुझे क्षमा करें। मैं आपकी भक्ति और विनम्रता की परीक्षा में असफल हो गया।”

🌷 महाराज अम्बरीष की क्षमाशीलता:

महाराज अम्बरीष ने हाथ जोड़कर श्रृषि दुर्वासा से कहा, “हे ऋषिवर! आप मेरे अतिथि हैं इसलिए आपका अपमान मैं कैसे कर सकता हूँ? आप मुझ पर कृपा करें।” उन्होंने भगवान से प्रार्थना की, “हे भक्तवत्सल! हे करुणानिधान! कृपया अपने सुदर्शन चक्र को शांत कर दें और मेरे अतिथि को शांति प्रदान करें।” उनकी यह प्रार्थना सुनकर सुदर्शन चक्र शांत हो गया और इस तरह दुर्वासा ऋषि को भी मानसिक शांति मिली। 

आप सभी को यह जानकर आश्चर्य होगा कि दुर्वासाजी, सुदर्शन-चक्र से अपनी जान बचाने के लिए जिस समय भागे थे, तबसे उनके वापस लौटने तक राजा अम्बरीष ने खुद भी भोजन नहीं किया था। वे उनके लौटने की प्रतिक्षा कर रहे थे। जब ऋषि लौटे, तब राजा ने चरण पकड़ लिए और उन्हें प्रसन्न करके पहले उन्हें भोजन कराया और फिर स्वयं भोजन ग्रहण किया। यह देखकर सभी देवता और ऋषिगण महाराज अम्बरीष की सत्यनिष्ठा, भक्ति और क्षमाशीलता से अत्यंत प्रभावित हो गए।

🌻 भक्ति का असली अर्थ:

महाराज अम्बरीष की कथा हमें यह सिखाती है कि भक्ति केवल पूजा या व्रत का पालन नहीं, बल्कि विनम्रता, क्षमा और दूसरों के प्रति करुणा का भाव है। भगवान केवल उसी की भक्ति को स्वीकार करते हैं, जो व्यक्ति-

  • मन से निर्मल हो। 
  • नि:स्पृह हो और क्षमाशील हो। 
  • ईश्वर के प्रति सच्चा समर्पण का भाव रखता हो।

महाराज अम्बरीष ने यह सिद्ध कर दिया कि सच्चा भक्त कभी किसी का अहित नहीं चाहता, भले ही उसे कितना भी अपमान या संकट क्यों न झेलना पड़े।

🌺 राजा अम्बरीष का जीवन-संदेश:

राजा अम्बरीष का जीवन हमें यह सिखाता है कि —

  • धर्म और भक्ति में कभी समझौता न करें।
  • अहंकार नहीं, विनम्रता ही ईश्वर को प्रिय है।
  • क्षमा सबसे बड़ा धर्म है। 
  • सच्चा उपवास केवल शरीर का नहीं, मन का भी होना चाहिए। 
  • ईश्वर की भक्ति के साथ-साथ कर्म और सेवा भी आवश्यक है।

🌿 आधुनिक जीवन में अम्बरीष की प्रेरणा:

आज के समय में जब लोग तनाव, प्रतिस्पर्धा और स्वार्थ में उलझे हैं, तब महाराज अम्बरीष की यह पवित्र-कथा हमें एक सरल मार्ग दिखाती है। अर्थात् “भक्ति का अर्थ केवल मंदिर जाना नहीं, बल्कि हर कार्य में ईश्वर का स्मरण और दूसरों के प्रति दयाभाव रखना है।"

अगर हम अपने जीवन में भी थोड़ा महाराज अम्बरीष जैसी निष्ठा और धैर्य ला सकें, तो हमारे जीवन के सारे संकट मिट सकते हैं।

💫 निष्कर्ष:

महाराज अम्बरीष केवल एक राजा नहीं, बल्कि भक्ति के प्रतीक, क्षमा के दूत और समर्पण के उदाहरण हैं। उनकी पावन-कथा हमें यह सिखाती है कि भगवान अपने भक्त की रक्षा हर परिस्थिति में करते हैं। बशर्ते! वह भक्त, सच्चे मन से उनका नाम ले और धर्म का पालन करे। इसलिए कहा गया है, “भक्त की पीड़ा भगवान सह नहीं पाते।”

महाराज अम्बरीष ने अपने जीवन से यह सिद्ध कर दिया कि राजसी वैभव में रहते हुए भी भक्ति संभव है, यदि मन में ईश्वर के प्रति सच्ची निष्ठा, समर्पण और विनम्रता हो।

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