3 दिसंबर 2025

सत्य की महिमा (रोचक कहानी)

भूमिका:

सत्य वह प्रकाश है, जो अंधकारमय परिस्थितियों में भी मार्ग दिखा देता है। इंसान के जीवन में सत्य का महत्व केवल नैतिकता तक सीमित नहीं, बल्कि उसके चरित्र, उसकी पहचान और उसके भविष्य को भी निर्धारित करता है। अनेक बार परिस्थितियाँ कठिन होती हैं, अवसर हमारी दृढ़ता को परखते हैं और झूठ का सहारा लेना आसान लगने लगता है—लेकिन अंततः जीत हमेशा सत्य की ही होती है।

"सत्य की महिमा" नामक रोचक कहानी के माध्यम से हम जानेंगे कि सत्यपथ के अनुगामी की राह में थोड़े समय के लिए मुश्किलें आ सकती हैं पर अंत में  धन, यश और विजय उसी के हिस्से में आती है। 

कहानी:

प्राचीन काल में एक सत्यवादी धर्मात्मा राजा थे। उनके नगर में कोई भी साधारण मनुष्य बिक्री करने के लिए बाजार में अन्न, वस्त्र आदि कोई भी वस्तु लाता और वह वस्तु यदि सायंकाल तक नहीं बिकती तो उसे राजा खरीद लिया करते थे। राजा की यह प्रतिज्ञा लोकहित के लिए थी। अत: सायंकाल होते ही राजा के सेवक शहर में भ्रमण करते और किसी को कोई भी वस्तु लिये बैठे देखते तो वे उससे पूछकर और उसके संतोष के अनुसार कीमत देकर उस वस्तु को खरीद लेते थे। 

एक दिन की बात है, स्वयं धर्मराज ब्राह्मण का वेष धारण करके घर की टूटी-फूटी व्यर्थ की चीजें जो बाहर फेंकने योग्य कूड़ा-करकट थीं, एक पेटी में भरकर उन सत्यवादी धर्मात्मा राजा की परीक्षा करने के लिए उनके नगर में आये और बिक्री के लिए बाजार में बैठ गये, किन्तु कूड़ा करकट भला कौन लेता? जब सायंकाल हुआ तब राजा के सेवक नगर में सदा की भांति घूमने लगे। नगर में बेंचने के लिए लोग जो वस्तुएँ लाये थे, वे सब बिक चुकी थीं। केवल ये ब्राह्मण अपनी पेटी लिये बैठे थे। राजसेवकों ने उनके पास जाकर पूछा, "क्या आपकी वस्तु नहीं बिकी?" उन्होंने ने उत्तर दिया, "नहीं"। राजसेवक पुनः पूछा कि आप इस पेटी में बेंचने के लिए कौन सी चीज लाये हैं? और उसका मूल्य क्या है? ब्राह्मण ने कहा- " इसमें दारिद्र्य (कूड़ा-करकट) भरा हुआ है और इसका मूल्य एक हजार रुपये है।" यह सुनकर राजसेवक हंसे और उन्होंने कहा, "इस कूड़ा-करकट को कौन लेगा, जिसका मूल्य एक पैसा भी नहीं है?" ब्राह्मण ने कहा, "यदि कोई नहीं लेगा तो मैं इसे वापस अपने घर ले जाऊंगा। तब राजसेवकों ने तुरंत राजा के पास जाकर इस बात की सूचना दी। इस पर राजा ने कहा, "उन्हें उनकी वस्तु वापस मत ले जाने दो और मोलतोल करके किन्तु उन्हें संतोष कराकर वस्तु खरीद लो।" 

राजसेवकों ने आकर ब्राह्मण से उस टोकरी में रखे वस्तु का मूल्य दो सौ रूपये कहा किन्तु ब्राह्मण ने एक हजार रुपये में से एक पैसा भी कम लेना स्वीकार नहीं किया। फिर राजसेवकों ने पांच सौ रूपये देने को कहा किन्तु ब्राह्मण ने इन्कार कर दिया। तब राजसेवकों में से कुछ व्यक्ति उत्तेजित होकर राजा के पास गये और बोले, "ब्राह्मण की पेटी में दारिद्र्य (कूड़ा-करकट) भरा हुआ है। एक पैसे की भी चीज नहीं है और पांच सौ रूपये देने पर भी वे नहीं दे रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में आपको उनकी चीज नहीं खरीदनी चाहिए।" राजा ने कहा, "नहीं, हमारी सत्य प्रतिज्ञा है और हम सत्य का त्याग नहीं कर सकेंगे। इसलिए वो जो मांगें, मूल्य देकर खरीद लो।" यह सुनकर एवं राजा के आग्रह को देखकर राजसेवक खूब हंसे और वापस लौट आये। उन्होंने निरुपाय होकर ब्राह्मण को एक हजार रुपये दे दिये और उनकी पेटी ले ली। ब्राह्मण रूपये लेकर चले गए और राजसेवक पेटी राजा के पास ले आये। राजा ने उस दारिद्र्य से भरी पेटी को राजमहल में रखवा दिया। 

रात्रि में जब शयन का समय हुआ तब राजमहल के द्वार से वस्त्राभूषणों से सुसज्जित एक परम सुन्दरी युवती निकली। राजा बाहर बैठक में बैठे हुए थे। उस स्त्री को देखकर राजा ने पूछा- "देवि आप कौन है? किस कार्य से आयी हैं? और क्यों जा रही हैं? उस स्त्री ने कहा- "मै लक्ष्मी हूँ। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं, इस कारण मैं सदा आपके घर में निवास करती रही हूँ, पर अब तो आपके घर में दारिद्र्य आ गया है। जहाँ दारिद्र्य रहता है वहाँ लक्ष्मी नहीं रहती। इसलिए आज मैं आपके घर से जा रही हूँ। राजा बोले- "जैसी आपकी इच्छा।"

थोड़ी देर बाद राजा ने एक बहुत ही सुंदर युवा पुरुष को राजमहल के दरवाजे से निकलते देखा तो उससे पूछा- "आप कौन हैं? कैसे आये हैं और कहाँ जा रहे हैं?" उस सुंदर पुरुष ने कहा- "मेरा नाम दान है। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं, इस कारण मैं सदा आपके यहाँ निवास करता रहा हूँ। अब जहाँ लक्ष्मी गयी हैं, वहीं मैं जा रहा हूँ; क्योंकि जब लक्ष्मी चली गयी तो आप दान कहाँ से करेंगे? तब राजा बोले- "बहुत अच्छा।"

उसके बाद फिर एक सुंदर पुरुष निकलता दिखाई दिया। राजा ने उससे भी पूछा- "आप कौन हैं? कैसे आये हैं और कहाँ जा रहे हैं?" उसने कहा- "मैं यज्ञ हूँ। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं। अतः मैं सदा आपके घर में निवास करता रहा। अब आपके यहाँ से लक्ष्मी और दान चले गए तो मैं भी वहीं जा रहा हूँ; क्योंकि बिना सम्पत्ति के आप यज्ञ का अनुष्ठान कैसे करेंगे?" राजा बोले- "बहुत अच्छा।"

तदनन्तर फिर एक युवा पुरुष दिखाई दिया। राजा ने पूछा- "आप कौन हैं? कैसे आये हैं और कहाँ जा रहे हैं?" उसने कहा- "मैं यश हूँ। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं, अतः मैं आपके यहाँ सदा से रहता आया हूँ; किन्तु आपके यहाँ से लक्ष्मी, दान और यज्ञ सब चले गए तो उनके बिना आपका यश कैसे रहेगा? इसलिये मैं भी वहीं जा रहा हूँ जहाँ वे गये हैं।" राजा ने कहा- "ठीक है।" 

तत्पश्चात् एक सुंदर पुरुष फिर निकला। उसे देखकर उससे भी राजा ने पूछा- "आप कौन हैं? कैसे आये हैं और कहाँ जा रहे हैं?" उसने कहा- "मैं सत्य हूँ। आप धर्मात्मा हैं, अतः मैं सदा आपके यहाँ रहता आया हूँ; किन्तु अब आपके यहाँ से लक्ष्मी, दान, यज्ञ, यश- सब चले गए तो मैं भी वहीं जा रहा हूँ।" राजा ने कहा-"मैंने आपके लिए ही इन सबका त्याग किया है, आपका तो मैंने कभी त्याग किया ही नहीं, इसलिए आप कैसे जा सकते हैं?" मैंने लोकोपकार के लिए यह सत्य प्रतिज्ञा कर रखी थी कि कोई भी व्यक्ति मेरे नगर में बिक्री करने के लिए कोई वस्तु लेकर आयेगा और सायंकाल तक उसकी वह वस्तु नहीं बिकेगी तो मैं उसे खरीद लूंगा। आज एक ब्राह्मण दारिद्र्य लेकर बिक्री करने आये जो एक पैसे की भी चीज नहीं थी; किन्तु सत्य की रक्षा के लिए ही मैंने विक्रेता को एक हजार रुपये देकर उस दारिद्र्य (कूड़ा-करकट) को खरीद लिया। तब लक्ष्मी ने आकर कहा कि आपके घर में दारिद्र्य का वास हो गया इसलिए मैं नहीं रहूँगी। इसी कारण मेरे यहाँ से लक्ष्मी के साथ-साथ दान, यज्ञ और यश सभी चले गए। ऐसा होने पर भी मैं आपके बल पर डटा हुआ हूँ।" यह सुनकर सत्य ने कहा- "जब मेरे लिए आपने इन सबका त्याग किया है, तब मैं नहीं जाऊँगा।" ऐसा कहकर वह राजमहल में प्रवेश कर गया। 

थोड़ी देर में यश राजा के पास लौटकर आया। राजा ने पूछा- "आप कौन हैं और क्यों आये हैं? " उसने कहा- "मैं वही यश हूँ, आपमें सत्य विराजमान है। चाहे कोई कितना भी यज्ञकर्ता, दानी और लक्ष्मीवान ही क्यों न हो, किन्तु बिना सत्य के वास्तविक कीर्ति नहीं हो सकती। इसलिये जहाँ सत्य है मैं वहीं रहूँगा। राजा बोले- "बहुत अच्छा।"

तदनंतर यज्ञ आया। राजा ने पूछा- "आप कौन हैं और किसलिये आये हैं?" उसने कहा- "मैं वही यज्ञ हूँ, जहाँ सत्य रहता है, वहीं रहता हूँ, चाहे कोई कितना ही दानशील और लक्ष्मीवान क्यों न हो, किन्तु बिना सत्य के यज्ञ शोभा नहीं देता। चूंकि आपमें सत्य है, इसलिए मैं यहीं रहूँगा। राजा बोले- " बहुत अच्छा।"

तत्पश्चात् दान आया। राजा ने उससे भी पूछा- "आप कौन हैं और कैसे आये हैं?" उसने कहा- "मैं वही दान हूँ। आपमें सत्य विराजमान है और जहाँ सत्य रहता है, वहीं मैं रहता हूँ; क्योंकि कोई भी कोई कितना ही लक्ष्मीवान क्यों न हो, बिना सद्भाव के दान निष्फल हो जाता है। आपके यहाँ सत्य है, इसलिए मैं यहीं रहूँगा।" राजा बोले- "बहुत अच्छा।"

इसके अनन्तर लक्ष्मी आयी। राजा ने उससे भी पूछा- "आप कौन हैं और क्यों आयी हैं?" उसने कहा- "मैं वही लक्ष्मी हूँ। आपके यहाँ सत्य विराजमान है। आपके यहाँ यश, यज्ञ, दान भी लौट आये हैं। इसलिए मैं भी लौट आयी हूँ।" राजा बोले- "देवि यहाँ तो दारिद्र्य भरा हुआ है, आप भला यहाँ कैसे निवास करेंगी?" लक्ष्मी ने कहा- "राजन! चाहे कुछ भी हो मैं सत्य को छोड़कर नहीं रह सकती।" राजा बोले- "जैसी आपकी इच्छा।"

तदनंतर वहाँ स्वयं धर्मराज उसी ब्राह्मण के रूप में आये। राजा ने पूछा- "आप कौन हैं और कैसे आये हैं?" धर्मराज बोले- "मैं साक्षात् धर्म हूँ, मैं ही ब्राह्मण का रूप धारण करके एक हजार रुपये में आपको दारिद्र्य दे गया था। आपने सत्य के बल से मुझ धर्म को जीत लिया। 

मैं आपको वर देने आया हूँ, बतलाइये, मैं आपका कौन सा अभीष्ट कार्य करूँ?" राजा ने कहा- "आपकी कृपा ही मेरे लिए बहुत है, और कुछ नहीं चाहिए।"

कहानी का सार:

इस दृष्टांत से यह सिद्ध हो गया कि जहाँ सत्य है, वहाँ सब कुछ है। वहाँ कभी सम्पत्ति, दान, यज्ञ, यश की कभी कमी हो भी जाये तो मनुष्य को घबराना नहीं चाहिए। यदि सत्य कायम रहेगा तो ये सभी देर-सबेर स्वत: आकर विराजमान हो जायेंगे।

किसी कवि की यह कथन बहुत प्रसिद्ध है- वंदा सत् नहिं छांड़िए, सत छांड़े पत जाय। सत की बांधी लक्ष्मी, फेरि मिलैगी आय।। 

कहानी का स्रोत: ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय श्री जयदयाल गोयंदका जी द्वारा लिखित पुस्तक, "उपदेशप्रद कहानियाँ"

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