14 दिसंबर 2025

बुजुर्गों की आज दयनीय दशा: जिम्मेदार कौन?

भारत में वृद्धजनों को आदर एवं सम्मान की दृष्टि से देखा जाता रहा है। हिन्दू संस्कृति में माता-पिता और गुरु का स्थान श्रेष्ठ और पूज्यनीय बताया गया है। पहले संयुक्त परिवार में माता-पिता और बड़े-बुजुर्गों का आदर और सम्मान होता था। परिवार में उनकी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती थी। महत्वपूर्ण मसलों पर उनसे सलाह-मशविरा किया जाता था। 

आज के आधुनिक और तेजी से बदलते दौर में जहाँ तकनीक, शिक्षा तथा अवसरों का तेजी से विस्तार हुआ है। वहीं संयुक्त परिवार विघटित होकर एकल परिवार में तब्दील हो गया और समाज का एक बड़ा वर्ग—"बुजुर्ग"—दिन-प्रतिदिन उपेक्षा, अकेलेपन और असहाय की स्थिति का सामना कर रहा है। बुजुर्गों को जब सहारे की नितांत आवश्यकता होती है, तो आज का प्रगतिशील समाज उन्हें बोझ समझने लगता है और बेसहारा छोड़ देता है। 

यह स्थिति कोई एक दिन में नहीं बनी, बल्कि समय के साथ कई कारणों ने मिलकर इसे और गंभीर बना दिया। अब सवाल ये है कि बुजुर्गों की इस दयनीय दशा के लिए जिम्मेदार कौन? परिवार, समाज, या फिर व्यवस्था? 

यह ब्लॉग इसी संवेदनशील मुद्दे को सरल भाषा में समझाता है और व्यवहारिक समाधानों की ओर भी संकेत करता है।

१. बुजुर्गों की दयनीय दशा—समस्या कितनी गहरी है?

  • आज भारत में बुजुर्गों का प्रतिशत तेजी से बढ़ रहा है।
  • जीवन-प्रत्याशा बढ़ने से लोग अधिक उम्र तक जी रहे हैं, पर जीवन की गुणवत्ता घट रही है।
  • सम्मान, प्यार और सुरक्षा कम होती जा रही है।

कुछ समस्याओं ने मिलकर आज बहुत गंभीर स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें बुजुर्ग अपने ही घर में पराये और समाज में बोझ जैसे महसूस करते हैं। जैसे-

  • परिवार में उपेक्षा, प्रेम और सम्मान की कमी
  • आर्थिक असुरक्षा
  • अकेलापन और मानसिक तनाव
  • स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी सीमित पहुँच
  • सामाजिक तिरस्कार
  • सरकारी योजनाओं का वास्तविक लाभ न मिल पाना

२. बुजुर्गों में बढ़ता मानसिक तनाव और अकेलापन

अकेलापन आज बुजुर्गों की सबसे बड़ी समस्या बन चुका है। वे अपने ही घर-परिवार में अकेले हो जाते हैं, क्योंकि-

  • कोई उनसे बात करने वाला नहीं होता।
  • सब अपने-आप में व्यस्त रहते हैं। 
  • मोबाइल और टीवी के बीच बुजुर्गों के लिए कोई जगह नहीं। 
  • सामाजिक मेलजोल घट गया। 
  • रिश्तेदारों में परवाह कम। 

३. बुजुर्गों की दयनीय दशा का जिम्मेदार कौन? 

तो आइए हम इस सवाल को कुछ प्रमुख हिस्सों में समझते हैं।

(अ) परिवार— जो हर बुजुर्ग की सुरक्षा और मानसिक शांति की पहली जगह होता है, लेकिन आज कई परिवारों में-

  • बुजुर्गों की जरूरतें नजरअंदाज की जाती हैं। 
  • उनके अनुभवों को महत्व नहीं दिया जाता। 
  • उनकी राय को पारिवारिक हस्तक्षेप माना जाता है। 
  • निर्णय लेने का अधिकार छिन जाता है। 
  • उनसे कोई बातचीत नहीं करता है, वे अकेलेपन में जीते हैं। 
  • बुजुर्गों के प्रति संवेदनशीलता कम हुई है।
  • कई पैसे वाले घरों में बुजुर्ग केयर-टेकर के भरोसे हैं। 

(ब) समाज— जहाँ बुजुर्ग ‘बोझ’ की तरह देखा जाने लगा है।  बुजुर्ग समाज की रीढ़ होते हैं और अनुभव के खजाने। लेकिन आधुनिकता की अंधी दौड़ में समाज उनके योगदान को भूलता जा रहा है। समाज अक्सर युवाओं की सफलता का जश्न तो मनाता है लेकिन बुजुर्गों के आजीवन संघर्ष पर चुप्पी साध लेता है। आज समाज में एक खतरनाक सोच फैल रही है कि बुजुर्ग-

  • पुराने विचारों वाले होते हैं। 
  • आधुनिकता को समझ नहीं पाते। 
  • प्रगति में बाधक होते हैं। 
  • आर्थिक रूप से किसी काम के नहीं होते। 

(स) व्यवस्था— सरकार और व्यवस्था की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। बुजुर्गों के लिए कई योजनाएँ हैं, लेकिन वहाँ-

  • सबको जानकारी नहीं होती। 
  • भ्रष्टाचार भी बहुत है। 
  • प्रक्रियाओं की जटिलता होती है।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों का अभाव।      
  • पेंशन का इंतजाम नहीं। 
  • स्वास्थ्य बीमा नहीं। 
  • आधारभूत सेवाओं की कमी। 
(द) आर्थिक कारण 
  • महंगाई बढ़ रही है। 
  • स्वास्थ्य-खर्च, मेडिकल बिल बहुत तेजी से बढ़ रहा है। 
  • परिवार पर निर्भरता बढ़ रही है। 
  • आर्थिक असुरक्षा, बुजुर्गों को और कमजोर बनाती है। 
(य) बुजुर्गों की भूमिका 
  • नई पीढ़ी के युवाओं के साथ तालमेल न बना पाना। 
  • पुराने सोच-विचार और कार्यशैली को ही श्रेष्ठ मानना। 
  • परंपरागत हठधर्मिता को न छोड़ पाना। 

४. बदलती जीवनशैली और आधुनिकता का प्रभाव

पहले संयुक्त परिवार थे, एकसाथ रहने का अपना एक मूल्य था, लेकिन आज एकल परिवार में-

  • मोबाइल पर समय है पर बुजुर्गों के लिए १० मिनट नहीं।
  • करियर प्राथमिकता है, रिश्तों के लिए जगह कम। 
  • नौकरी के लिए बच्चों और युवाओं का बड़े शहरों और विदेशों में पलायन। 
  • भौतिकवाद बढ़ा पर सामाजिक जुड़ाव कम हुआ। 
  • तनाव और व्यस्तता ने संवेदनाएं कम कर दीं। 
  • सुविधाएँ बढ़ीं, लेकिन भावनाएँ घट गईं।
  • बुजुर्गों को बोझ और परिवार की निजता में बाधक समझा जाने लगा। 

५. क्या इस समस्या के लिए केवल बच्चों को ही दोष देना उचित है?

बुजुर्गों की दुर्दशा की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ बच्चों पर डालना भी सही नहीं है, क्योंकि-

  • आज नौकरी का दबाव बहुत बड़ा है। 
  • समय की कमी वास्तविक है। 
  • आर्थिक बोझ बढ़ा है। 
  • बच्चों में इस तरह के संस्कार के जिम्मेदार कहीं न कहीं उनके माता-पिता और परिवार भी होते हैं। 
  • मानसिक तनाव युवाओं में भी ज्यादा है। 
  • कई बार बुजुर्ग बदलते माहौल को स्वीकार नहीं कर पाते। 

६. समस्या का समाधान—स्थिति कैसे बदले?

समस्या बड़ी है, लेकिन समाधान भी संभव हैं। यह बदलाव निम्न स्तरों पर होना चाहिए—

(अ) परिवार क्या कर सकता है?

  • बुजुर्गों को समय दें। 
  • उनकी बात सुनें और उचित सम्मान दें। 
  • निर्णय लेने में उनकी भूमिका रखें। 
  • भावनात्मक समर्थन दें। 
  • उनकी जरूरतों और मनोरंजन का ख्याल रखें। 
  • पुरानी और नई पीढ़ी के बीच पुल बनाएं। 
  • उन्हें अकेले में रहने या घर छोड़ने पर विवश न करें। 
  • उन्हें भी डिजिटल दुनियाँ से जोड़ें। 

(ब) समाज क्या कर सकता है?

  • बुजुर्गों के लिए सामुदायिक गतिविधियाँ बढ़ाना। 
  • वरिष्ठ नागरिक क्लब, योग-केंद्र, हेल्थ-कैंप की सुविधा। 
  • उनके अनुभवों को महत्व देना। 
  • उनमें सकारात्मक सोच विकसित करना। 
  • बुजुर्गों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाना। 

(स) सरकार और व्यवस्था की भूमिका: बुजुर्गों के लिए-

  • आसान और सुलभ पेंशन व्यवस्था। 
  • इ. पी. एफ. ओ. की पेंशन-राशि में बढ़ोत्तरी। 
  • स्वास्थ्य-सेवाओं में सुधार और मनोरंजन की सुविधा। 
  • वरिष्ठ नागरिक हेल्पलाइन और केयर-सेंटर। 
  • मुफ्त स्वास्थ्य चेकअप और दवा की योजनाएँ
  • स्कूलों में बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील रहने की शिक्षा-व्यवस्था
  • बुजुर्गों के लिए विशेष डे-केयर सेंटर
  • रिटायर्ड कम्युनिटी
  • परिवारिक कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका
  • सामुदायिक व्यायाम और योग-केन्द्र

(द) बुजुर्गों से अपेक्षित सहयोग

  • परिवर्तन को स्वीकारना 
  • युवा-पीढ़ी को कोसने के बजाय उनका सम्मान करना।
  • बेवजह दखलअंदाजी बंद करना। 
  • जबतक हाथ-पैर चले, चलाते रहना। 
  • धैर्य बनाये रखना।

निष्कर्ष: 

बुजुर्ग, जो अपनी संपूर्ण जिंदगी अपने आश्रितों का भविष्य संवारने में खपा देते हैं। उम्र के जिस पड़ाव में उन्हें सहारे की सबसे अधिक जरूरत होती है, तब उन्हें बेहाल, बेसहारा छोड़ दिया जाता है। आज बुजुर्गों की दयनीय दशा किसी एक की वजह से नहीं हुई— यह परिवार की उपेक्षा, समाज की सोच और व्यवस्था की कमजोरियों— इन सबका मिला-जुला परिणाम है।

👉 बुजुर्ग वह हैं जिनकी वजह से आज हम यहाँ तक पहुँचे हैं।

👉 उन्होंने हमें जीवन, संस्कार, मूल्य और अनुभव दिए।

👉 अब हमारी बारी है कि हम उनके जीवन में खुशियाँ लौटाएँ।

यदि परिवार संवेदनशील हो, समाज उचित सम्मान दे और व्यवस्था सशक्त हो तो बुजुर्गों का जीवन फिर से सम्मानपूर्ण, सुरक्षित और खुशहाल बन सकता है।

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