भारतीय संस्कृति और सभ्यता में संस्कार का विशेष महत्व है। संस्कार का अर्थ है मन, शरीर और आत्मा का शुद्धिकरण और विकास करना। संस्कार एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक के हर महत्वपूर्ण पड़ाव पर सही मार्गदर्शन प्रदान करती है। संस्कार हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों जैसे- शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। संस्कार केवल धार्मिक या पारंपरिक कर्मकांड नहीं होते, बल्कि ये जीवन में नैतिकता, अनुशासन, और आध्यात्मिकता का समावेश करने का माध्यम भी होते हैं।
लोगों से कैसे व्यवहार किया जाता है, यह सीख हमें हमारे संस्कार से ही मिलती है। यदि हम लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं तो लोग खुश होते हैं, उनका नजरिया हमारे प्रति बदल जाता है, हमें सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। उनका हमारे प्रति आदर बढ़ता है और बोलते हैं कि "देखो! ये किसी संस्कारिक घराने से लगता है।" यह सत्य है कि हम जैसा देंगे, वैसा ही पायेंगे और जैसा बोयेंगे, वैसा ही काटेंगे। इसलिए यह आवश्यक है कि हम अपने बच्चों को शिक्षा के साथ-साथ उचित संस्कार अवश्य दें। संस्कारी बच्चे आज्ञाकारी होते हैं और बड़े-बुजुर्गों का उचित सम्मान करते हैं। समाज में संस्कार के अभाव की ही देन है कि आज उच्च शिक्षा प्राप्त बच्चे भी अपने ही परिवार में मस्त रहते हैं और अपने बूढ़े माँ-बाप को जब उन्हें सहारे की नितांत आवश्यकता होती है, बेसहारा छोड़ देते हैं।
भारतीय जीवन-दर्शन में सोलह संस्कारों का वर्णन मिलता है, जो व्यक्ति के जीवन को संवारने और उसे उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करने में सहायक होते हैं। संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति को अशुभ प्रभावों से बचाव, मनोवांछितफल की प्राप्ति और उसका नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान है।
संस्कार की परिभाषा और अर्थ:-
संस्कार:
महर्षि चरक के अनुसार, मनुष्य के दोषों को निकालकर उसमें सद्गुणों का समावेश करने की प्रक्रिया का नाम संस्कार है। संस्कार का मूल अर्थ होता है "परिष्कार करना", "सुधारना" या "शुद्ध करना"। इसका तात्पर्य केवल बाहरी शुद्धिकरण से नहीं है, बल्कि आंतरिक और आत्मिक शुद्धिकरण से भी है। व्यक्ति के विचार, आचरण, और व्यवहार को सुधारने और उसे एक आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देने की प्रक्रिया ही संस्कार कहलाती है। संस्कार व्यक्ति को अनुशासित जीवन जीने के प्रेरणा देते हैं और उसके आंतरिक विकास के माध्यम होते हैं। इनके माध्यम से व्यक्ति के मन, बुद्धि, और आत्मा को परिष्कृत किया जाता है, जिससे वह समाज के प्रति अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को समझ सके।
संस्कारी व्यक्ति:
वह व्यक्ति जिसके आचरण में दूसरों के प्रति सम्मान का भाव हो, जो विनयी हो, माता-पिता और गुरुजनों का आदर करता हो, विद्याभ्यासी हो, गुणवान हो, जो इमानदार हो, दयालु हो, अनुशासित हो, क्षमाशील और धैर्यवान हो, उसे संस्कारी कहा जा सकता है।
संस्कार के प्रकार:- संस्कार निम्नलिखित सोलह प्रकार के होते हैं जो इस तरह हैं-
१. गर्भाधान संस्कार: सबसे पहला संस्कार है गर्भ धारण संस्कार, जिसमें बच्चे की माँ गर्भधारण करती है।
२. पुंसवन संस्कार: गर्भ धारण करने के ३ महीने बाद जब शिशु की संरचना का निर्माण शुरू हो जाता है तब माता-पिता, बच्चे के अच्छे जीवन के लिए वैदिक-मंत्रों से इस संस्कार को करते है।
३. सीमन्तोन्नयन संस्कार: यह गर्भ-काल के छठवें महीने में किया जाता है। चूंकि गर्भ के छठवें महीने से अठावें महीने के बीच में गर्भपात की संभावना ज्यादा रहती है, इसीलिए यह संस्कार किया जाता है। यह संस्कार, गर्भस्थ शिशु और उसकी माँ की रक्षा के लिए किया जाता है।
४. जातकर्म संस्कार: यह शिशु के जन्म के दौरान किया जाता है। इस संस्कार में शिशु के पिता उसे घी या शहद को अपनी उंगली से उसके मुंह में डालते हैं।
५. नामकरण संस्कार: इस संस्कार में शिशु का उसकी जन्म-कुंडली के आधार पर नाम रखा जाता है।
६. निष्क्रमण संस्कार: जब शिशु ४ से ६ महीने का हो जाता है तब यह संस्कार किया जाता है। इसमें उसे घर से बाहर ले जाकर सूर्य-चंद्रमा के प्रभाव में ले जाया जाता है।
७. अन्नप्राशन संस्कार: अन्नप्राशन संस्कार में जब शिशु ६ महीने का हो जाता है तो उसे अन्न खिलाया जाता है।
८. मुंडन संस्कार: इस संस्कार के नाम के अनुसार इसमें शिशु का मुंडन किया जाता है।
९. विद्यारंभ संस्कार: शिशु को इस संस्कार में गुरुकुल (स्कूल) में पढ़ने के लिए भेजा जाता है।
१०. कर्णवेध संस्कार: दसवां संस्कार कर्णवेध संस्कार है जिसे कर्ण-छेदन संस्कार भी कहा जाता है जिसमें कान छेदा जाता है। इससे व्याधियाँ दूर होती हैं, समझने की शक्ति बढ़ती है और कर्णाभूषण धारण किया जा सकता है।
११. यज्ञोपवीत संस्कार: यज्ञोपवीत संस्कार को उपनयन संस्कार भी कहते है. इस संस्कार में जनेऊ धारण किया जाता है।
१२. वेदारम्भ संस्कार: वेदारम्भ संस्कार में बालक, वेदों और उपनिषदों की पढ़ाई करते हैं।
१३. केशान्त संस्कार: इस संस्कार के अनुसार, प्राचीन समय में गुरुकुल में पढ़ने वाले बालक अपनी शिक्षा पूरी होने के बाद अपने केशों को त्याग देते थे।
१४. समावर्तन संस्कार: समावर्तन संस्कार का मतलब बालक का शिक्षा पूरी होने के उपरांत गुरुकुल से विदाई लेकर सामाजिक जीवन में प्रवेश करना तत्पश्चात् अपने सामाजिक जीवन को जीना है।
१५. विवाह संस्कार: इस संस्कार में व्यक्ति, विवाह करके अपने वैवाहिक जीवन को जीता है।
१६. अन्त्येष्टि संस्कार: यह अंतिम संस्कार है जिसमें व्यक्ति का मरणोपरांत दाह-संस्कार होता है।
संस्कार का जीवन में महत्व:-
संस्कारों के समय की जाने वाली धार्मिक क्रियाएँ व्यक्ति को इस बात की अनुभूति कराती थीं कि अब उसके ऊपर कुछ नई जिम्मेदारियाँ आ रहीं हैं, जिन्हें पूरा करके ही वह समाज और अपनी उन्नति कर सकता है। इस प्रकार, संस्कार पूर्वजन्म के दोषों को दूर करते थे, गुणों का विकास करने में सहायक होते थे तथा व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करके व्यक्ति और समाज दोनों की उन्नति में सहायक भी होते थे। इसलिए प्राचीन भारत में संस्कारों का विशेष महत्व था।
व्यक्तित्व विकास:
संस्कार, व्यक्तित्व को निखारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी महत्वपूर्ण पड़ावों पर किए जाने वाले संस्कार, व्यक्ति के आचरण और व्यवहार को सही दिशा प्रदान करते हैं। संस्कार व्यक्ति के भीतर नैतिकता, अनुशासन, और संवेदनशीलता का विकास करते हैं, जिससे उसका व्यक्तित्व परिपक्व और संतुलित होता है।
नैतिक और सामाजिक मूल्य:
संस्कार, व्यक्ति को नैतिकता और समाज के प्रति उत्तरदायित्व का बोध कराते हैं। ये संस्कार व्यक्ति में सत्य, अहिंसा, दया, और ईमानदारी जैसे गुणों का विकास करते हैं। एक संस्कारित व्यक्ति समाज में अपनी भूमिका और जिम्मेदारियों को बेहतर ढंग से निभा सकता है। संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति अपने सामाजिक और पारिवारिक दायित्वों को सही ढंग से समझता और निभाता है, जिससे समाज में सद्भाव और शांति बनी रहती है।
धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति:
संस्कार, धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। धार्मिक अनुष्ठानों और संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति ईश्वर के प्रति अपनी आस्था और भक्ति को प्रकट करता है। ये संस्कार व्यक्ति के आत्मिक विकास में सहायक होते हैं, जिससे वह अपने जीवन को गहरे आध्यात्मिक अनुभवों से समृद्ध कर सकता है।
परिवार और समाज में एकता:
संस्कार परिवार और समाज में एकता और संबंधों को मजबूत करते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार परिवार और समाज के लोगों को एकजुट करते हैं। विवाह संस्कार में दो व्यक्तियों के साथ-साथ दो परिवारों का मिलन होता है। इसी प्रकार, अंत्येष्टि संस्कार में गाँव-समाज, परिचित, रिश्तेदार आदि इकट्ठे होकर मृत-व्यक्ति का दाह संस्कार करते हैं और मृतक के घर-परिवार के लोगों को यह सांत्वना देते हैं कि, "यह संसार, असार है। इसमें एक दिन सबकी यही गति होनी निश्चित है। इसलिए गम को भूलाकर अपने जीवन से संबंधित आवश्यक कर्म करते रहना चाहिए, इत्यादि....।" इस तरह यह संस्कार मृत्यु के बाद व्यक्ति के प्रति समाज और परिवार के अंतिम जिम्मेदारियों को दर्शाता है।
मानसिक और भावनात्मक शांति:
संस्कार, व्यक्ति को मानसिक और भावनात्मक संतुलन प्रदान करते हैं। जीवन के कठिन और मुश्किल समय में, जैसे- मृत्यु या बीमारी के समय, संस्कार व्यक्ति को मानसिक शांति और धैर्य प्रदान करते हैं। संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने और जीवन की कठिनाइयों का सामना करने की शक्ति प्राप्त करता है। धार्मिक और आध्यात्मिक संस्कार, व्यक्ति के मन को तो शांति पहुंचाते ही हैं साथ ही आत्मा को भी शांति प्रदान करते हैं जिससे वह जीवन के तनाव और चिंताओं से उबर सकता है।
सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण:
संस्कार हमारी सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित और आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये संस्कार हमारे पूर्वजों से प्राप्त परंपराओं, रीति-रिवाजों, और आदर्शों को जीवित रखते हैं। संस्कारों के माध्यम से हम अपनी सांस्कृतिक पहचान को सहेजते हैं और उसे अगली पीढ़ी तक पहुँचाते हैं। यह सांस्कृतिक धरोहर हमें अपने समाज, धर्म, और इतिहास से जुड़ने का अवसर देती है।
जीवन के महत्वपूर्ण चरणों का सम्मान:
संस्कार जीवन के महत्वपूर्ण चरणों, जैसे जन्म, विवाह, और मृत्यु, को सही प्रकार से सम्मानित करने का एक माध्यम हैं। ये संस्कार व्यक्ति के जीवन में होने वाले बड़े बदलावों को एक धार्मिक और सांस्कृतिक संदर्भ में मान्यता देते हैं। संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति, जीवन के प्रत्येक मोड़ को सही दृष्टिकोण से देखता है और उसके महत्व को समझता है।
परोपकार-भावना जागृत होना:
संस्कार से परोपकार का भाव जागृत होता है और परोपकार से ही हम समाज से जुड़कर एक दूसरे की भावनाओं को गहराई से समझ पाते हैं।
वर्तमान परिवेश में संस्कार का महत्व:
वर्तमान समय में लोगों के अंदर संस्कारों की महत्ता कम होती जा रही है। संस्कार, आज एक सामाजिक परम्परा मात्र रह गए हैं। उनमें जो गतिशीलता पहले थी, अब वो न रही। उनमें मानव को सुसंस्कृत बनाने की वो शक्ति जो पहले हुआ करती थी, अब न रही। वे दिनचर्या से संबंधित धार्मिक- कृत्य मात्र रह गए हैं। उनका जीवन पर प्रभाव लेशमात्र ही है। अब वैज्ञानिक प्रगति के कारण जीवन की संकल्पना ही बदल गयी है। अब मानव उन अतिमानव शक्तियों में विश्वास नहीं करता, जिनके अशुभ प्रभाव को दूर करने और अच्छे प्रभाव को आकर्षित करने के लिए ये सभी संस्कार किए जाते थे। मनुष्य अब भी यह भली- भांति जानता है कि जीवन एक कला है और उसको सफल बनाने के लिए जीवन को परिष्कार करने की आवश्यकता है। व्यक्ति के संस्कारी होने पर ही घर परिवार और समाज संस्कारी हो सकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वर्तमान काल में भी संस्कारों का अपना-अलग महत्व है। संस्कारों का रुप बदल सकता है, किंतु जीवन को सफल बनाने की दिशा में उनका महत्व कभी कम नहीं हो सकता।
निष्कर्ष:
संस्कार, जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए व्यक्ति के नैतिक, शारीरिक, और आध्यात्मिक विकास में सहायक होते हैं। वे व्यक्ति को एक अनुशासित, जिम्मेदार, और सशक्त जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति, अपने भीतर आत्मिक शांति और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का बोध करता है। ये संस्कार व्यक्ति को जीवन के हर मोड़ पर सही दिशा प्रदान करते हैं ताकि वह एक सफल, संतुलित, और सार्थक जीवन जी सके।
संक्षेप में, संस्कार केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं हैं, बल्कि यह व्यक्ति तथा समाज के जीवन को संवारने और उसे एक आदर्श एवं संतुलित दिशा देने के सशक्त माध्यम हैं।
Source: AI & Google
संबंधित पोस्ट, अवश्य पढ़ें:
*****
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें