21 दिसंबर 2025

शुभचिंतन का प्रभाव (शिक्षाप्रद कहानी)

"शुभचिंतन का प्रभाव" पर आधारित यह कहानी बहुत ही प्रेरक और शिक्षाप्रद कहानी है। यह गीताप्रेस से प्रकाशित पुस्तक, "एक लोटा पानी" से ली गयी है। इस कहानी के माध्यम से मानव-समाज के लिए उच्च कोटि का संदेश दिया गया है । इससे हमें यह सीख मिलती है कि-

"जब हम किसी के प्रति शुभचिंतन या अशुभचिंतन, जिस तरह का भाव रखते हैं तो वह भावना उसके पास जाकर वैसा ही शुभ या अशुभ प्रभाव डालती है।"

कहानी:

बहुत समय पहले सेठ गंगासरन जी काशी में रहते थे। वे भगवान शंकरजी के सच्चे भक्त थे। सोमवती अमावस्या का प्रातःकाल का समय था। मणिकर्णिका घाट पर अनेक नर-नारी, साधु-संन्यासी स्नान कर रहे थे। 'जय गंगे', 'जय शंकर' और 'जय सूर्य देव' के नारे लगाये जा रहे थे। भक्त गंगासरन जी स्नान कर रहे थे। तबतक अलवर के मंदिर से कोई गंगा में कूदा और डूबने लगा। किसी की हिम्मत न पड़ी कि उस डूबने वाले को बचाने की कोशिश करता, क्योंकि डूबने वाला, अपने बचाने वाले को प्रायः इस तरह जकड़ लेता है कि दोनों डूब मरते हैं। परंतु सेठ जी का हृदय करुणा से भर गया। वे तैरना भी जानते थे। वे तुरंत नदी में छलांग लगाये और तेजी से तैरकर डूबने वाले को पकड़ लिए। किनारे लाकर देखा तो वह उन्हीं का मुनीम नंदलाल था। पेट से पानी निकालने के बाद जब नंदलाल को होश में देखा तब भक्त सेठजी ने कहा- 'मुनीम जी, आपको गंगाजी में किसने फेंका था?'

'किसी ने नहीं।'

'तो क्या किसी का धक्का खाकर आप गिरे थे?'

'नहीं तो।'

'फिर क्या बात थी?'

'मैं स्वयं ही आत्महत्या करना चाहता था।'

'वह क्यों?'

'मैंने आपके पांच हजार रुपये सट्टे में बर्बाद कर दिये हैं। मैंने सोचा कि आप मुझे गबन के आरोप में गिरफ्तार कराकर जेल में बंद करा देंगे। अपनी बदनामी से बचने के लिए मैंने मर जाना उत्तम समझा था।'

एक शर्त पर मैं तुम्हारा अपराध क्षमा कर सकता हूँ। 

'वह शर्त क्या है?'

प्रतिज्ञा करो कि आज से किसी प्रकार का कोई जूआ  नहीं खेलोगे, सट्टा नहीं करोगे।

प्रतिज्ञा करता हूँ और शंकर की शपथ लेता हूँ। 

'जाओ माफ किया। वो पांच हजार की रकम मेरे नाम घरेलू खर्च में डाल देना।'

'परंतु अब आप मुझे अपने यहाँ मुनीम नहीं रखेंगे?'

'रखूँगा क्यों नहीं? भूल हो जाना स्वाभाविक है। फिर तुम नवयुवक हो। लोभ में आकर भूल कर बैठे। नंदलाल, मैं तुम्हें मैं अपना छोटा भाई मानता हूँ। चिंता मत करो।

मुनीम ने अपने दयालु मालिक के चरणों में सिर रख दिया। 

         ×           ×           ×            ×            ×

अगले वर्ष सेठ गंगासरन जी को कपड़े के व्यापार में एक लाख का मुनाफा हुआ। मुनीम नंदलाल को फिर लोभ के भूत ने घेरा। अबकी बार वह सेठ जी के प्राण लेने की तरकीब सोची। उसने सोचा कि सेठजी यदि बीच में ही उठ जायॅं तो विधवा सेठानी और बालक शंकरलाल मेरे ही भरोसे रह जायेंगे। वे दोनों क्या जानें कि 'मिती काटा और तत्काल धन' किसे कहते हैं। बुद्धिमानी से भरे हीले-हवाले से यह एक लाख मेरी तिजोरी में जा पहुंचेगा। किसी को कुछ खबर भी नहीं होगी, अंत में घाटा दिखला दूंगा। व्यापार में लाभ ही नहीं होता, घाटा भी तो होता है। 

संध्या का समय था। नंदलाल अपने घर से एक गिलास दूध संखिया डालकर सेठ के पास ले गया और बोला, "दस दिन हुये मेरी गाय ने बच्चा दिया था। आज से दूध लेना शुरू किया जायेगा। आपकी बहू ने कहा, "दूध का पहला गिलास मालिक को पिला आओ। उसके बाद ही हमलोग दूध का उपयोग करेंगे।"

सेठजी बोले- 'गिलास मेज पर रख कर घर चले जाओ। मैं भी भोजन करने जा रहा हूँ। सोते समय तुम्हारा यह लाया हुआ दूध मैं अवश्य पी लूंगा।'

मेज पर वह विषाक्त दूध रखकर दुष्ट मुनीम चला गया। 

भोजन करके सेठजी आये तो देखा गिलास खाली पड़ा है। सारा दूध पड़ोस की पालतू बिल्ली पी गयी। सुबह सुना कि पड़ोसी की बिल्ली मर गयी। वह क्यों मरी, कैसे मरी- इस बात की छानबीन नहीं की गयी। पशु के मरने-जीने की चिंता मनुष्य नहीं करता। दुकान पर सेठ को गद्दी पर बैठा देख मुनीम को महान आश्चर्य हुआ, परंतु वह कुछ नहीं बोला। 

रात के स्वप्न में सेठजी को भगवान् शंकर जी के दर्शन हुए। भगवान् कह रहे थे- 'तुमने जिस दुष्ट मुनीम को पांच हजार के गबन के मामले में क्षमा कर दिया था, उसने दूध में संखिया मिलाकर तुमको समाप्त करने का षणयंत्र रचा था। मैंने प्रेरणा करके बिल्ली भेजी थी और तुम्हारे प्राण बचाये थे। उसी विष से पड़ोसी की बिल्ली मरी थी।'

सेठ ने उसी समय जाकर सेठानी को अपना सपना सुनाया। सुनकर बेचारी सेठानी सहम गयी। फिर संभलकर बोली- 'जब वह तुम्हारा ऐसा अशुभचिंतक है तब उसे निकाल बाहर करो और कोई दूसरा ईमानदार मुनीम रख लो।'

'मैं अपने शुभचिंतन के द्वारा उसका अशुभचिंतन नष्ट कर डालूँगा।' सेठ ने दृढ़ता से कहा।

'यह कैसे हो सकता है?' सेठानी ने आश्चर्यचकित होकर प्रश्न किया। 

'मैं उसके प्रति वैरभावना नहीं रखूँगा, बल्कि प्रेम-भावना को बढ़ाता रहूँगा।'

'इससे क्या होगा?'

'जब हम किसी के प्रति शत्रुता के विचार रखते हैं, तब वह भावना उसके पास जाकर उसकी शत्रुता को और बढ़ा देती है।'

'मैं नहीं समझी।'

एक दृष्टांत सुनाता हूँ, तब तुम अवश्य समझ जाओगी। एक बार बादशाह अकबर, प्रधानमंत्री बीरबल के साथ सैर करने शहर से बाहर निकले। सामने एक लकड़हारा आता दिखाई पड़ा। बादशाह ने बीरबल से पूछा- 'यह लकड़हारा मेरे प्रति कैसा विचार रखता है? बीरबल ने उत्तर दिया- 'जैसे विचार आप उसके प्रति रखेंगे, वैसे ही विचार वह भी आपके प्रति रखेगा; क्योंकि दिल से दिल की राह है।' बादशाह एक पेड़ पर चढ़कर छुप गये और कहने लगे- 'साला लकड़हारा मेरे जंगल की लकड़ियाँ बिना इजाजत चुराकर काट लाता है और अपना खर्च चलाता है। कल इसे फांसी देंगे।' तबतक वह लकड़हारा पास आ पहुँचा। बीरबल ने कहा- 'लकड़हारे! तुमने सुना या नहीं कि आज बादशाह अकबर मर गया।' लकड़हारे ने लकड़ी का गट्ठा फेंक दिया और वह नाचते हुए बोला- 'बड़ा अच्छा हुआ। बड़ा बदमाश बादशाह था। मीना बाजार में वह एक राजपूूतनी को बुरी नजर से देखा उसने छाती में कटार घुसेड़ दिया होता, परंतु "माता" कहकर क्षमा मांगी, तब प्राण बचे थे। मैं तो प्रसाद बांटूंगा। अच्छा हुआ कि मर गया।' बादशाह ने बीरबल का सिद्धांत मान लिया।

'फिर क्या हुआ?' सेठानी की उत्सुकता बढ़ी। 

उसी समय एक वृद्धा घास लिए आती दिखाई पड़ी। बादशाह पेड़ पर अभी भी छिपा बैठा रहा; क्योंकि वह शुभचिंतन और अशुभचिंतन का प्रभाव देखना चाहता था। अशुभचिंतन का प्रभाव वह देख चुका था। अबकी बार शुभचिंतन का प्रभाव देखने के लिए बादशाह ने कहा- बीरबल! वह देखो, बेचारी वृद्धा आ रही है। कमर झुक गयी है, मुंह में दांत भी नहीं होंगे। लाठी के सहारे चल रही है। अपनी गाय के लिए थोड़ी घास छील लायी है। दस रूपये माहवारी इसकी पेंशन आज से ही बांध दो, वजीरेआजम!' जब बुढ़िया पास आयी तब बीरबल कहने लगे- 'बूढ़ी माई! तुमने सुना कि आज आधी रात के समय बादशाह अकबर को काला नाग सूंघ गया। सुबह कब्र भी लग गयी।' बुढ़िया ने घास पटक दिया और रो-रोकर कहने लगी- 'गजब हो गया, राम-राम बड़ा बुरा हुआ। ऐसा दयालु बादशाह अब कहाँ मिलेगा। हिन्दू मुसलमान, दोनों ही उसकी दो आंखें थीं। उसने गोवध बंद करवा दिया। मजाल क्या कि कोई किसी गाय की पूंछ का एक बाल भी खिंच ले! भगवन्, तुम मेरे प्राण ले लेते, बादशाह को न मारते।'               

प्रातः स्नान के बाद भणवद्भक्त सेठ गंगासरन भगवान् विश्वनाथजी के मंदिर में गये। पूजन करके हाथ जोड़कर बोले- 'अन्तर्यामी भोलेनाथ! मुझे अपने मुनीम के पतन का आंतरिक दुख है, परंतु मेरे मन में उसके प्रति जरा भी द्वेष देखें तो बेशक मुझे दण्ड दें। भगवन्! आप मेरे मुनीम का चित्त शुद्ध कर दिजिए। यदि उसकी लोभ-भावना दूर न हुयी तो मेरी भक्ति का क्या फल हुआ? काम, क्रोध, लोभ- ये ही तीन मानव के प्रबलतम शत्रु हैं। मुझे अपने जीवन का भय नहीं है। मैं तो आत्मसमर्पण करके निश्चिन्त हो गया हूँ। 

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सांझ को एक संपेरा मुनीम जी के घर के सामने से निकला। मुनीम ने उसे बुलाकर कहा- 'तुम्हारे पास कोई ऐसा भी सांप है जिसके विष के दांत तोड़े न गये हों?'

'जी हाँ, ऐसा सांप इसी पेटी में मौजूद है। कल ही पकड़ा था।'

'तुम उसे बेंच दो। ये लो पांच रूपए।'

संपेरे ने फन वाला विषधर एक मिट्टी की हांड़ी में बंद कर दिया और मुंह पर कपड़ा बांध दिया। 

जब रात के दस बजे, तब हांड़ी लेकर नंदलाल सेठजी के मकान पर पहुँचा। जिस कमरे में सेठजी सोते थे, उसकी खिड़की का एक शीशा टूटा हुआ था। खिड़की के नीचे ही भक्तजी का पलंग रहता था। नंदलाल ने उसी खिड़की के द्वारा वह काला सांप अंदर फेंक दिया, जो सेठजी की रजाई के उपर जा गिरा। फिर हंसता हुआ नंदलाल लौट आया। 

प्रातः जब सेठजी रजाई से बाहर निकले तब सेठानी भी वहीं खड़ी थी। उसी रजाई में से एक काला सांप निकला और पलंग के नीचे उतर गया। सेठानी चीख पड़ी और नौकर को बुलाने लगी। 

'नौकर को क्यों बुलाती हो?' सेठजी बोले। 

'इस सांप को मरवाऊंगी। आपको काटा तो नहीं!' सेठानी ने कहा। 

'मेरी प्रेम परीक्षा लेने के लिए भगवान् भोलेनाथ ने अपने गले का हार भेजा था। रातभर सोता रहा। कभी मेरा हाथ पड़ गया तो कभी पैर भी पड़ गया; परंतु अगर उसे काटना ही होता तो रात भर में न जाने कितनी बार काटता' सेठजी ने कहा। तबतक लाठी लेकर नौकर आ गया। सेठजी बोले- 'हीरा! लाठी रख दो। एक कटोरा दूध लाओ। दूध पिलाकर सर्प देवता को जाने दो, जहाँ वे जाना चाहें। खबरदार! मारना मत।'

और वह इसी घर में रहने लगे, सेठानी ने व्यंग्य किया।

'कोई परवाह नहीं, रहने दो। भला, सांप कहाँ नहीं रहते। सांप पर ही पृथ्वी टिकी है!' सेठजी ने कहा।

रात को सेठजी ने सपने में फिर भगवान् भोलेनाथ को बैल पर चढ़े हुए मुस्कुराते देखा। भगवान् ने मुनीम वाली सर्प-क्रिया बयान कर दी। सेठ ने कहा- कुछ भी हो, अपने शुभचिंतन के द्वारा मुझे मुनीम के अशुभचिंतन को नष्ट करना है। आपका आशीर्वाद रहेगा तो मैं इस परीक्षा में अवश्य पास होऊंगा। आप भी इसमें मेरी सहायता करें। 

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अपने दोनों अशुभचिंतन के कुकृत्यों को विफल देख मुनीम नंदलाल ने तीसरी स्कीम सोची। उसने दो नामी चोरों से दोस्ती गाँठी। एक दिन आधी रात के समय नंदलाल उन दोनों चोरों को लेकर सेठजी के मकान के पीछे जा पहुँचा। सेंध लगाकर तीनों भीतर घुसे। सेठजी की तिजोरी जिस कमरे में रहती थी, उस कमरे को मुनीम जानता था। ज्यों ही मुनीम उस कमरे में पहुँचा, उसने काशी के कोतवाल भगवान् कालभैरव को त्रिशूल लिए खजाने के पहरे पर खड़ा देखा। भय खाकर भागना चाहा तो भगवान् ने उसे पकड़ लिया और दो तमाचे लगाकर कहा- 'कमीने, जिसने तुझे आत्महत्या से बचाया, उसके प्रति बदमाशी-पर-बदमाशी करता ही चला जा रहा है। आज तुझे खत्म कर दूंगा।'

दोनों चोर भाग गये। मुनीम ने भगवान् भूतनाथ के चरण पकड़ लिये और गिड़गड़ाने लगा- आज मेरा सारा अशुभचिंतन मर गया। मैं अभी सेठजी से माफी मांगता हूँ। अपने सुधार के लिए यह एक मौका दिजिए। 

वही हुआ। मुनीम ने जाकर सेठजी को जगाया और उनके चरण पकड़कर अपने तीनों अपराधों को स्वीकार करते हुए क्षमा मांगी। सेठजी ने हंसकर मुनीम को छाती से लगा लिया और कहा- "मेरे शुभचिंतन की विजय हुयी।" और वास्तव में नास्तिक मुनीम ईमानदार आस्तिक बन गया था।

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