17 मई 2024

कर्म पर गीता के प्रमुख श्लोक

 ।।ॐ परमात्मने नमः।। 

भगवान श्री कृष्णजी ने अर्जुन के माध्यम से श्रीमद्भगवद्गीताजी का अमृततुल्य उपदेश समस्त संसार को दिया था। श्रीमद्भगवद्गीता, संपूर्ण विश्व और मनाव जाति की अनुपम भेंट है। गीता, जीवन में आने वाली विषम परिस्थितियों में भी सही मार्गदर्शन प्रदान करती है। यही कारण है कि विश्व के अनेक महापुरूष और मनीषी, गीता से प्रेरणा और मार्गदर्शन पाते रहे हैं। वास्तव में श्रीमद्भगवद्गीता की महिमा का वर्णन कर पाना किसी के वश का नहीं है; क्योंकि यह परम रहस्यमय ग्रंथ है। इसमें संपूर्ण वेदों का सार-सार संग्रह किया गया है। इसका आशय इतना गंभीर है कि आजीवन निरंतर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अंत नहीं आता। गीता में भगवान् ने अपनी प्राप्ति के लिए मुख्यतः दो मार्ग बतलाये हैं। पहला सांख्ययोग और दूसरा कर्मयोग। 

Source: Aradhika. Com

सब कुछ भगवान् का समझकर सिद्धि-असिद्धि में समत्वभाव रखते हुए आसक्ति और फल की इच्छा का त्याग कर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवान् के लिए ही सब कर्मों का आचरण करना तथा श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मन, वाणी और शरीर से सब प्रकार भगवान् के शरण होकर नाम, गुण और प्रभावसहित उनके स्वरूप का निरंतर चिंतन करना, कर्मयोग का साधन कहलाता है। चूंकि कर्मयोग, साधन में सुगम होने के कारण, भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा है कि तुम निरंतर मेरा चिन्तन करता हुआ कर्मयोग का आचरण कर। कर्म का आशय क्रिया से है। अर्थात् वे सभी क्रियाएं जो हम अपने मन, वचन और शरीर के द्वारा करते हैं, कर्म कहलाती हैं। हिंदू धर्म में कर्म को प्रधान माना गया है। जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। इस लेख में कर्म पर गीता में वर्णित विभिन्न श्लोकों को उनके अर्थ सहित उल्लेख किया गया है। 

श्लोक-१:

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जीत्वा वा भोक्ष्यसे महीम।

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:।।                   (अध्याय २, श्लोक ३७) 

अर्थ: हे अर्जुन! या तो तुम युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इसलिए हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।

श्लोक-२:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।                          

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥                   (अध्याय २, श्लोक ४७)

अर्थ: हे अर्जुन! कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो। 

श्लोक-३:

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।              

स्मृतिभ्रंसाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।          (अध्याय २, श्लोक ६३)

अर्थ: क्रोध से अत्यंत मूढ़़भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम होने से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि का नाश होने से पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।

श्लोक-४:

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्रुते।                           

न च सन्न्यसनादेव सिद्धि समधिगच्छति।।                        (अध्याय ३, श्लोक ४) 

अर्थ: मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किये बिना निष्कर्मता (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम निष्कर्मता है) को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के त्यागमात्र से सिद्धि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है। 

श्लोक-५:

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत।                      

कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:।।                      (अध्याय ३, श्लोक ५) 

अर्थ: नि:संदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है। 

श्लोक-६:

यस्ति्वनि्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।          

कर्मेन्द्रियै: कर्मयोगमसक्त; स विशिष्यते।।                (अध्याय ३, श्लोक ७) 

अर्थ: हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इंद्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है।

श्लोक-७:

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।                

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।                            (अध्याय ३, श्लोक ८) 

अर्थ: तुम शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा। 

श्लोक-८:

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकों कर्मबन्धन:।                          

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंग: समाचर।।                          (अध्याय ३, श्लोक ९) 

अर्थ: यज्ञ के निमित्त किये जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बंधता है। इसलिए हे अर्जुन! तुम आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य-कर्म कर।। 

श्लोक-९:

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।                              

न चास्य सर्वभुतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:।।                        (अध्याय ३, श्लोक १८) 

अर्थ: उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न तो कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा संपूर्ण प्राणियों में भी इसका किंच्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता। 

श्लोक-१०:

तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।                        

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष:।।                        (अध्याय ३, श्लोक १९) 

अर्थ: इसलिए हे अर्जुन! तू निरंतर आसक्ति से रहित सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। 

श्लोक-११:

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।              

लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।                        (अध्याय ३, श्लोक २०) 

अर्थ: जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति से रहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुये थे। इसलिए लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने के ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है। 

श्लोक-१२:

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम।          

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वानयुक्त: समावर्तन।।                 (अध्याय ३, श्लोक २६) 

अर्थ: परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् अश्रद्धा उत्पन्न न करे। किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे। 

श्लोक-१३:

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।                  

अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्नते।।                        (अध्याय ३, श्लोक २७) 

अर्थ: वास्तव में संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अंत:करण अहंकार से मोहित हो रहा है, इस तरह का अज्ञानी "मैं कर्ता हूँ" अपने आपको ऐसा मानता है। 

श्लोक-१४:

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नस्याध्यात्मचेतसा।              

निराशीर्निर्ममो भूत्वा युद्धस्व विगतज्वर:।।                    (अध्याय ३, श्लोक ३०) 

अर्थ: हे अर्जुन! मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा संपूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तापरहित होकर तू युद्ध कर। 

श्लोक-१५:

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवा:।            

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभि:।।                  (अध्याय ३, श्लोक ३१) 

अर्थ: जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुशरण करते हैं, वे भी संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं। 

श्लोक-१६:

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति ये मतम्।

सर्वज्ञानविमूढ़ांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस:।।                          (अध्याय ३, श्लोक ३२) 

अर्थ: परंतु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू संपूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ। 

श्लोक-१७:

सदृश चेष्टा स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।                            

प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यामि।।                  (अध्याय ३, श्लोक ३३)

अर्थ: सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा? 

श्लोक-१८:

इंद्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेष व्यवस्थितौ।                          

तयोर्न वशमागच्छैत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।                            (अध्याय ३, श्लोक ३४) 

अर्थ: प्रत्येक इंद्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्यामार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं।

श्लोक-१९:

श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।                      

स्वधर्म निधन श्रेय: परधर्मो भयावह:।।                          (अध्याय ३, श्लोक ३५) 

अर्थ: अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति-उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय देने वाला है। 

श्लोक-२०:

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:।                      

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।                (अध्याय ४, श्लोक १६) 

अर्थ: कर्म क्या है? और अकर्म क्या है? इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धमान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिए वह कर्मतत्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा। 

श्लोक-२१:

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।                          

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत।।                (अध्याय ४, श्लोक १८) 

अर्थ: जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धमान् है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है। 

श्लोक-२२:

यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता:।          

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पंडित बुधा:।।                (अध्याय ४, श्लोक १९) 

अर्थ: जिसके संपूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्प के होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि के द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं। 

श्लोक-२३:

त्यक्त्वा कर्मफलासंगं नित्यतृप्तो निराश्रय:।      

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचितकरोति स:।।                (अध्याय ४, श्लोक २०) 

अर्थ: जो पुरुष समस्त कर्मों में और उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके संसार के आश्रय से रहित हो गया है और परमात्मा में नित्य तृप्त है, वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता। 

श्लोक-२४:

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह:।                             

शरीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।                      (अध्याय ४, श्लोक २१) 

अर्थ: जिसका अंत:करण और इंद्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर संबंधी कर्म करता हुआ भी पापों को प्राप्त नहीं होता है। 

श्लोक-२५:

यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतं विमत्सर:।                         

सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वा न निबध्यते।।                    (अध्याय ४, श्लोक २२) 

अर्थ: जो बिना इच्छा के अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया है, जो हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो गया है-- ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बंधता। 

श्लोक-२६:

गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:।                  

यज्ञायाचरत: कर्म सदग्रंथो प्रविलीयते।।                        (अध्याय ४, श्लोक २३) 

अर्थ: जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गयी है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरंतर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है--ऐसा केवल यज्ञ सम्पादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के संपूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं। 

श्लोक-२७:

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।                        

ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।                          (अध्याय ४, श्लोक २४) 

अर्थ: जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात् स्रुवा (आहुति डालने वाली करछी) आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जाने वाला द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देने वाली क्रिया भी ब्रह्म है--उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है। 

कर्म एक सार्वभौमिक नियम है जो हमारे कार्यों के परिणामों को जन्म-जन्मान्तर तक नियंत्रित करता है। यह हमें हमारी नैतिक जिम्मेदारियों का अहसास दिलाता है। कर्म को गहराई से समझने से इरादा, करुणा और आध्यात्मिक विकास से भरा जीवन प्राप्त हो सकता है। मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य- आत्म-साक्षात्कार के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति है। परमात्मा को प्राप्त करने के लिए सत्पुरुषों की शरण में जाना चाहिए और उनके कथनानुसार कर्म में लीन होने का प्रयास करना चाहिए। यह दुर्लभ मनुष्य शरीर बहुत जन्मों के उपरांत परम दयालु भगवान् की कृपा से ही मिलता है इसलिए नाशवान् क्षणभंगुर संसार के अनित्य भोगों को भोगने में ही अपने जीवन का अमूल्य समय नष्ट नहीं करना चाहिए। 

सौजन्य: गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक, "श्रीमद्भगवद्गीता"

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