मनुष्य, प्रकृति में मौजूद सभी जीवधारियों में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। मनुष्य के
अंदर अपरिमित शक्तियां विद्यमान हैं। दुनियाँ में हर वस्तु, हर चीज का नाप-तोल
हो सकता है परन्तु मनुष्य के अंदर निहित शक्तियों, उसकी क्षमताओं
का नाप-जोख असंभव है।
इसमें भी मनुष्य के दिमाग जैसा शक्तिशाली ब्रह्माण्ड में और दूसरा
कुछ भी नहीं। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सामान्य मनुष्य जीवनपर्यंत अपने
दिमाग का १० प्रतिशत हिस्सा ही इस्तेमाल करता है जबकि प्रतिभाशाली मनुष्य अपने दिमाग
का २० से ३० प्रतिशत तक का हिस्सा ही उपयोग में ला पाता है। ईश्वर का यह नायाब तोहफा
सभी मनुष्यों के लिए बराबर है। ईश्वर द्वारा इसके आवंटन में उंच-नीच, रंग-रूप, जातिवाद, अमीर-गरीब का
कोई भेदभाव नहीं। भले ही ईश्वर ने सभी मनुष्यों को एक दूसरे से भिन्न बनाया हो।
यही
अपरिमित शक्ति जो सोचने, समझने और करने में मनुष्य को अन्य सभी
जीवों से अलग और सुपर बनाती है। इसीलिए तो मनुष्य योनि को कर्मयोनि कहते हैं और बाकी
सभी योनियों को भोगयोनि कहते हैं।
मनुष्य अगर ठान ले तो कुछ भी कर सकता है। जबकि अन्य
कोई जीव, प्राणी ऐसा नहीं कर सकता। हर जीव की अपनी एक जीवन प्रणाली
है जिसके अंदर वह अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक का समय गुजार देता है। उसके बाहर जाकर
न तो उसके अंदर सोचने की शक्ति होती है न समझने की। लेकिन मनुष्य के अंदर निहित शक्ति और सामर्थ्य का आज तक न तो कोई भी आंकलन नहीं कर पाया है और न ही आगे कर पायेगा। मनुष्य
कुछ भी कर सकता है यदि उसके अंदर दृढ़ इच्छाशक्ति, मजबूत इरादे
और कुछ कर गुजरने का जुनून हो।
यहाँ पर कुछ ऐसे जुनूनी व्यक्तियों का जीवन वृतांत हम
संक्षेप में बतायेंगे जो अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर असंभव को भी संभव कर दिखाया।
माउन्टेन मैन "दशरथ मांझी"
दशरथ मांझी का जन्म बिहार में गया के पास गहलौर गाँव में १४ जनवरी सन् १९३४ में एक गरीब मजदूर के घर हुआ था। कम उम्र में ही उनकी शादी फाल्गुनी नामकी लड़की से हो गयी। बडे़ होकर वे भी अपने पिता की तरह मजदूरी करने लगे।
दशरथ मांझी का गाँव एक पहाड़ के किनारे था। उनको पहाड़ के दूसरी तरफ मजदूरी का काम मिल गया। जब वे काम पर जाते तो उनकी पत्नी फाल्गुनी देवी उनके लिए रोज खाना-पानी लेकर पहाड़ के अत्यंत दुर्गम राहों पर चढ़कर ले जाया करती थीं।
एक दिन दशरथ की पत्नी जब रोज की तरह दशरथ के लिए खाना-पानी लेकर जा रही थीं तो उनका पैर पहाड़ी पर से फिसल गया और नीचे घाटी में गिर गयीं जिससे उन्हें गंभीर चोटें आयीं और उनकी मृत्यु हो गयी। जिसका दशरथ मांझी के दिलोदिमाग पर गहरा सदमा पहुँचा और पहाड़ को ही चीर डालने का जुनून सवार हो गया। फिर क्या था, वे एक छेनी-हथौड़ी उठाये और दिन-रात एक कर पहाड़ का सीना चीरने लगे। ऐसा करते देख गाँव वालों ने समझा कि दशरथ अपनी औरत की मृत्यु का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाया और पागल हो गया। लेकिन इससे दशरथ मांझी का इरादा और मजबूत होता गया।
सौजन्य: Mobile Sathi
एक समय ऐसा भी आया जब वहाँ भयंकर सूखा पड़ गया। गाँव के सभी लोग गाँव छोड़कर दूसरी जगह चले गये। किन्तु दशरथ मांझी अपनी जान की परवाह न करते हुए वहीं डटे रहे। उनके जीवन में बड़ी से बड़ी मुश्किलें और बाधाएं आयीं पर वे उनके मजबूत इरादे से उन्हें डिगा नहीं सकीं। वे उन तमाम मुश्किलों को झेलते हुए पहाड़ को तोड़ना जारी रखा।
आखिरकार! दशरथ मांझी अपने २२ बर्षो के कठोरतम् परिश्रम से पहाड़ का सीना चीर ही डाला और बना डाला ३६० फुट लंबा, ३० फुट चौड़ा और २५ फुट गहरा रास्ता। जिससे ५५ किलोमीटर का दुर्गम रास्ता १५ किलोमीटर सुगम रास्ते में तब्दील हो गया और आसपास के गांव वालों का आवागमन सुगम हो गया। १७ अगस्त सन् २००७ को दशरथ मांझी इस दुनियाँ को तो छोड़कर चले गए लेकिन "माउन्टेन मैन" के नाम से इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो गये। उनके जीवनवृत के उपर एक फिल्म "मांझी, द माउन्टेन मैन" भी बनी है।
प्रसिद्ध धाविका रुडोल्फ विल्मा:-
रुडोल्फ विल्मा का जन्म अमेरिका में टेनेसी प्रांत के बेथलेहम
में २३ जून सन् १९४० को एक अश्वेत और गरीब परिवार में हुआ था। विल्मा अभी मात्र ४ वर्ष
की हुई तो उसके पैर पोलियो के कारण लकवाग्रस्त हो गये। अश्वेत होने का खमियाजा उस नादान
बच्ची को भुगतना पड़ा। आसपास किसी भी अस्पताल के डाक्टर विल्मा की जांच के लिए तैयार
नहीं हुए।
अतः विल्मा को उसकी माँ बहुत दूर उस अस्पताल में ले गयी जहाँ पर केवल अश्वेत
लोगों का ही इलाज होता था। वहाँ पर डाक्टरों ने जांच करके बताया कि विल्मा अपने पैर
पर कभी खड़ी नहीं हो पायेगी। विल्मा के पैरों का उपचार शुरू हुआ और पांच साल के उपचार
के बाद विल्मा बैसाखी के सहारे खड़ी हो सकी।
सौजन्य: You Tube
तत्पश्चात् विल्मा की माँ ने उसे पढ़ने के लिए स्कूल
में डाल दिया। स्कूल में विल्मा जब सभी बच्चों को खेल-कूद करते हुए देखती तो
उसका भी बालसुलभ मन खेलने के लिए मचलने लगता। पर अपने पैरों से लाचार होकर हाेकर रोने लगती। उसने अपनी
इस बेबसी को अपनी माँ को रोकर बतायी।
तब उसकी माँ ने उसका हौसला बढ़ाया तथा उसकी कमजोरियों
को उसकी ताकत बनाने के लिए उसे प्रेरित किया और कहा कि, "अगर इरादे पत्थर की चट्टान की
तरह मजबूत हों तो मनुष्य को उसकी कामयाबी से कोई रोक नहीं सकता।"
माँ की सीख का विल्मा के
उपर बहुत असर हुआ और ९ बर्ष की उम्र में बिना सहारे के चलने की ठानी। इसके लिए वह बार-बार
गिरती थी और बार-बार उठती थी लेकिन हार नहीं मानी।अन्ततोगत्वा, बिना सहारे के ही अपने पैरों पर खड़ी हो सकी। फिर क्या था उसका आत्मविश्वास
जाग गया और उसने धाविका बनने की ठानी।
उसने अपने कठोर परिश्रम और लगन के बल पर सन्
१९६० के ओलंपिक खेलों में १०० मीटर, २०० मीटर और ४०० मीटर के
दौड़ के तीनों ही प्रतिस्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतकर, रुडोल्फ विल्मा अपना नाम इतिहास
के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित कर लिया।
रुडोल्फ विल्मा १२ नवंबर सन् १९९४
को ५४ वर्ष की आयु में इस दुनियाँ अलविदा कह दिया साथ ही एक संदेश छोड़ दिया कि यदि
मनुष्य के इरादे फौलाद की तरह मजबूत हों और अंदर कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो वह असंभव
को भी संभव कर सकता है।
मनुष्य शरीर असीमित ऊर्जा और शक्तियों का भंडार है। किन्तु अधिकांश लोगों को तो
इस बात का अहसास ही नहीं होता। मनुष्य अपने पूरे जीवनकाल में अपने अंदर निहित शक्तियों
का अंशमात्र ही उपयोग कर पाता है। मानव शरीर के भीतर अपरंपार ऊर्जा तथा शक्तियां हैं
पर वो वो सुषुप्त जैसी अवस्था में होती हैं। उन्हें अपने कठोर परिश्रम और तप-साधना से जगाना पड़ता है।
जिस तरह रामायण में हनुमान जी को यह नहीं पता होता
है कि वो समुद्र को भी लांघ सकते हैं इसके लिए जामवंत जी उनको अहसास दिलाते हैं कि
हे हनुमान! तुम कुछ भी कर सकते हो। तुम्हारे लिए कोई भी काम मुश्किल नहीं है। यह सुनकर
उनके अंदर की सुषुप्त शक्तियां जागृत हो उठती हैं और वे समुद्र को लांघकर सीता जी का
पता भी लगाते हैं तथा संजीवनी बूटी लाने के लिए समूचा पहाड़ ही उखाड़ लाते हैं।
कहने
का तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपने दृढ़ संकल्प,
आत्मविश्वास और लगन से कुछ भी कर सकता है। असंभव को भी संभव कर सकता
है। इसीलिए तो इस दुर्लभ मनुष्य योनि में जन्म लेने के लिए देवी-देवता भी तरसते हैं।
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Bahut Achha blog hi aap ka👌👌👍👍
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद! शेयर करना न भूलें।
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