प्रिय पाठकगण, यह लेख "यैस ओशो" नामक मासिक पत्रिका के अप्रैल २०१६ अंक में प्रकाशित हुआ था। पढ़ने के बाद मुझे अच्छा लगा। अतः उसी लेख को मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ कि शायद आपको भी अच्छा लगे।
खुद की दृष्टि को समझें, खोजें और
उस दृष्टि में ही आपको कारण मिल जाएंगे
जीवन में न तो दुख है और न सुख। जीवन को तो जैसा हम देखने में समर्थ हो जाते हैं, वह वैसा ही हो जाता है। जीवन तो वैसा ही है जैसी देखने की हमारे पास दृष्टि होती है। हमारे ही बीच हमारे ही जीवन में वो लोग भी जीते हैं जो आनंद से भरे होते हैं। और वे लोग भी जो दुख और अंधकार से। देखने की दृष्टियां भिन्न होती हैं। अगर हमने जीवन में उदासी, अंधकार, दुख और पीड़ा को ही देखने की दृष्टि को अर्जित कर लिया हो तो जीवन के आनंद से हम वंचित रह जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं है।
मैंने सुना है एक माँ अपने बच्चे से परेशान थी। वह किसी भी तरह के भोजन में कोई रुचि नहीं लेता था। हर तरह के भोजन में कुछ न कुछ आलोचना, शिकायत खड़ी कर देता था। वह किसी भी तरह के वस्त्रों में भी कोई रुचि न लेता था। और हर तरह के वस्त्रों में कोई न कोई भूल-चूक खोज लेता था। वह किसी भी मित्र में भी कोई रुचि नहीं लेता था। हर मित्र में कोई न कोई खराबी ढूंढ लेता था।
उसकी माँ घबड़ा गयी। उसका भविष्य सुखद न था। जिसकी दृष्टि हर जगह भूल और अंधकारपूर्ण पक्ष को खोज लेने की हो उसका जीवन नरक हो जाएगा। वह घबड़ाई और उसे एक मनोवैज्ञानिक के पास ले गयी। सबसे बड़ा प्रश्न तो उसके भोजन का था क्योंकि वह भोजन करना ही बंद कर दिया था। हर तरह के भोजन में उसे परेशानी नजर आती थी। और सब तो ठीक था, लेकिन भोजन के बिना जीना भी तो कठिन है।
वह एक मशहूर मनोवैज्ञानिक के पास ले गयी। वह न मालूम कैसे-कैसे विक्षिप्त लोगों को भी ठीक कर चुका था। यह तो एक छोटा सा बच्चा था और अभी तो उसके जीवन की शुरुआत थी। इसे ठीक करने में भला कौन सी कठिनाई होने वाली थी? उस मनोवैज्ञानिक ने उस बच्चे को बहुत तरह से समझाया। भोजन की खूबियाँ समझायीं, फायदे समझाए, बहुत अच्छी अच्छी मिठाईयां मंगवायी। उस बच्चे के सामने रखीं। लेकिन उसने कोई न कोई आलोचना निकाल दी। आलोचक था जन्मजात।
मनोवैज्ञानिक भी थोड़ा घबड़ाया। लेकिन उसकी माँ के सामने वह यह बताना नहीं चाहता था कि मैं घबड़ा गया हूँ और वो भी एक छोटे बच्चे से। आखिर उसने उसी से पूछा कि फिर तू ही बता, इस जमीन पर पर कोई भी चीज तुझे खाने जैसी लगती है? उसने कहाः हां! मैं केंचुए खाना पसंद करूँगा। वह भी घबड़ाया, माँ भी घबड़ाई। वर्षा के दिन थे। बाहर केंचुए भी थे।
मनोवैज्ञानिक उससे हारना नहीं चाहता था। उसने सोचा कि शायद यह केंचुए खाने की बात कह कर मुझे डराना भर चाहता है, खाएगा कैसे? बाहर गया और एक प्लेट में दस-पंद्रह केंचुए ले आया। उस बच्चे के सामने रखे। उस बच्चे ने कहाः ऐसे नहीं, मैं तले हुए केंचुए खाना पसंद करूँगा। आपको शर्म नहीं आती, बिना तली हुई चीज मुझे देते हैं? नहीं हारना चाहता था वह मनोवैज्ञानिक। वह बेचारा गया और उन केंचुओं को तल कर ले आया। हालांकि वह मन ही मन खुद घबड़ा रहा था कि वह क्या कर रहा है। लेकिन वह चाहता था कि उस बच्चे को किसी तरह निकटता में ले ले, उसकी कोई मांग पूरी हो जाए तो शायद मेरी बात समझ सके।
वह केंचुए लेकर आया। उस बच्चे ने कहा: इतने नहीं, मैं केवल एक केंचुआ खाना पसंद करूँगा। वह बाहर गया, सारे केंचुए फेंक कर केवल एक केंचुआ ले आया। उसके सामने प्लेट पर रखा और कहा: लो खाओ। उसने कहा: क्या मैं अकेला खाऊंगा? आधा आप खाइये। मनोवैज्ञानिक हारना नहीं चाहता था। उसे केंचुआ खाने का जरा भी मन नहीं था।
लेकिन मनोवैज्ञानिक को तो उस बच्चे से जीतना जरुरी था। तो उसने किसी तरह आंख बंद कर के आधा केंचुआ खा गया। और तब उसने बडे़ गुस्से से उससे कहा: अब खाओ। बच्चा रोने लगा और कहा: आपने मेरा हिस्सा खा लिया।
उस मनोवैज्ञानिक ने हाथ जोड़े और उसकी माँ से कहा: यह लाइलाज है, इसका इलाज करना बहुत मुश्किल है। इसे शिकायत के सिवा कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता।
हममें से भी बहुत लोग हैं जिन्हें जीवन में सिवाय शिकायत के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। जीवन का कसूर नहीं है इसमें, हमारा ही कसूर है। हमारे देखने का ढंग गलत है। हमारी दृष्टि भूल भरी है। एक आदमी चाहे तो गुलाब के फूल के एक पौधे के पास खड़ा होकर देख सकता है। दुख और चिंता से... कैसी है यह दुनिया, मुश्किल से एकाध फूल लगता है और हजार कांटे होते हैं? हजार कांटों में एक फूल के लिए कौन खुश होगा? लेकिन दूसरा व्यक्ति यह भी देख सकता है: कितनी अद्भुत है यह दुनिया! जहाँ हजार कांटे लगते हैं, वहाँ भी एक फूल के पैदा होने की संभावना है। कोई ऐसा भी देख सकता है। और यह देखने के उपर निर्भर करेगा।
कोई आदमी देख सकता है, सूरज से चमकता हुआ एक दिन होता है, और दोनों तरफ दो अंधेरी रातें होती हैं। और तब उसे लगेगा- दो अंधेरी रातें और बीच में छोटा सा प्रकाश भरा दिन, कैसी बुरी है यह दुनियाँ? और कोई यह भी देख सकता है, दो चमकते हुए दिन और बीच में छोटी सी अंधेरी रात होती है। कितनी भली है ये दुनियाँ! यह हमारे देखने के उपर निर्भर होता है और देखने का यह भाव सकारात्मक नजरिया से ही आ सकता है।
बाहर की दुनियाँ अगर नरक हो तब तो फिर कोई आनंदित नहीं हो सकता। क्योंकि बाहर की दुनियाँ को बदलने की सामर्थ्य किसमें है? लेकिन भीतर की दृष्टि में नरक हो तो, तब यह हमारे हाथ में है कि हम स्वर्ग में प्रवेश कर जाएं? क्योंकि भीतर की अपनी दृष्टि कोई भी व्यक्ति जब चाहे बदल सकता है। हम सभी लोग जीवन को इसी तरह देखते हैं।
उसके फूल हमें दिखाई नहीं पड़ते, कांटे दिखाई पड़ते हैं। उसकी शुभ्रता हमें नहीं दिखाई पड़ती, उसकी कालिमा हमें दिखाई देती है। उसका प्रेम हमें नहीं दिखाई देता, उसकी घृणा दिखाई देती है। उसका आनंद नहीं दिखाई पड़ता अपितु हमें उसका दुख दिखाई पड़ता है। और तब हम इसको संग्रह करते चले जाते हैं। फिर हमारा चित्त इस तरह निर्मित हो जाता है कि हम इसी को खोज पाते हैं, इसी को देख पाते हैं। और तब अगर जीवन नरक हो जाता है तो आश्चर्य कैसा है? जीवन स्वर्ग भी हो सकता है।
स्वर्ग और नरक मनुष्य के जीवन को देखने के दृष्टिकोण हैं न तो नरक कहीं नीचे है और न स्वर्ग कहीं उपर। मनुष्य की दृष्टि में वे छिपे हैं, कैसे हम देखते हैं? जो आप देखेंगे उससे आपकी दृष्टि, देखने की क्षमता आपका एटिट्यूड निर्मित होता जायेगा, बनता जाएगा। आज अगर आप दिन भर फूल देखेंगे तो कल फूलों को देखने की आपकी क्षमता विकसित हो जाएगी। अगर आप दिन भर कांटे देखेंगे तो कल सुबह से ही कांटों से मिलना सुनिश्चित है। तो रोज रोज पल-पल हम जी रहे हैं तब जीवन में प्रकाश कहीं हो, उसे खोजते हुए जीना चाहिए। आनंद कहीं हो, उसकी तलाश में जीना चाहिए।
एक फकीर एक रात अपने घर में बैठा हुआ था। कोई बारह बजे होंगे, कुछ पत्र लिख रहा था। और तभी किसी ने द्वार पर धक्का दिया। दरवाजे अटके हुए थे, हल्के धक्के से खुल गये और वह आदमी भीतर आ गया। जो आदमी भीतर आया था, उसने कल्पना भी नहीं किया था कि फकीर जागता होगा। वह उस गाँव का प्रमुख चोर था।
उसने छुरा बाहर निकाल लिया। समझा कि कोई झगड़े- झंझट की स्थिति बनेगी। लेकिन फकीर ने कहा: मित्र, छुरा भीतर रख लो। तुम किसी बुरे आदमी के घर में नहीं आये हो कि छुरे की जरूरत पड़े। छुरा अंदर कर लो और बैठ जाओ। जरा मैं चिट्ठी पूरी कर लूँ फिर तुमसे बात करूँ। वह घबराहट में बैठ गया।
फकीर ने अपना पत्र पूरा किया और उसने चोर से कहा: कैसे आये इतनी रात को? इतना बड़ा नगर है, इतने बड़े बड़े महल हैं और इतनी बड़ी-बड़ी हवेलियाँ हैं और तुमने मुझ गरीब की कुटिया पर ध्यान दिया, कैसे आये? उस चोर ने कहा: अब आप जब पूछ ही लिए हैं तो बताना जरुरी हो गया है। और आपसे शायद झूठ न बोल सकूँ, मैं चोरी करने आया हूँ।
फकीर ने ठंडी श्वास ली और उसने कहा: बड़े नासमझ हो। भलेमानुष! एकाध-दो दिन पहले खबर कर देते तो मैं कुछ इंतजाम करके रखता। यह फकीर की झोपड़ी है यहाँ हमेशा कुछ मिल जाए यह तो बहुत मुश्किल है। थोड़े से रूपये पड़े हैं, नाराज न हो तो मैं उन्हें तुम्हें दे दूं। दस रूपये उसके पास थे। उसने कहा: उस आले पर दस रूपये रखे हैं, वह तुम ले लो।
वह चोर तो घबड़ाया हुआ था। उसके समझ के बाहर थीं, ये बातें। चोरी तो उसने बहुत की थी। लेकिन ऐसा आदमी उसे कभी नहीं मिला था। वह घबराहट में जल्दी से दस रूपये उठाया तो फकीर ने कहा: इतनी कृपा कर सकोगे क्या, कि एक रूपया छोड़ दो। सुबह-सुबह मुझे जरूरत पड़ सकती है। एक रूपया मुझ पर उधारी रही। कभी न कभी चुका दूंगा।
उसने जल्दी से एक रूपया रखा और वह बाहर भागने लगा तो उस फकीर ने कहा: मेरे मित्र! रूपये तो कल खत्म हो जायेंगे। उन पर इतना भरोसा मत करो। कम से कम मुझे धन्यवाद तो देते जाओ। चोर ने उसे धन्यवाद दिया और वह चला गया।
बाद में वह चोर पकड़ा गया। उस पर चोरी के बहुत इल्जाम थे। अदालत में इस फकीर को भी जाना पड़ा। फकीर को देखकर वह चोर बहुत घबड़ाया। और सोचा कि यदि यह फकीर इतना ही कह दे कि यह आदमी चोरी करने आया था तो किसी और की गवाही की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। क्योंकि वह फकीर इतना जाना माना था कि उसकी बात ही पर्याप्त प्रमाण हो जायेगी।
वह डरा हुआ खड़ा था। मजिस्ट्रेट ने उस फकीर से पूछा: आप इस आदमी को पहचानते हैं? फकीर ने कहा: पहचानने की बात कर रहे हैं, यह मेरा मित्र है। मजिस्ट्रेट ने पूछा: इसने कभी आपके यहाँ चोरी की थी? फकीर ने कहा: कभी भी नहीं। मैंने इसे नौ रुपये भेंट किये थे। और एक रुपया अब भी इसका मेरे उपर उधार है, जो मैं चुका नहीं पाया। वह मुझे चुकाना है। और चोरी का तो सवाल ही नहीं है। बात समाप्त हो गई थी। वह चोर तीन वर्ष बाद छूटकर उस फकीर के झोपड़े पर पहुँच गया। और उसने कहा: उस दिन तुमने कहा था, मित्र हूँ। मैं इन तीन वर्षों में निरंतर सोचता रहा कि, तुम्हारे अतिरिक्त मेरा कोई भी मित्र नहीं है। तुमने मेरी जिंदगी बदल दी, उस चोर ने कहा। उस फकीर ने कहा: मैंने तो कुछ भी नहीं किया।
उस चोर ने कहा: तुम पहले आदमी हो मेरी जिंदगी में, जिसने मेरे अंदर कुछ अच्छाई देखी। तुम पहले आदमी हो जिसने मेरी आत्मा को चुनौती दे दी। और तो जो भी मुझसे मिला था, मेरा अंधेरा पहलू देखा था। सारी दुनियाँ जब मुझमें अंधकार देखती थी तो मैं धीरे धीरे उसी अंधकार में घिरता चला गया। और उसी अंधकार को मैंने स्वीकार कर लिया था। तुमने मेरे जीवन को चुनौती दे दी। तुमने पहली दफा मुझे यह ख्याल पैदा कर दिया कि मैं भी एक अच्छा आदमी हो सकता हूँ।
जब हम जीवन में आनंद को, शुभ को, मंगल को, प्रकाश को देखना शुरू करते हैं तो हमारी दृष्टि आनंद से भर जाती है। यह दुनियाँ इतनी बुरी दिखाई पड़ रही है, इस कारण नहीं कि लोग इतने बुरे हैं। बल्कि इस कारण कि सभी लोगों को बुराई के अतिरिक्त देखने की आदत नहीं है। दुख बाहर नहीं है, हमारी दृष्टि में है और आनंद भी बाहर नहीं है वह भी हमारी दृष्टि में है। इसलिए बाहर मत थोपें अपने दुख को, खुद की दृष्टि को समझें, खोजें उस दृष्टि में ही आपको कारण मिल जायेंगे।
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