14 अगस्त 2024

परहित सरिस धर्म नहिं भाई; एक गहन विवेचना

"परहित सरिस धर्म नहिं भाई" भारतीय संस्कृति और साहित्य में एक अत्यंत महत्वपूर्ण विचारधारा है। परहित यानी परोपकार से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। यह विचार हमारे समाज के नैतिक और धार्मिक मूल्यों की आधारशिला है। यह भारतीय संस्कृति और दर्शन में गहराई से निहित विचार है, जिसे कई संतों, महापुरुषों और धार्मिक ग्रंथों ने समर्थन दिया है। इस विचार के माध्यम से समाज में दूसरों की भलाई, सहायता और कल्याण की महत्ता को उजागर किया गया है। परहित से व्यक्तिगत लाभ के साथ-साथ समाजिक लाभ भी होते हैं। यह एक ऐसा आदर्श है जो व्यक्ति को नैतिक रूप से सशक्त बनाता है और समाज को एक सकारात्मक दिशा में अग्रसर करता है।

जरूरतमंदों की मदद के कार्य से न केवल उनकी मदद होती है बल्कि उससे हमें भी अच्छी अनुभूति होती है।  कोरोनाकाल की महामारी ने हमें इस दिशा में गहराई से सोचने को मजबूर कर दिया। उस समय बहुत से लोगों ने अपने जान को जोखिम में डाल कर आगे आये और लोगों की हर संभव मदद की। इस लेख में हम इस विचारधारा के विभिन्न पक्षों पर चर्चा करेंगे, इसके लाभ एवं सांस्कृतिक संदर्भ को समझेंगे, तथा आधुनिक समाज में इसकी प्रासंगिकता पर भी गहन विचार करेंगे।

"परहित सरिस धर्म नहिं भाई" का अर्थ और महत्त्व:-

इस पंक्ति का अर्थ है, "दूसरों के हित में किया गया कार्य सबसे बड़ा धर्म है।" भारतीय समाज में धर्म का एक व्यापक अर्थ है, जो केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज में नैतिकता, सहानुभूति, और परोपकार को भी सम्मिलित करता है। 'धर्म' शब्द यहाँ केवल किसी धार्मिक कर्तव्य का संकेत नहीं करता, बल्कि यह उन सभी मानवीय कर्तव्यों का बोध कराता है जो एक व्यक्ति को समाज के प्रति निभाने चाहिए।

स्रोत: You Tube

भारतीय साहित्य, विशेष रूप से रामचरितमानस जैसे ग्रंथों में, इस विचारधारा को प्रमुख स्थान दिया गया है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में कहा है, 

"परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।" इसका मतलब यह है कि दूसरों के हित में कार्य करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने से बड़ा कोई अधर्म नहीं है।

ऐतिहासिक संदर्भ और धार्मिक परिप्रेक्ष्य:-

भारतीय इतिहास और संस्कृति में परहित की अवधारणा को हमेशा से महत्वपूर्ण माना गया है। ऋग्वेद से लेकर महाभारत तक, उपनिषद से लेकर पुराण तक, हर जगह परोपकार को मानव धर्म का सर्वोच्च कर्तव्य माना गया है। वेदों में उल्लेख है कि "सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः" यानी सबका सुखी होना, सबका स्वस्थ होना ही, मानव जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। यह विचारधारा भारतीय समाज में सामूहिक जीवन के सिद्धांत को पोषित करती है।

धार्मिक दृष्टिकोण से, सभी प्रमुख धर्मों में परोपकार को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। परहित से बड़ा कोई धर्म नहीं है, इसकी व्याख्या में निम्न श्लोकों में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है-

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्। 

परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्।। 

अर्थात् महर्षि व्यास जी, अठ्ठारह पुराणों के सार के रूप में दो बातें बताये हैं। पहला- परोपकार से बड़ा कोई पुण्य नहीं है और दूसरा यह है कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने से बड़ा कोई पाप नहीं।

पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः। नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः परोपकाराय सतां विभूतयः।।

अर्थ- नदियाँ अपना पानी खुद नहीं पीतीं, वृक्ष अपने फल खुद नहीं खाते। बादल खेतों में फसलों को बारिश करके सींचते तो हैं पर उस फसल से तैयार अनाज को खुद नहीं खाते। अर्थात् सत्पुरुषों का जीवन परोपकार के लिए ही होता है।

हिंदू धर्म में मनुष्य के चार पुरुषार्थ- 'धर्म', 'अर्थ', 'काम', और 'मोक्ष' बताए गए हैं, जिनमें धर्म का पालन सबसे महत्वपूर्ण है। और धर्म का पालन केवल व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं, बल्कि समाज के कल्याण के लिए भी होना चाहिए। जैन धर्म में 'अहिंसा परमो धर्मः' का सिद्धांत है, जिसमें अहिंसा के साथ-साथ दूसरों की सहायता करना भी अनिवार्य माना गया है। बौद्ध धर्म में भी करुणा और मैत्री पर जोर दिया गया है, जिसमें कहीं न कहीं परोपकार का भाव परिलक्षित होता ही है।

सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण:-

समाज में परहित का विचार एक सुदृढ़ नैतिक ढांचा प्रदान करता है। यह विचार न केवल व्यक्तिगत आचरण को सुधारने में सहायक होता है, बल्कि समाज में सामूहिक जिम्मेदारी और सहिष्णुता की भावना को भी प्रोत्साहित करता है। आधुनिक समाज में जहाँ व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूर्ति के लिए संघर्षरत है, वहाँ परहित का विचार एक नैतिक संतुलन बनाए रखने में सहायक हो सकता है।

समाज में परहित की भावना से समाज का विकास होता है। यह विचार हमें यह सिखाता है कि हमें केवल अपने ही हित की  चिंता नहीं करनी चाहिए, बल्कि समाज के सभी लोगों के कल्याण के लिए भी कार्य करना चाहिए। जब लोग इस विचारधारा को अपनाते हैं, तो समाज में पारस्परिक सहयोग, सह-अस्तित्व और प्रेम की भावना विकसित होती है।

आधुनिक युग में परहित की प्रासंगिकता:-

आज के युग में जहाँ आत्मकेंद्रितता और भौतिकता का बोलबाला है, परहित का विचार और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है। आर्थिक और सामाजिक असमानता, पर्यावरणीय संकट, और सांस्कृतिक टकरावों के इस दौर में, समाज को ऐसे नैतिक मूल्यों की बहुत आवश्यकता है जो न केवल व्यक्तिगत सफलता को, बल्कि सामूहिक कल्याण की भावना को भी प्रोत्साहित करें। समाज में परहित का विचार एक सकारात्मक बदलाव ला सकता है। आज की युवा पीढ़ी को यह सिखाना अत्यंत आवश्यक है कि समाज में दूसरों की मदद करना कितना महत्वपूर्ण है। इसके लिए विभिन्न सामाजिक और शैक्षणिक कार्यक्रमों के माध्यम से परहित की भावना को जागृत किया जा सकता है। 

परहित से लाभ:-

जब हम दूसरों की भलाई के लिए काम करते हैं, तो इसका सकारात्मक प्रभाव व्यापक रूप से होता है, जैसे-

एकता और सद्भावना: जब व्यक्ति दूसरों के कल्याण के काम में लिप्त होते हैं, तो इससे समाज में सहयोग, प्रेम, और आपसी समझ विकसित होती है। इससे समाज में विभाजन, संघर्ष, और द्वेष कम होता है, और लोगों के बीच आपसी सौहार्द, एकजुटता और परस्पर सम्मान बढ़ता है।

मानसिक और भावनात्मक शांति: दूसरों की सहायता करने से व्यक्ति को मानसिक और भावनात्मक संतुष्टि मिलती है। ऐसा करने से व्यक्ति के मन में शांति और संतोष का अनुभव होता है। 

कर्मफल का सिद्धांत: हिंदू धर्म और अन्य कई धर्मों में कर्मफल का सिद्धांत माना गया है, जिसके अनुसार अच्छा कर्म करने से व्यक्ति को जीवन में सकारात्मक फल मिलते हैं। परोपकार के कार्यों से व्यक्ति अपने भविष्य के लिए अच्छे कर्मों का संचय करता है। 

सामाजिक परिवर्तन: जब लोग दूसरों की भलाई का  काम करते हैं, तो यह समाज में सकारात्मक बदलाव लाने का माध्यम बनता है। जैसे कि गरीबों की सहायता, शिक्षा का प्रचार-प्रसार, और स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाना आदि। 

व्यक्तिगत विकास: परहित के कार्यों से व्यक्ति का आत्मविश्वास और नेतृत्व क्षमता बढ़ती है साथ ही सहानुभूति, करुणा और सहिष्णुता जैसे गुणों का विकास होता है, जो व्यक्तिगत विकास में सहायक होते हैं।

विश्वास और सम्मान-प्राप्ति: इससे व्यक्ति को समाज में आदर और विश्वास प्राप्त होता है। उसकी छवि एक परोपकारी और जिम्मेदार नागरिक की बनती है, जिससे उसका सामाजिक दायरा बढ़ता है और वह दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनता है।

स्वस्थ और सशक्त समाज की स्थापना: एक सशक्त समाज वही होता है जिसमें हर व्यक्ति दूसरों की मदद के लिए तत्पर होता है, जिससे सामूहिक रूप से समृद्धि और प्रगति होती है।

निष्कर्ष:-

"परहित सरिस धर्म नहिं भाई" एक ऐसा विचार है जो समाज में सद्भावना, सहयोग, और सामूहिक जिम्मेदारी की भावना को प्रोत्साहित करता है। यह विचार, धार्मिक और नैतिक दृष्टिकोण के साथ सामाजिक और आर्थिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है। आधुनिक युग में इस विचार को अपनाकर हम एक बेहतर और संतुलित समाज का निर्माण कर सकते हैं, जहाँ सभी के कल्याण का ध्यान रखा जा सके। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि समाज का विकास केवल तभी संभव है जब हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी को समझे और दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करे। यही इस विचारधारा का मूल संदेश है और यही सच्चा धर्म है।

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