प्रस्तावना
संगति का शाब्दिक अर्थ संग-संग गति होता है। संगति से तात्पर्य है, साथ, सोहबत, यारी, दोस्ती, साथ रहने का भाव इत्यादि।
मनुष्य के जीवन में संगति का बहुत गहरा असर पड़ता है। मनुष्य एक सामजिक प्राणी है जो आपसी रिश्तों से जुड़ा हुआ है। इसलिए समाज में लोग एक दूसरे की संगति में रहते हैं। मनुष्य जिस संगति में दीर्घ काल तक रहता है, उसका प्रभाव उस मनुष्य के उपर अवश्य पड़ता है। यह बात मनुष्य ही नहीं, पशु, पक्षियों तथा वनस्पतियों पर भी समान रूप से लागू होती है। उदाहरणार्थ यदि किसी मांसाहारी पशु को शाकाहारी पशुओं के झुंड में लंबे समय के लिए रख दिया जाए तो उसकी आदतों में धीरे-धीरे परिवर्तन हो जायेगा। यही नहीं, यदि किसी मानव को पशुओं की संगति में छोड़ दिया जाए तो कालांतर में वह अपने मनुष्य प्रवृत्ति को छोड़, पशुवत प्रवृत्ति को धारण कर लेगा। जैसी संगति होगी, आचरण कमोबेश वैसा ही होगा। जैसे कहावत है कि "जैसा संग, वैसा रंग"।
अर्थात् सत्संगति अज्ञानता दूर करती है। वाणी में सत्यता का
संचार करती है। उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है। पापों से दूर रखती है। चित्त में
खुशी देती है। यश को हर दिशाओं में फैलाती है। कहाँ तक कहें, सत्संगति पुरुषों के लिए
क्या नहीं कर सकती है?
अच्छी संगति जहाँ कुछ नया करने की प्रेरणा देती है, वहीं बुरी संगति, मनुष्य को पतन के अंधे कुंएं में गिरा देती है। मनुष्य का जीवन, आसपास के वातावरण तथा उसमें रहने वाले लोगों से प्रभावित होता है। संगति का प्रभाव मनुष्य, उसके परिवार के साथ ही समाज तथा राष्ट्र के उपर भी पड़ता है। सत्संग के प्रभाव से पापी, पुण्यात्मा बन जाते हैं और दुराचारी, सदाचारी बन जाते हैं।
इस कथन पर आधारित एक महत्वपूर्ण कहानी है-
रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि को भला कौन नहीं जानता है? वाल्मीकि का बचपन का नाम रत्नाकर था, जिसका डकैती और हत्यायें करना एकमात्र पेशा था। एक बार ऋषि-मंडली, जंगल से गुजर रही थी। डाकू रत्नाकर उनका रास्ता रोक लिया और जान से मारने की धमकी देने लगा। तब ऋषियों ने रत्नाकर से पूछा तुम ये पापकर्म क्यों करते हो? रत्नाकर ने कहा कि वह अपने परिवार के भरणपोषण के लिए ऐसा करता है। तब ऋषियों ने कहा कि तुम घर जाओ और अपने परिवार से पूछकर आओ कि तुम्हारे इस पापकर्म में, क्या वे भी भागीदार होंगे?
तब रत्नाकर ऋषियों को पेड़ से बांधकर घर गया और अपने परिवारजनों से पूछा कि उनके लिए वो जो पापकर्म कर रहा है, क्या उसके पापकर्म में वे लोग भी भागीदार होंगे? इस सवाल के जवाब में रत्नाकर के परिवार सभी लोग साफ मना कर दिया। वे बोले कि तुम्हारे इस पापकर्म में वे भागीदार बिल्कुल भी नहीं होंगे। अपने परिवार का ये जबाब सुनकर डाकू रत्नाकर का ऋषियों की कृपा से ज्ञानचक्षु खुल गया। वह वापस आकर, ऋषियों को बंधनमुक्त किया और प्रायश्चित स्वरूप उनके पैरों पर गिरकर, अपने बुरे कर्मों की माफ़ी मांगी। श्रृषियों ने प्रसन्न होकर उसे राम-राम जपने का आदेश दिया। वह राम-राम की जगह मरा-मरा जपते हुए घोर तपस्या किया और कालांतर में वही डाकू रत्नाकर, आदि-कवि महर्षि वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
सत्संगति का महत्व:
सत्संगति का जीवन में बहुत महत्व है। सत्संगति, वो पारस है जो दुर्जन रूपी लोहे को भी सज्जन रूपी कंचन में बदलने की क्षमता रखती है। सत्संगति से पापी और दुष्ट स्वभाव का व्यक्ति भी धीरे-धीरे धार्मिक और सज्जन प्रवृत्ति का बन जाता है। महान संतों और कवियों ने भी अपनी रचनाओं में सत्संग की महिमा का विशेष रूप से वर्णन किया है। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी सत्संग की महिमा का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि-
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिय तुला एक अंग।
अर्थात्, हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सभी सुखों को अगर तराजू के एक ही पलड़े पर रख दिया जाए तो वे दोनों सुख मिलकर भी उस सुख की बराबरी नहीं कर सकते, जो सुख, क्षणभर के सत्संग से मिलता है।
एक घड़ी आधो घड़ी, आधी की पुनि आध।
कबीर दास जी की रचनाओं में भी सत्संग की महिमा का सुंदर वर्णन देखने को मिलता है।
कबिरा संगति साधु की, ज्यों गंधी का वास।
रहीम कवि ने भी अपने दोहों के माध्यम से संगति के असर का बहुत ही सजीव वर्णन किया है-
कह रहीम कैसे निभै, बेर-केर के संग।
सत्संगति से लाभ:
सत्संगति, हमारे संपूर्ण जीवन की आधार-शिला है। मनुष्य के सर्वांगीण विकास में सत्संगति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।सत्संगति के अनगिनत लाभ हैं। जैसे –
- आत्म-विश्वास बढ़ता है।
- व्यक्ति में कर्त्तव्यनिष्ठा, स्वाभिमान, सद्भावना और सकारात्मक सोच, जैसे गुणों का उदय होता है।
- हमारे विचारों को सही दिशा मिलती है।
- जीवन की बड़ी से बड़ी कठिनाइयों का सामना हम दृढ़तापूर्वक कर सकते है।
- मनुष्य को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करती है।
- व्यक्ति को उच्च सामाजिक स्तर प्रदान करती है।
- मनुष्य के चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
- सत्संगति पाकर मनुष्य, चरित्रवान्, सत्यवादी, ईमानदार, विश्वासपात्र, गुणग्राही होता है।
- वह सुख, शांति और सन्तोष से जीता है।
- सत्संगति, हमें उन्नति के शिखर तक पहुंचाती है।
- विकास का मार्ग प्रशस्त होता है।
कुसंगति से हानि:
अगर कोई चरित्रवान व्यक्ति भी कुसंगति के चक्कर में पड़ जाये तो उनकी पूरी ज़िंदगी बर्बाद हो जाती है। जब कैकेयी जैसी विदुषी रानी जिन्हें अच्छे-बुरे की अच्छी परख थी, वे भी अपनी ही दासी, मन्थरा के बहकावे में आ गयीं और प्रभु श्री रामचन्द्र जी के बनवास और राजा दशरथ जी के मृत्यु का कारण बनीं। फिर हम तो ठहरे साधारण मनुष्य, जो हम कुसंगति के असर से, बेअसर हो कैसे सकते हैं?
कुसंगति से मनुष्य के अंदर बहुत सी विसंगतियां आ जाती हैं। जैसे-
- मनुष्यमात्र का पतन हो जाता है।
- कुसंगति, एक छूआछूत की बिमारी की तरह होती है, जिसमें इसकी संगति में आने वाले हर इंसान के गुणों को कुसंगति का जहर समाप्त कर देता है।
- बुरी संगति में आकर अच्छे बच्चे भी बिगड़ जाते हैं और उनके जीवन के प्रगति का मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं।
- कुसंगति से अनुशासनहीनता आती है।
- नैतिकता का पतन हो जाता
है जिससे व्यक्ति अपना सामाजिक एवं राष्ट्रधर्म भूल जाता है।
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