क्यों शिक्षा और ज्ञान ही जीवन की सबसे बड़ी पूँजी है?
भूमिका:
मानव जीवन में धन का महत्व निर्विवाद है। धन से जीवन की अनेक आवश्यकताएँ जैसे— भोजन, वस्त्र, आवास, सुविधा और सुरक्षा, पूरी होती हैं। लेकिन क्या केवल भौतिक धन ही जीवन को सार्थक और सफल बना सकता है? भारतीय संस्कृति और जीवन के अनुभव, दोनों ही बताते हैं कि सच्चा और सर्वोत्तम धन “विद्या-धन” है।
धन, जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करता है, लेकिन जीवन को दिशा देने का काम केवल विद्या-धन करता है। विद्या, वह धन है जो कभी नष्ट नहीं होता और जीवन के हर मोड़ पर हमारा मार्गदर्शन करता है।
विद्या वह धन है जो न चोरी होता है, न नष्ट होता है और न ही बाँटने से घटता है। बल्कि इसे जितना बाँटो, उतना ही बढ़ता है। यही कारण है कि विद्या-धन को सभी धनों में श्रेष्ठ माना गया है।
इस ब्लॉग में हम सरल और व्यवहारिक भाषा में यह समझेंगे कि विद्या-धन क्या है, इसका महत्व क्या है, यह भौतिक धन से श्रेष्ठ क्यों है और आज के आधुनिक जीवन में विद्या-धन कैसे हमारे भविष्य को सुरक्षित बनाता है?
विद्या-धन क्या है?
विद्या-धन का वास्तविक मतलब भौतिक धन-संपत्ति से कहीं अधिक गहरा और व्यापक होता है। इसका तात्पर्य केवल किताबी ज्ञान या डिग्री से नहीं है, बल्कि इसका अर्थ जीवन के हर क्षेत्र में प्राप्त किये गए ज्ञान, अनुभव, बुद्धिमत्ता, गलत-सही का बोध और जीवन जीने की कला से है।
संक्षेप में कहें तो विद्या-धन वह आंतरिक संपत्ति है जो व्यक्ति के सोचने, समझने और सही निर्णय लेने की क्षमता को मजबूत बनाती है।
भारतीय संस्कृति में विद्या-धन का महत्व
भारतीय परंपरा में विद्या को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया गया है— “न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते”
अर्थात् ज्ञान के समान पवित्र इस संसार में कुछ भी नहीं है।
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥
एक राजा और विद्वान की तुलना कभी नहीं हो सकती; क्योंकि राजा तो केवल अपने राज्य में सम्मान पाता है जबकि विद्वान सर्वत्र सम्मान पाता है।
न चौरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धत एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्॥
विद्याधन ऐसा धन है कि इसे न तो कोई चुरा सकता है, न राजा छीन सकता, न तो भाई इसका बंटवारा कर सकते और न ही यह किसी तरह का बोझ बनता है। यही एक ऐसा धन है जो खर्च करने पर नित्य बढ़ता है। इसीलिये तो विद्याधन, सर्वोत्तम धन है।
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा ॥
अर्थात् वह माता शत्रु है और पिता बैरी के समान है जो अपने बच्चों को पढ़ाया नहीं। क्योंकि विद्या से विहीन बच्चे, सभा में उसी प्रकार शोभा नहीं पाते जैसे हंसों के बीच बगुला।
प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था में शिक्षा को जीवन के निर्माण का सशक्त माध्यम माना जाता था। माता-पिता अपने बच्चों को धन के साथ-साथ विद्या देना अपना सबसे बड़ा कर्तव्य मानते थे।
विद्या-धन की विशेषताएँ:
विद्या-धन, ऐसा धन है जिसे प्राप्त कर महामूर्ख भी पूज्यनीय और ख्याति को प्राप्त हो जाता है। यहाँ हम कुछ चुनिंदा महापुरुषों के उदाहरण देंगे जो अपने जीवन के शुरुआती दिनों में या तो महामूर्ख या पथभ्रष्ट थे परंतु बाद में विद्याधन अर्जित कर इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए अमर हो गये।
१. महर्षि बाल्मीकि: महर्षि बाल्मीकि शुरू में रत्नाकर नामके डकैत हुआ करते थे। लूटमार ही उनका पेशा था। उसी से वे अपने परिवार का भरणपोषण करते था। परंतु दैववश उनकी मुलाकात श्रृषियों से हुई। वे उन्हें भी लूटने का प्रयास किया। तब उन्होंने रत्नाकर से पूछा कि तुम जो ये पापकर्म कर रहे हो, क्या इसमें तुम्हारे परिवार के लोग भी भागीदार होंगे? तब रत्नाकर श्रृषियों को पेड़ से बांधकर घर गया और परिजनों से पूछा कि मैं जो ये लूटमार का धन्धा कर रहा हूँ, आप-सब लोगों के लिए ही तो कर रहा हूँ तो आप-सभी तो जरूर मेरे इस पापकर्म में भागीदार होंगे? परिवार के लोगों ने उसके इस पापकर्म में भागीदार होने से साफ मना कर दिया। यह सुनकर डाकू रत्नाकर की आंखें खुल गयीं और वापस आकर श्रृषियों के पैरों में गिरकर क्षमा मांगी और अपने उद्धार का उपाय पूछा। तब श्रृषियों ने उसे "राम-नाम" जपने को कहा किन्तु उस मूर्ख को राम शब्द बोलना मुश्किल था। तब ऋषियों ने सोचा कि यह मूर्ख तो आजीवन मारने-मरने का काम किया है इसलिए "मरा" शब्द का जाप करने को कहा। चूंकि मरा शब्द का बार बार उच्चारण करने से स्वत: राम शब्द हो जाता है। इस तरह रामनाम जपकर वही डाकू रत्नाकर विद्वत्ता को प्राप्त हुए और आदिकवि महर्षि बाल्मीकि के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने महान ग्रंथ "रामायण" की रचना संस्कृत में किया।
२. कालिदास: विश्वप्रसिद्ध नाटक "अभिज्ञान शाकुंतलम्" के रचनाकार कालिदास जी पहले बज्र मूर्ख थे। उनकी मूर्खता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि वे पेड़ की जिस डाली पर बैठे थे, उसी को काट रहे थे। तत्कालीन विद्वानों ने उसका विवाह छल करके उस समय की महान विदुषी विद्योत्तमा से प्रतिशोधवश करा दिया। बाद में विद्योत्तमा को पता चला कि उसका पति तो महामूर्ख है, तब उसने अपने पति को अपमानित कर घर से बाहर निकाल दिया। अपमानित होकर वह मूर्ख सीधे काली के मंदिर में जाकर घोर तपस्या की और विद्याधन अर्जित किया। तदोपरांत अभिज्ञान शाकुंतलम नामक महान ग्रंथ की रचना संस्कृत भाषा में किया जिसका अनुवाद दुनियाँ की अनेक भाषाओं में हुआ है। वे सम्राट विक्रमादित्य के नवगुणियों में शामिल थे।
विद्या-धन और भौतिक धन में अंतर:
भौतिक धन विद्या-धन
बंटवारा होता है। बंटवारा नहीं हो सकता।
चोरी हो सकता है। चोरी नहीं हो सकता।
खर्च करने से घटता है। बाँटने से बढ़ता है।
अस्थायी होता है। स्थायी होता है।
अहंकार बढ़ा सकता है। विनम्रता सिखाता है
संकट में छिन सकता है। संकट में सहारा बनता है।
विद्या-धन, सर्वोत्तम धन क्यों है?
विद्या को सर्वोत्तम धन कहा गया है, क्योंकि विद्या-धन —
आजीवन साथ रहती है: धन, संपत्ति और पद, समय के साथ बदल सकते हैं लेकिन विद्या जीवन-भर व्यक्ति के साथ रहती है। परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, ज्ञान व्यक्ति को नए रास्ते खोजने की क्षमता देता है।
व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाती है: जिस व्यक्ति के पास विद्या-धन होता है, वह कभी भी पूरी तरह असहाय नहीं होता। ज्ञान उसे रोजगार, व्यवसाय और समस्या-समाधान के नए अवसर प्रदान करता है।
सही निर्णय लेने की शक्ति देती है: जीवन में गलत निर्णय अक्सर अज्ञान के कारण होते हैं। विद्या, व्यक्ति को सोच-समझकर निर्णय लेने की समझ देती है, जिससे जीवन में पछतावे कम होते हैं।
व्यक्तित्व को निखारती है: सच्ची विद्या केवल बुद्धि ही नहीं बढ़ाती बल्कि सत्चरित्र का भी निर्माण करती है। विद्या से व्यक्ति के अंदर आत्मविश्वास, धैर्य, अनुशासन, विनम्रता के गुण विकसित होते हैं।
समाज और राष्ट्र को मजबूत बनाती है: शिक्षित व्यक्ति न केवल अपने लिए बल्कि समाज और देश के लिए भी सशक्त बनता है। सच कहें तो राष्ट्र की प्रगति का आधार ही विद्या-धन होता है।
विद्या-धन कैसे अर्जित करें? (व्यवहारिक उपाय)
१. निरंतर सीखने की आदत डालें
सीखना, केवल स्कूल-कॉलेज तक सीमित नहीं होना चाहिए।अच्छी किताबें पढ़ें। नए कौशल सीखें और जीवन के अनुभवों से सीख लें।
२. केवल कागजी डिग्री नहीं, समझ विकसित करें
रट्टा लगाने वाली विद्या उपयोगी नहीं होती। इसलिए विषय को समझने और उसे जीवन में लागू करने का प्रयास करें।
३. अच्छे लोगों की संगति करें
कहा जाता है कि, "जैसा संग, वैसा रंग।" ज्ञानवान और सकारात्मक लोगों के साथ रहने से विद्या-धन स्वतः बढ़ता है।
४. अपनी गलतियों से सीखें
गलतियाँ, विद्या का बड़ा स्रोत भी होती हैं। जो व्यक्ति अपनी गलतियों से सीख लेता है, सच मायने में वही विद्या का धनी होता है।
५. विद्या का उपयोग समाज के लिए करें
ज्ञान का सही उपयोग ही मनुष्य के जीवन को सार्थक बनाता है। जब विद्या दूसरों के काम आए, तभी वह सच्चा धन बनती है।
आधुनिक युग में विद्या-धन का महत्व:
आधुनिक युग में विद्याधन सबसे स्थायी और मूल्यवान संपत्ति है। धन, संपत्ति और पद समय के साथ नष्ट हो सकते हैं, लेकिन विद्या मनुष्य के साथ जीवनभर रहती है। यह रोजगार, आत्मनिर्भरता और सामाजिक सम्मान प्रदान करती है।
विद्याधन से व्यक्ति में सही-गलत का विवेक, तार्किक सोच और समस्याओं का समाधान करने की क्षमता विकसित होती है। तकनीकी प्रगति, प्रतिस्पर्धा और तेजी से बदलते समय में केवल वही व्यक्ति सफल होता है जो निरंतर सीखता रहता है।
साथ ही, विद्या समाज और राष्ट्र के विकास का आधार है। शिक्षित नागरिक ही एक सशक्त, जागरूक और प्रगतिशील समाज का निर्माण करते हैं। इसलिए आधुनिक युग में विद्याधन न केवल व्यक्तिगत उन्नति, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय विकास के लिए भी अत्यंत आवश्यक है।
निष्कर्ष:
“विद्या-धन: सर्वोत्तम धन” केवल एक कहावत नहीं, बल्कि जीवन का गहरा सत्य है। भौतिक धन आवश्यक है, लेकिन विद्या-धन के बिना वह अधूरा है। विद्या-धन— "जीवन को दिशा देता है। व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाता है और समाज तथा राष्ट्र को सशक्त करता है।"
इसलिए हमें अपने जीवन में सबसे अधिक निवेश, विद्या-धन में करना चाहिए, क्योंकि यही वह धन है जो कभी कम नहीं होता, बल्कि जीवन के हर मोड़ पर हमारा सबसे बड़ा सहारा बनता है।
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