17 दिसंबर 2025

वास्तविकता से दूर दिखावटी जीवन: दुख, तनाव और असंतोष का असली कारण

आज का युग बाहरी चमक-दमक का युग है। हर व्यक्ति सुंदर दिखना चाहता है, सफल कहलाना चाहता है और दूसरों से आगे निकलने की होड़ में लगा हुआ है। लेकिन इस दौड़ में एक बड़ी सच्चाई कहीं पीछे छूटती जा रही है, और वो है वास्तविकता। हम जो नहीं हैं, वैसा दिखने की कोशिश कर रहे हैं। जो हमारे पास नहीं है, उसे दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। यही दिखावटी जीवन धीरे-धीरे हमारे मन, रिश्तों और आत्मिक शांति को खोखला कर रहा है। 

आज के आधुनिक और प्रतिस्पर्धी समाज में अधिकतर लोग दिखावे की जिंदगी जी रहे हैं। इसमें वे इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि अपनी वास्तविकता खो देते हैं। वास्तविकता से उनका नाता पूरी तरह टूट जाता है। 

मनुष्य को छोड़कर, प्रकृति में विद्यमान कोई भी प्राणी दिखावटीपन नहीं जानता है। अपने आप को सबसे विकसित प्राणी का खिताब लिये फिरता मनुष्य ही एकमात्र प्राणी है जो दिखावटी जीवन जीवन जीता है। 

दिखावटीपन से भरा जीवन बाहर से आकर्षक, लेकिन अंदर से खोखला होता है। सच्चा सुख, सुकून और संतोष तभी मिलता है जब हम अपनी हैसियत में, सच्चाई के साथ सरल और ईमानदार जीवन जिएँ।

वास्तविकता से दूर दिखावटी जीवन कैसे दुख, तनाव और मानसिक अशांति को जन्म देता है— इसे जानिए सरल और व्यवहारिक उपायों के साथ।

दिखावटी जीवन क्या है? दिखावटी जीवन का अर्थ है—

  • अपनी वास्तविक स्थिति को छिपाकर दूसरों के सामने झूठी छवि प्रस्तुत करना। 
  • दूसरों को प्रभावित करने के लिए बनावटी जीवन जीना।
  • सोशल-मीडिया, समाज या रिश्तों में खुद को वास्तविकता से अलग कुछ और साबित करना। 

जब व्यक्ति भीतर से कुछ और होता है और बाहर कुछ और दिखता है, तब उसके जीवन में आंतरिक टकराव शुरू हो जाता है। यही टकराव आगे चलकर तनाव, दुख और अवसाद का रूप ले लेता है।

लोग दिखावा करते ही क्यों हैं? 

अ) समाज की भूमिका: आज के लोगों को दिखावे में अधिक विश्वास रखने का सबसे बड़ा कारण है समाज का नजरिया। क्योंकि आज का समाज, आपका नैतिक मूल्य, आपके संस्कार, आपकी विचारधारा, आपके चरित्र को नहीं देखता। वो तो आज आपका स्टेटस देखता है। वो आपके रूपये-पैसे, बैंक-बैलेंस, धन-दौलत, गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर, बड़ा कारोबार देखता है और इसी से आपकी कीमत आंकता है। चूंकि हर इंसान सम्मान-शोहरत चाहता है और वास्तविक तरीके से हासिल न कर पाने की स्थिति में दिखावा करने लगता है। 

ब) सोशल मीडिया और दिखावे की संस्कृति: आज सोशल मीडिया, दिखावे का सबसे बड़ा मंच बन चुका है। कोई अपनी खुशियों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखा रहा है तो कोई अपनी दौलत, घूमने-फिरने और लग्ज़री लाइफ को। कोई अपने रिश्तों को सही साबित करने में लगा है। लेकिन सच्चाई यह है कि हर मुस्कुराती तस्वीर के पीछे एक अनकही कहानी छुपी होती है, फिर भी हम दूसरों की पोजीशन और ओहदा देखकर खुद को उनसे कमतर समझने लगते हैं जिससे हमारा आत्मविश्वास धीरे-धीरे खत्म होने लगता है और दिखावे की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है।

(स) क्षणिक सुख की तलाश: वास्तविकता से दूर क्षणिक सुख की तलाश मनुष्य को दिखावा करने को प्रेरित करती है। 

(द) अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिए: कुछ लोग अपनी वास्तविकता, सच्चाई और कमजोरियों को छिपाने के लिए तथा खुद की झूठी छवि दूसरों के सामने पेश करने के लिए बनावटीपन का सहारा लेते हैं।

दिखावटी जीवन के दुष्प्रभाव:

  • मानसिक तनाव और चिंता बढ़ती है। 
  • आर्थिक समस्याएँ पैदा होती हैं। 
  • रिश्तों में खोखलापन आ जाता है।
  • आत्मसंतोष खत्म हो जाता है। 
  • वास्तविक पहचान खो जाती है। 
  • नैतिक मूल्यों का पतन हो जाता है। 
  • मानसिक शांति और सुख नष्ट हो जाता है। 
  • बच्चों और समाज पर गलत प्रभाव पड़ता है। 
  • दिखावटी जीवन का सबसे खतरनाक परिणाम है, "तुलना" जो हमें असंतोष के करीब ले जाती है। 

वास्तविकता से जुड़ा जीवन क्या है? वास्तविकता से जुड़ा जीवन वह है जिसमें, "व्यक्ति खुद को स्वीकार करता है। अपनी सीमाओं और क्षमताओं को बखूबी समझता है। दूसरों की नकल नहीं करता और सरल तथा संतुलित जीवन जीता है। ऐसा जीवन भले ही बाहर से साधारण दिखे, लेकिन भीतर से शांत और संतुष्ट होता है।

संतोष: सुख की असली कुंजी- दिखावे के जीवन में कभी संतोष नहीं होता। लेकिन वास्तविक जीवन का सबसे बड़ा गुण है—संतोष। जब व्यक्ति यह समझ लेता है कि “जो मेरे पास है, वही मेरे लिए पर्याप्त है” तो उसके जीवन से आधे दुख अपने आप खत्म हो जाते हैं।

खुद से ईमानदार होना क्यों ज़रूरी है? दुख तब बढ़ता है जब हम खुद से झूठ बोलते हैं। अपनी कमजोरी स्वीकार नहीं करते। अपनी असफलता से भागते हैं। अपनी भावनाओं को दबाते हैं। लेकिन जब हम खुद से ईमानदार होते हैं, तब जीवन सरल हो जाता है। ईमानदारी हमें मानसिक शांति देती है।

दिखावे की जिंदगी से छुटकारा पाने के व्यवहारिक उपाय:-

१. दूसरों से अपनी तुलना करना छोड़ें: चूंकि हर व्यक्ति की परिस्थितियाँ एक दूसरे से अलग होती हैं, इसलिए तुलना नहीं करना चाहिए। तुलना केवल दुख बढ़ाती है।

२. सोशल मीडिया का सीमित उपयोग करें: हमेशा याद रखें, "सोशल मीडिया पर दिखने वाला जीवन पूरी तरह सच नहीं होता।

३. अपनी क्षमताओं को पहचानें: दूसरों के जैसा बनने की जगह, अपनी क्षमता को पहचान कर खुद को बेहतर बनाएं।

४. सादगी अपनाएं: सादगी, केवल जीवनशैली नहीं बल्कि मानसिक शांति का सशक्त माध्यम है।

५. रिश्तों में सच्चाई रखें: जो जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार करें और खुद को भी वैसा ही रखें।

सादा जीवन, उच्च विचार: यह कहावत आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। जो व्यक्ति सरल जीवन जीता है, वही वास्तव में सुखी रहता है। दिखावा, क्षणिक वाहवाही दिला सकता है, लेकिन जीवन में स्थायी शांति तो वास्तविकता से ही आती है।

आज के समय की सबसे बड़ी आवश्यकता: आज हमें जरूरत है, "अपने भीतर झाँकने की, अपने जीवन की वास्तविकता को समझने की और खुद से जुड़ने की।" जब हम खुद से जुड़ते हैं, तब हमें किसी को प्रभावित करने की जरूरत ही नहीं रहती।

निष्कर्ष:

वास्तविकता से दूर दिखावटी जीवन जीना ही दुखों का असली कारण है। दिखावा हमें दूसरों से जोड़ता नहीं, बल्कि खुद से तोड़ देता है। अगर हम सच में सुखी रहना चाहते हैं, तो हमें यह साहस करना होगा कि, "हम जैसे भी हैं, जिस हालत में हैं, संतुष्ट रहें और जीवन को प्रदर्शन नहीं, अनुभव समझें।"

याद रखिए— जो जीवन दिखाने के लिए जिया जाए, वह थका देता है और जो जीवन सच्चाई से जिया जाए, वही सुकून देता है। 

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16 दिसंबर 2025

भारत में अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती असमानता: कारण, प्रभाव और समाधान

भारत, आज दुनियाँ की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। एक ओर भारत में अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है, तो दूसरी ओर करोड़ों लोग आज भी दो वक्त की रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मानजनक जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह स्थिति अमीर और गरीब के बीच बढ़ती असमानता को उजागर करती है।

यह असमानता केवल आर्थिक ही नहीं है, बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक, डिजिटल और अवसरों की असमानता भी है। प्रश्न यह है कि भारत में यह खाई क्यों बढ़ रही है, इसके क्या परिणाम हैं और इससे निपटने के उपाय क्या हो सकते हैं?

अमीर-गरीब के बीच असमानता क्या है?

अमीर और गरीब के बीच असमानता का मतलब है—"आय और संपत्ति का असमान वितरण, अवसरों तक असमान पहुँच एवं जीवन स्तर में भारी अंतर का होना।"

देश में जहाँ कुछ लोग आलीशान जीवन जीते हैं, वहीं बड़ी आबादी अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने लिए दिन-रात अथक परिश्रम करती है।

भारत में असमानता की वर्तमान स्थिति:- बीबीसी की एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार-

  • भारत की कुल आमदनी का ५८% हिस्सा केवल १०% लोग ही कमा रहे हैं जबकि निचले तबके के ५०% लोगों का भारत की आमदनी में केवल १५% ही भागीदारी है। 
Source : Prabhat Khabar
  • देश के १०%  सबसे अमीर लोग ही ६५% सम्पत्ति के मालिक हैं और इनमें से टाॅप मात्र १% अमीर लोगों के पास देश की कुल ४०% सम्पत्ति है। 
  • ग्रामीण और शहरी जीवन-स्तर में भारी अंतर है। 
  • संगठित और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की आय में बड़ा अंतर है। 
  • निजी और सरकारी शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में गहरी खाई है। 

अमीर और गरीब के बीच बढ़ती असमानता के प्रमुख कारण:-

१. आय का असमान वितरण: देश की आर्थिक वृद्धि का लाभ सभी वर्गों तक समान रूप से नहीं पहुँचता। बड़े उद्योगपति और कॉर्पोरेट क्षेत्र अधिक लाभ कमाते हैं, जबकि मजदूर वर्ग की आय सीमित रहती है।

२. शिक्षा में असमानता: अमीर वर्ग के बच्चे महंगे, निजी स्कूलों और विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं जबकि गरीब तबके का बड़ा वर्ग आज भी सरकारी स्कूलों की कमजोर व्यवस्था पर निर्भर है। शिक्षा की यह बड़ी असमानता आगे चलकर रोजगार और आय की गहरी खाई में बदल जाती है।

३. बेरोज़गारी और शोषण: भारत में बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या है। असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों का खुला शोषण होता है। उन्हें उनके श्रम के हिसाब से,न तो उचित आय मिलती है और ना ही सामाजिक सुरक्षा। महँगाई के मुकाबले उनकी मजदूरी भी नहीं बढ़ती। 

४. स्वास्थ्य सेवाओं तक असमान पहुँच: अमीर लोग निजी अस्पतालों में बेहतर इलाज करा सकते हैं, जबकि गरीब लोगों को सरकारी अस्पतालों की सीमित सुविधाओं के लिए भूखे-प्यासे रहकर दिन भर लाइन में लगना पड़ता है। 

५. ग्रामीण-शहरी विभाजन: शहरों में रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएँ हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बुनियादी ढांचे की भारी कमी है।

६. जाति, वर्ग और सामाजिक भेदभाव: जातिगत भेदभाव और सामाजिक पृष्ठभूमि भी असमानता को बढ़ाती है। भारत में ही कई समुदाय आज भी विकास की मुख्यधारा से कटे हुए हैं।

७. कर-व्यवस्था और नीतियाँ: सरकार की कर-व्यवस्था और आर्थिक नीतियाँ अमीरों के पक्ष में अधिक अनुकूल होती हैं, जिससे संपत्ति कुछ चुनिंदा लोगों के हाथों में सिमटती जाती है।

अमीर-गरीब के बीच असमानता के दुष्परिणाम:-

१. सामाजिक तनाव और असंतोष: असमानता से समाज में असंतोष, अपराध और हिंसा बढ़ती है।

२. लोकतंत्र पर नकारात्मक प्रभाव: जब धन कुछ चुनिंदा लोगों के पास केंद्रित हो जाता है तब सरकार की नीति-निर्धारण पर भी उन्हीं का प्रभाव बढ़ता है।

३. गरीबी का दुष्चक्र: गरीबी पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है, क्योंकि गरीबों को आगे बढ़ने के अवसर नहीं मिलते।

४. आर्थिक विकास में बाधा: जब बड़ी आबादी की क्रय-शक्ति कम होती है, तो अर्थव्यवस्था की गति भी धीमी पड़ती है।

५. सामाजिक एकता को खतरा: अत्यधिक असमानता समाज को अलग-अलग वर्गों में बाँट देती है, जिससे उनके अंदर “हम” और “वे” जैसी विघटनकारी भावनाएँ जन्म लेती है।

क्या असमानता पूरी तरह खत्म हो सकती है?

इस असमानता को पूरी तरह समाप्त करना शायद संभव न हो, परंतु इसे काफी हद तक कम अवश्य किया जा सकता है जिससे हर नागरिक को समाज में सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर मिल सकता है।

भारत में असमानता कम करने के उपाय:-

१. गुणवत्तापूर्ण और समान शिक्षा

  • सरकारी स्कूलों की शिक्षा-गुणवत्ता सुधारना
  • डिजिटल-शिक्षा को ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुँचाना
  • कौशल विकास पर ज़ोर

२. रोजगार सृजन

  • छोटे और मध्यम उद्योगों को बढ़ावा
  • ग्रामीण रोजगार योजनाओं का प्रभावी क्रियान्वयन
  • स्वरोजगार और स्टार्टअप को समर्थन

३. स्वास्थ्य सेवाओं का सुदृढ़ीकरण

  • सरकारी अस्पतालों में बेहतर सुविधाएँ
  • सस्ती और सुलभ स्वास्थ्य सेवाएँ

४. न्यायसंगत कर-प्रणाली

  • अमीरों पर उचित कर
  • टैक्स चोरी पर सख्ती
  • सामाजिक कल्याण योजनाओं में पारदर्शिता

५. सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ

  • वृद्धावस्था पेंशन
  • बीमा योजनाएँ
  • गरीबों के लिए न्यूनतम आय सुरक्षा

६. ग्रामीण विकास पर विशेष ध्यान

  • कृषि सुधार
  • सिंचाई और भंडारण सुविधाएँ
  • ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा देना

७. डिजिटल असमानता को कम करना

  • इंटरनेट और तकनीक की पहुँच हर गाँव हर वर्ग तक
  • डिजिटल साक्षरता अभियान

असमानता को दूर करने में सरकार, समाज और व्यक्ति की भूमिका:-

सरकार की भूमिका: समावेशी नीतियाँ बनाना। शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश एवं भ्रष्टाचार पर नियंत्रण। 

समाज की भूमिका: सामाजिक भेदभाव का खुलकर विरोध जताना। संवेदनशीलता, सहयोग और सामूहिक प्रयास। 

व्यक्ति की भूमिका: जागरूक एवं जिम्मेदार नागरिक बनना। ईमानदारी से कर चुकाना और जरूरतमंदों की सहायता करना।

निष्कर्ष:

भारत में अमीरों और गरीबों के बीच असमानता केवल आर्थिक समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक चुनौती भी है। यदि समय रहते इस पर प्रभावी कदम नहीं उठाए गए, तो यह असमानता भविष्य में देश की स्थिरता, अखंडता और संप्रभुता के लिए गंभीर खतरा बन सकती है।

एक सशक्त, समावेशी और न्यायपूर्ण भारत के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि विकास का लाभ समाज के हर वर्ग तक पहुँचे। तभी “सबका साथ, सबका विकास” का सपना साकार हो सकेगा।

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14 दिसंबर 2025

बुजुर्गों की आज दयनीय दशा: जिम्मेदार कौन?

भारत में वृद्धजनों को आदर एवं सम्मान की दृष्टि से देखा जाता रहा है। हिन्दू संस्कृति में माता-पिता और गुरु का स्थान श्रेष्ठ और पूज्यनीय बताया गया है। पहले संयुक्त परिवार में माता-पिता और बड़े-बुजुर्गों का आदर और सम्मान होता था। परिवार में उनकी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती थी। महत्वपूर्ण मसलों पर उनसे सलाह-मशविरा किया जाता था। 

आज के आधुनिक और तेजी से बदलते दौर में जहाँ तकनीक, शिक्षा तथा अवसरों का तेजी से विस्तार हुआ है। वहीं संयुक्त परिवार विघटित होकर एकल परिवार में तब्दील हो गया और समाज का एक बड़ा वर्ग—"बुजुर्ग"—दिन-प्रतिदिन उपेक्षा, अकेलेपन और असहाय की स्थिति का सामना कर रहा है। बुजुर्गों को जब सहारे की नितांत आवश्यकता होती है, तो आज का प्रगतिशील समाज उन्हें बोझ समझने लगता है और बेसहारा छोड़ देता है। 

यह स्थिति कोई एक दिन में नहीं बनी, बल्कि समय के साथ कई कारणों ने मिलकर इसे और गंभीर बना दिया। अब सवाल ये है कि बुजुर्गों की इस दयनीय दशा के लिए जिम्मेदार कौन? परिवार, समाज, या फिर व्यवस्था? 

यह ब्लॉग इसी संवेदनशील मुद्दे को सरल भाषा में समझाता है और व्यवहारिक समाधानों की ओर भी संकेत करता है।

१. बुजुर्गों की दयनीय दशा—समस्या कितनी गहरी है?

  • आज भारत में बुजुर्गों का प्रतिशत तेजी से बढ़ रहा है।
  • जीवन-प्रत्याशा बढ़ने से लोग अधिक उम्र तक जी रहे हैं, पर जीवन की गुणवत्ता घट रही है।
  • सम्मान, प्यार और सुरक्षा कम होती जा रही है।

कुछ समस्याओं ने मिलकर आज बहुत गंभीर स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें बुजुर्ग अपने ही घर में पराये और समाज में बोझ जैसे महसूस करते हैं। जैसे-

  • परिवार में उपेक्षा, प्रेम और सम्मान की कमी
  • आर्थिक असुरक्षा
  • अकेलापन और मानसिक तनाव
  • स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी सीमित पहुँच
  • सामाजिक तिरस्कार
  • सरकारी योजनाओं का वास्तविक लाभ न मिल पाना

२. बुजुर्गों में बढ़ता मानसिक तनाव और अकेलापन

अकेलापन आज बुजुर्गों की सबसे बड़ी समस्या बन चुका है। वे अपने ही घर-परिवार में अकेले हो जाते हैं, क्योंकि-

  • कोई उनसे बात करने वाला नहीं होता।
  • सब अपने-आप में व्यस्त रहते हैं। 
  • मोबाइल और टीवी के बीच बुजुर्गों के लिए कोई जगह नहीं। 
  • सामाजिक मेलजोल घट गया। 
  • रिश्तेदारों में परवाह कम। 

३. बुजुर्गों की दयनीय दशा का जिम्मेदार कौन? 

तो आइए हम इस सवाल को कुछ प्रमुख हिस्सों में समझते हैं।

(अ) परिवार— जो हर बुजुर्ग की सुरक्षा और मानसिक शांति की पहली जगह होता है, लेकिन आज कई परिवारों में-

  • बुजुर्गों की जरूरतें नजरअंदाज की जाती हैं। 
  • उनके अनुभवों को महत्व नहीं दिया जाता। 
  • उनकी राय को पारिवारिक हस्तक्षेप माना जाता है। 
  • निर्णय लेने का अधिकार छिन जाता है। 
  • उनसे कोई बातचीत नहीं करता है, वे अकेलेपन में जीते हैं। 
  • बुजुर्गों के प्रति संवेदनशीलता कम हुई है।
  • कई पैसे वाले घरों में बुजुर्ग केयर-टेकर के भरोसे हैं। 

(ब) समाज— जहाँ बुजुर्ग ‘बोझ’ की तरह देखा जाने लगा है।  बुजुर्ग समाज की रीढ़ होते हैं और अनुभव के खजाने। लेकिन आधुनिकता की अंधी दौड़ में समाज उनके योगदान को भूलता जा रहा है। समाज अक्सर युवाओं की सफलता का जश्न तो मनाता है लेकिन बुजुर्गों के आजीवन संघर्ष पर चुप्पी साध लेता है। आज समाज में एक खतरनाक सोच फैल रही है कि बुजुर्ग-

  • पुराने विचारों वाले होते हैं। 
  • आधुनिकता को समझ नहीं पाते। 
  • प्रगति में बाधक होते हैं। 
  • आर्थिक रूप से किसी काम के नहीं होते। 

(स) व्यवस्था— सरकार और व्यवस्था की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। बुजुर्गों के लिए कई योजनाएँ हैं, लेकिन वहाँ-

  • सबको जानकारी नहीं होती। 
  • भ्रष्टाचार भी बहुत है। 
  • प्रक्रियाओं की जटिलता होती है।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों का अभाव।      
  • पेंशन का इंतजाम नहीं। 
  • स्वास्थ्य बीमा नहीं। 
  • आधारभूत सेवाओं की कमी। 
(द) आर्थिक कारण 
  • महंगाई बढ़ रही है। 
  • स्वास्थ्य-खर्च, मेडिकल बिल बहुत तेजी से बढ़ रहा है। 
  • परिवार पर निर्भरता बढ़ रही है। 
  • आर्थिक असुरक्षा, बुजुर्गों को और कमजोर बनाती है। 
(य) बुजुर्गों की भूमिका 
  • नई पीढ़ी के युवाओं के साथ तालमेल न बना पाना। 
  • पुराने सोच-विचार और कार्यशैली को ही श्रेष्ठ मानना। 
  • परंपरागत हठधर्मिता को न छोड़ पाना। 

४. बदलती जीवनशैली और आधुनिकता का प्रभाव

पहले संयुक्त परिवार थे, एकसाथ रहने का अपना एक मूल्य था, लेकिन आज एकल परिवार में-

  • मोबाइल पर समय है पर बुजुर्गों के लिए १० मिनट नहीं।
  • करियर प्राथमिकता है, रिश्तों के लिए जगह कम। 
  • नौकरी के लिए बच्चों और युवाओं का बड़े शहरों और विदेशों में पलायन। 
  • भौतिकवाद बढ़ा पर सामाजिक जुड़ाव कम हुआ। 
  • तनाव और व्यस्तता ने संवेदनाएं कम कर दीं। 
  • सुविधाएँ बढ़ीं, लेकिन भावनाएँ घट गईं।
  • बुजुर्गों को बोझ और परिवार की निजता में बाधक समझा जाने लगा। 

५. क्या इस समस्या के लिए केवल बच्चों को ही दोष देना उचित है?

बुजुर्गों की दुर्दशा की पूरी जिम्मेदारी सिर्फ बच्चों पर डालना भी सही नहीं है, क्योंकि-

  • आज नौकरी का दबाव बहुत बड़ा है। 
  • समय की कमी वास्तविक है। 
  • आर्थिक बोझ बढ़ा है। 
  • बच्चों में इस तरह के संस्कार के जिम्मेदार कहीं न कहीं उनके माता-पिता और परिवार भी होते हैं। 
  • मानसिक तनाव युवाओं में भी ज्यादा है। 
  • कई बार बुजुर्ग बदलते माहौल को स्वीकार नहीं कर पाते। 

६. समस्या का समाधान—स्थिति कैसे बदले?

समस्या बड़ी है, लेकिन समाधान भी संभव हैं। यह बदलाव निम्न स्तरों पर होना चाहिए—

(अ) परिवार क्या कर सकता है?

  • बुजुर्गों को समय दें। 
  • उनकी बात सुनें और उचित सम्मान दें। 
  • निर्णय लेने में उनकी भूमिका रखें। 
  • भावनात्मक समर्थन दें। 
  • उनकी जरूरतों और मनोरंजन का ख्याल रखें। 
  • पुरानी और नई पीढ़ी के बीच पुल बनाएं। 
  • उन्हें अकेले में रहने या घर छोड़ने पर विवश न करें। 
  • उन्हें भी डिजिटल दुनियाँ से जोड़ें। 

(ब) समाज क्या कर सकता है?

  • बुजुर्गों के लिए सामुदायिक गतिविधियाँ बढ़ाना। 
  • वरिष्ठ नागरिक क्लब, योग-केंद्र, हेल्थ-कैंप की सुविधा। 
  • उनके अनुभवों को महत्व देना। 
  • उनमें सकारात्मक सोच विकसित करना। 
  • बुजुर्गों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाना। 

(स) सरकार और व्यवस्था की भूमिका: बुजुर्गों के लिए-

  • आसान और सुलभ पेंशन व्यवस्था। 
  • इ. पी. एफ. ओ. की पेंशन-राशि में बढ़ोत्तरी। 
  • स्वास्थ्य-सेवाओं में सुधार और मनोरंजन की सुविधा। 
  • वरिष्ठ नागरिक हेल्पलाइन और केयर-सेंटर। 
  • मुफ्त स्वास्थ्य चेकअप और दवा की योजनाएँ
  • स्कूलों में बुजुर्गों के प्रति संवेदनशील रहने की शिक्षा-व्यवस्था
  • बुजुर्गों के लिए विशेष डे-केयर सेंटर
  • रिटायर्ड कम्युनिटी
  • परिवारिक कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका
  • सामुदायिक व्यायाम और योग-केन्द्र

(द) बुजुर्गों से अपेक्षित सहयोग

  • परिवर्तन को स्वीकारना 
  • युवा-पीढ़ी को कोसने के बजाय उनका सम्मान करना।
  • बेवजह दखलअंदाजी बंद करना। 
  • जबतक हाथ-पैर चले, चलाते रहना। 
  • धैर्य बनाये रखना।

निष्कर्ष: 

बुजुर्ग, जो अपनी संपूर्ण जिंदगी अपने आश्रितों का भविष्य संवारने में खपा देते हैं। उम्र के जिस पड़ाव में उन्हें सहारे की सबसे अधिक जरूरत होती है, तब उन्हें बेहाल, बेसहारा छोड़ दिया जाता है। आज बुजुर्गों की दयनीय दशा किसी एक की वजह से नहीं हुई— यह परिवार की उपेक्षा, समाज की सोच और व्यवस्था की कमजोरियों— इन सबका मिला-जुला परिणाम है।

👉 बुजुर्ग वह हैं जिनकी वजह से आज हम यहाँ तक पहुँचे हैं।

👉 उन्होंने हमें जीवन, संस्कार, मूल्य और अनुभव दिए।

👉 अब हमारी बारी है कि हम उनके जीवन में खुशियाँ लौटाएँ।

यदि परिवार संवेदनशील हो, समाज उचित सम्मान दे और व्यवस्था सशक्त हो तो बुजुर्गों का जीवन फिर से सम्मानपूर्ण, सुरक्षित और खुशहाल बन सकता है।

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11 दिसंबर 2025

सुख के सब साथी, दुख में न कोय : जीवन की सच्चाई और सीख

परिचय:-

हम सभी ने बचपन से ही यह कहावत सुनी होगी – “सुख के सब साथी, दुख में न कोय।" इसका अर्थ बड़ा ही गहरा है। जब इंसान के जीवन में सुख और समृद्धि होती है, तो उसके आसपास लोग मित्रता और संबंध निभाने के लिए उमड़ते चले आते हैं। लेकिन जैसे ही कठिनाइयाँ, परेशानियाँ या दुख सामने आते हैं, वही लोग धीरे-धीरे दूर होते जाते हैं। यह मानवीय स्वभाव है कि लोग सुख में साथ निभाना आसान समझते हैं, लेकिन दुख में खड़ा होना सबके बस की बात नहीं।

Source: You Tube

"सुख के सब साथी, दुख में न कोय" कहावत का गहरा अर्थ जानें। यह ब्लॉग जीवन की सच्चाई, सच्चे रिश्तों की पहचान, प्रेरक कहानियाँ और व्यवहारिक सीख को सरल भाषा में प्रस्तुत करता है।

१. कहावत का मूल भाव:-

सुख के सब साथी” का सीधा अर्थ है – जब व्यक्ति के पास धन, स्वास्थ्य, शोहरत, और खुशियाँ होती हैं तो लोग उसके आस-पास रहना, उससे संबंध बनाना पसंद करते हैं।

“दुख में न कोय” का तात्पर्य है – जब वही व्यक्ति कठिनाइयों से गुजरता है, तो बहुत से लोग धीरे-धीरे उससे दूर हो जाते हैं।

👉 यह कहावत हमें जीवन की वास्तविकता दिखाती है कि दुनियाँ अक्सर स्वार्थ के आधार पर रिश्ते निभाती है।

२. क्यों होते हैं सुख में अधिक साथी?

लाभ की संभावना – सुखी व्यक्ति से लोगों को लाभ मिलने की संभावना रहती है, जैसे आर्थिक मदद, मान-सम्मान या सुविधाएँ। सच ही कहा गया है- "स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति"

आकर्षण और प्रभाव – समृद्ध और खुशहाल व्यक्ति की ओर लोग स्वाभाविक रूप से आकर्षित होते हैं।

सामाजिक प्रतिष्ठा – सुखी और सफल व्यक्ति से जुड़कर लोग खुद को भी सम्मानित महसूस करते हैं।

ईर्ष्या और दिखावा – कई बार लोग सिर्फ़ समाज में दिखावा करने के लिए भी सुखी व्यक्ति का साथ निभाते हैं।

३. दुख में क्यों छूट जाते हैं साथी?

स्वार्थ की पूर्ति न होना – जब दुख आता है तो लोग सोचते हैं कि अब यहाँ से कुछ लाभ नहीं मिलेगा।

जिम्मेदारी से दूर भागना – दुख में साथ देना जिम्मेदारी और त्याग की मांग करता है, जिसे हर कोई निभाना नहीं चाहता।

भय और संकोच – कभी-कभी लोग यह सोचकर भी दूर हो जाते हैं कि कहीं वे भी समस्या में न फँस जाएँ।

मानव स्वभाव – स्वार्थ, सुविधा और अपने आराम को प्राथमिकता देना इंसान की आदत है।

४. “सुख के सब साथी, दुख में न कोय......" मशहूर गायक मोहम्मद रफी के द्वारा फिल्म "गोपी" के लिए गाया गया मर्मस्पर्शी भजन: यहाँ लिंक पर क्लिक करके आप सुन सकते हैं- https://youtu.be/xpH5zFWvg1s?si=eEE5DXSjv1kHfWIJ

सुख के सब साथी, दुःख में ना कोई।
मेरे राम, तेरा नाम एक साँचा दूजा ना कोई॥

जीवन आनी जानी छाया, झूठी माया, झूठी काया।
फिर काहे को सारी उमरियाँ, पाप की गठड़ी ढोई॥
सुख के सब साथी…

ना कुछ तेरा, ना कुछ मेरा, ये जग जोगीवाला फेरा।
राजा हो या रंक सभी का, अंत एक सा होई॥
सुख के सब साथी…

बाहर की तू माटी फाँके, मन के भीतर क्यों ना झाँके।
उजले तन पर मान किया, और मन की मैल ना धोई॥

सुख के सब साथी, दुःख में ना कोई॥
मेरे राम, तेरा नाम एक साँचा दूजा ना कोई॥

५. जीवंत उदाहरण

(क) महाभारत का उदाहरण

महाभारत काल में जब पांडवों का राजपाट, वैभव था, तब बहुत से लोग उनके साथ थे। लेकिन जब उन्हें वनवास मिला और कठिनाइयाँ आईं, तब केवल कुछ ही लोग जैसे महात्मा विदुर और भगवान श्रीकृष्ण – सच्चे साथी बने।

(ख) सामान्य जनमानस का उदाहरण

आज भी जब किसी के पास धन और प्रतिष्ठा होती है, तो उसके घर मेहमानों की भीड़ लगी रहती है। लेकिन जैसे ही उसका व्यवसाय डूबता है या कठिनाई आती है, तो वही लोग मिलने से भी कतराने लगते हैं।

६. असली साथी कौन?

माता-पिता– चाहे सुख हो या दुख, माता-पिता का स्नेह हमेशा साथ रहता है।

सच्चा मित्र– दोस्ती वही असली है जो मुश्किल समय में साथ निभाए। जैसे श्रीकृष्ण भगवान अपने बचपन के दोस्त सुदामा के साथ दोस्ती उस समय निभायी थी जब वे दरिद्र एवं विपन्न हाल में थे। 

समर्पित जीवनसाथी– 

एक दूसरे के प्रति समर्पण का भाव रखने वाले पति-पत्नी का  रिश्ता सुख-दुख में बराबरी का साथी बनने का प्रतीक है।

भगवान के प्रति गहरी आस्था– जब संसार के सारे साथी छूट जाते हैं, तब ईश्वर ही सबसे बड़ा सहारा बनते हैं।

७. दुख की घड़ी – एक दूसरे को पहचानने का सही समय

  • यह कहावत हमें यह भी सिखाती है कि दुख का समय ही संबंधों की असली पहचान कराता है।
  • जो कठिनाइयों में भी साथ रहे, सच में वही अपना है।

Source: Storymirror.com

  • दुख की घड़ी हमें यह भी सिखाती है कि हम पराए लोगों से बहुत अपेक्षाएँ न रखें।
  • यही समय हमें आत्मनिर्भर और मजबूत बनाता है।

८. व्यवहारिक जीवन के सबक

अत्यधिक अपेक्षाएँ न रखें – रिश्ते प्रायः स्वार्थपरक होते हैं इसलिए हमेशा निःस्वार्थ साथ की उम्मीद करना व्यर्थ है।

सच्चे रिश्तों को पहचानें – जो दुख में साथ दें, उन्हें जीवनभर संभालकर रखें।

स्वयं भी दूसरों के दुख में साथ दें – यही इंसानियत की असली पहचान है और हम जैसे देंगे, वही पायेंगे, शाश्वत नियम भी है। 

आत्मनिर्भर बनें – ताकि दुख की घड़ी में खुद को संभाल सकें और दूसरे का मोहताज न होना पड़े। 

भगवान के प्रति आस्था और आत्म-विश्वास बनाये रखें – क्योंकि दुख की घड़ी में आपको यही मानसिक बल प्रदान करते हैं।

९. आधुनिक जीवन में प्रासंगिकता

  • आज की तेज़-तर्रार और मतलबी दुनियाँ में यह कहावत और भी सही बैठती है।
  • सोशल-मीडिया पर हजारों दोस्त और फॉलोअर्स होते हैं, लेकिन मुश्किल समय में गिनती के लोग ही मदद को आते हैं।
  • नौकरी, व्यापार और रिश्तों में भी लोग स्वार्थ से प्रेरित होकर साथ रहते हैं।
  • इसलिए आज भी हमें यह सच्चाई याद रखनी चाहिए कि असली साथी वही है जो कठिन समय में आपके साथ खड़ा हो।

निष्कर्ष

'सुख के सब साथी, दुख में न कोय' केवल एक कहावत नहीं बल्कि जीवन की गहरी सच्चाई है। यह हमें सिखाती है कि –

  • हर रिश्ता स्वार्थ पर आधारित नहीं होना चाहिए।
  • मुश्किल की घड़ी में ही अपने-पराये की पहचान होती है।
  • जो लोग दुख में साथ देते हैं, वही आपके सच्चे साथी हैं।
  • हमें भी प्रयास करना चाहिए कि हम भी दूसरों के सुख-दुख में समान रूप से खड़े रहें।
अंततः जीवन का सार यही है कि सुख के समय में विनम्र रहें और दुख में धीरज रखें, क्योंकि साथ वही निभाएगा जो वास्तव में आपका अपना है, बाकी सब तो समय और स्वार्थ के साथी हैं।

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9 दिसंबर 2025

स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति: आधुनिक जीवन में रिश्तों की सच्चाई और व्यवहारिक सीख

मानव-समाज रिश्तों, भावनाओं और व्यवहार के गहरे तानों-बानों से मिलकर बना है। इंसान भावनात्मक प्राणी है और आपसी संबंध उसके जीवन की नींव माने जाते हैं। लेकिन इन्हीं संबंधों के भीतर एक कड़वा सच भी छिपा होता है, और वो है- स्वार्थ। यह मानवीय स्वभाव का हिस्सा है, और इसे समझना जीवन को संतुलित बनाने में मदद करता है।

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गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के किष्किन्धा कांड में यह चौपाई लिखा है- "सुर नर मुनि सबकै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।।" इसका अर्थ है—दुनियाँ में सभी लोग प्रेम, मित्रता या किसी भी तरह के संबंध अपने नीहित स्वार्थ के कारण ही निभाते हैं। यह एक कठोर सत्य है, लेकिन जीवन की वास्तविकता को सबसे स्पष्ट रूप में दर्शाता है। 

तुलसीदास जी के कथन- "स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति" के भावार्थ को यहाँ सरल भाषा में समझें। मानव-व्यवहार पर आधारित यह ब्लॉग जीवन की कड़वी सच्चाई से आपको रूबरू कराता है।

१. गोस्वामी तुलसीदास जी की चौपाई और अर्थ:

उमा राम सम हत जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति॥

चौपाई का अर्थ: हे पार्वती! इस संसार में प्रभु श्रीराम के समान हित करने वाला गुरु, पिता, माता, बंधु और स्वामी कोई नहीं है। देवता, मनुष्य और मुनि सबकी यह रीति है कि सभी अपने स्वार्थ के वशीभूत ही एक दूसरे से प्रेम करते हैं।

व्यवहारिक व्याख्या: कोई सहारे के लिए प्रेम करता है तो भावनात्मक समर्थन के लिए दोस्ती करता है। कोई सामाजिक सुरक्षा के लिए रिश्तेदारी निभाता है तो व्यापारिक लाभ के लिए संबंध बनाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि दुनियाँ में ज्यादातर संबंध किसी न किसी स्वार्थ पर आधारित होते हैं। 

भावार्थ: गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस चौपाई के माध्यम से मानव समाज के लिए यह संदेश दिया है- केवल परमात्मा ही हमसे नि:स्वार्थ प्रेम करता है एवं अपनी कृपा की बरसात करता है। बाकी सभी किसी न किसी स्वार्थ-वश एक दूसरे से प्रेम करते हैं। यदि हम सब एक दूसरे से नि:स्वार्थ भाव से प्रेम करें तो हमारा घर-परिवार भी स्वर्ग बन जाय और वहीं परमात्मा की प्राप्ति हो जाय। 

२. क्या हर रिश्ता स्वार्थ से भरा होता है?

इसका उत्तर काफी हद तक “हाँ” है। स्वार्थ शब्द दो अक्षरों, स्व + अर्थ से मिलकर बना है, जिसका तात्पर्य है- "अपना हित।" लेकिन यह जरूरी नहीं कि वह स्वार्थ हमेशा बुरा या नुकसानदायक ही हो। 

रिश्तों में स्वार्थ होना पूरी तरह गलत नहीं है, और न ही इसका मतलब हमेशा नकारात्मक होता है। इसे बेहतर समझने के लिए कुछ पहलुओं को देखना ज़रूरी है। जैसे—

  • बच्चे, माता-पिता के प्यार और सुरक्षा पर निर्भर होते हैं।
  • माता-पिता अपने बच्चों से यह उम्मीद रखते हैं कि वे बुढ़ापे में उनका सहारा बनेंगे। 
  • दोस्तों से हमें भावनात्मक-साथ, समझ और हौसला चाहिए होता है। 
  • जीवनसाथी में हम भरोसा, प्रेम और सहयोग ढूँढते हैं। 

इन सबमें स्वार्थ तो है, पर यह स्वस्थ स्वार्थ है। पूरी तरह निःस्वार्थ होना, कहने के लिए हो सकता है पर वास्तविक नहीं। लेकिन हर रिश्ता “केवल स्वार्थ” से चल भी नहीं सकता। सच्चा और संतुलित रिश्ता वही है जहाँ स्वार्थ के साथ-साथ समझ, समर्पण और देने की भावना मौजूद हो।  

३. आज के समय में इस चौपाई की प्रासंगिकता:

आज का दौर तेजी से बदल रहा है। जहाँ सभी लोग व्यस्त हैं, लक्ष्य-उन्मुख हैं, और प्रतिस्पर्धी वातावरण में जी रहे हैं। ऐसे समय में स्वार्थ की भूमिका और भी स्पष्ट दिखाई देती है।

📌 रिश्तों में दूरियाँ बढ़ रही हैं। लोग भावनाओं से अधिक अपने स्वार्थ और लाभ को प्राथमिकता दे रहे हैं।

📌 सोशल मीडिया ने वास्तविकता से हटकर बनावटीपन और दिखावे को बढ़ावा बढ़ा दिया है। इसलिए रिश्तों में भावनाएँ कम और 'इमेज' की जरूरत ज्यादा दिखती है।

📌 आज रिश्तों में व्यवसायिकता आ गयी है। यहाँ संबंध पूरी तरह से “म्यूचुअल बेनिफिट” पर आधारित होते हैं।

📌 नौकरी और करियर में किसी की मदद इसलिए की जाती है ताकि भविष्य में उसे भी मदद मिल सके।

४. स्वार्थ की पहचान कैसे करें?

यह समझना महत्वपूर्ण है कि सामने वाला व्यक्ति हमसे किस भावना से जुड़ा है—सच्ची भावना से या केवल अपने लाभ के लिए। इसकी पहचान के लिए निम्न बातों को समझना जरुरी है-

१. यदि कोई व्यक्ति आपसे सिर्फ तब ही संपर्क करता है जब उसका आपसे कोई काम होता है, तो यह स्वार्थ का संकेत है।

२. यदि रिश्ते में संतुलन न हो, और एकतरफा हो यानी सिर्फ एक ही व्यक्ति प्रयास करे—तो यह रिश्ता स्वार्थपूर्ण है।

३. क्या वह रिश्ता, "मतलब निकलते ही न पहचानने वाला है?"

४. क्या व्यक्ति आपकी भावनाओं को समझने से ज्यादा अपनी सुविधा और लाभ को प्राथमिकता देता है?

ये सभी पहलू इस बात के प्रमाण हैं कि रिश्ता भावनात्मक नहीं, बल्कि स्वार्थ के आधार पर चल रहा है।

५. स्वार्थ को समझना जरूरी क्यों है? जब हम स्वार्थ को गहराई से समझने लगते हैं तब-

  • अपेक्षाएँ कम होती हैं। 
  • मानसिक तनाव घटता है। 
  • हम जीवन में सही लोगों का चयन कर पाते हैं। 
  • हम खुद पर अधिक ध्यान देना सीखते हैं। 
  • हम भावुकता के नाम पर ठगे जाने से बचते हैं। 
  • हम अधिक संतुलित और परिपक्व बनते हैं। 

६. क्या 'स्वार्थ' हर हाल में बुरा है?—एक व्यवहारिक नजरिया

स्वार्थ तब बुरा नहीं होता, जब आप-

  • किसी को दुख पहुँचाए बिना अपनी भलाई चाहते हैं। 
  • अपने लक्ष्य, स्वास्थ्य, करियर और मानसिक शांति को प्राथमिकता देते हैं।
  • किसी से सहायता तो चाहते हैं परंतु बदले में उन्हें भी कुछ देते हैं। 

समस्या तब पैदा होती है जब-

  • स्वार्थपन की अति हो जाए।
  • लालच बन जाए। 
  • किसी को नुकसान पहुंचाकर अपना हित साधा जाए। 
  • भावनाओं का उपयोग सिर्फ अपने लाभ के लिए ही किया जाए। 

७. जीवनोपयोगी सीख: 

  • रिश्तों में आँख मूँदकर विश्वास न करें। भावनाओं के साथ बुद्धि भी लगाए।
  • “अपेक्षाओं में संतुलन” रखें। अत्यधिक उम्मीदें दुख का कारण बनती हैं।
  • स्वार्थी व्यक्तियों को पहचानें और अपनी ऊर्जा उन पर खर्च न करें।
  • सच्चे और नि:स्वार्थ लोगों की कद्र करें। वे जीवन की सबसे कीमती संपत्ति होते हैं।
  • स्वयं भी संतुलित स्वार्थ रखें। अपनी सीमाएँ तय करें, ताकि कोई आपको भावनात्मक रूप से उपयोग न करे।
  • संबंधों में पारदर्शिता रखें। स्पष्टता, संबंधों को मजबूत बनाती है।

८. स्वार्थ को संभालते समय किन बातों का ध्यान रखें?

  • भावनाओं को नियंत्रण में रखें। 
  • किसी भी संबंध को अति-महत्व न दें। 
  • दुनियाँ के व्यवहार को व्यावहारिक नजरिए से देखें। 
  • अपना मन साफ रखें और बदले में ईमानदारी की ही अपेक्षा रखें। 
  • जो लोग सच्चे हैं, उन्हें सम्मान दें। 

हम स्वार्थ को जितना गहराई से समझेंगे, जीवन उतना ही सरल और शांत होगा।

९. रिश्तों को स्वस्थ कैसे रखें?

भले ही दुनियाँ स्वार्थपरता से भरी हो, लेकिन हम-आपको इसी दुनियाँ और समाज में रहना है, इसलिए अपने रिश्तों को निम्न तरीके से बेहतर बना सकते हैं:

✔ सच्चाई रखें। 

✔ दूसरे की जरूरतों का सम्मान करें। 

✔ बदले में कुछ पाने की अपेक्षा न रखें। 

✔ विश्वास बनाए रखें। 

✔ जहां संबंध विषाक्त हो रहे हों, वहाँ सीमाएँ तय करें। 

जीवन में संतुलन ही सफलता का मूलमंत्र है।

१२. निष्कर्ष: 

दुनियाँ स्वार्थ से जरूर चलती है, पर प्रेम का महत्व कभी खत्म नहीं होता। तुलसीदास जी की यह चौपाई हमारी आँखें खोलती है, हमें यथार्थ से परिचय कराती है, और जीवन के प्रति हमें परिपक्व नजरिया प्रदान करती है। स्वार्थ हमें यह नहीं सिखाता कि प्रेम या संबंध व्यर्थ हैं। बल्कि यह बताता है कि—"दुनियाँ कैसे चलती है? लोग कैसे व्यवहार करते हैं? और हमें खुद को कैसे संभालना चाहिए?" 

यदि हम मानवीय-स्वभाव को गहराई से समझ लें, तो हम अधिक संतुलित, शांत और बेहतर जीवन जी सकते हैं।

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3 दिसंबर 2025

सत्य की महिमा (रोचक कहानी)

भूमिका:

सत्य वह प्रकाश है, जो अंधकारमय परिस्थितियों में भी मार्ग दिखा देता है। इंसान के जीवन में सत्य का महत्व केवल नैतिकता तक सीमित नहीं, बल्कि उसके चरित्र, उसकी पहचान और उसके भविष्य को भी निर्धारित करता है। अनेक बार परिस्थितियाँ कठिन होती हैं, अवसर हमारी दृढ़ता को परखते हैं और झूठ का सहारा लेना आसान लगने लगता है—लेकिन अंततः जीत हमेशा सत्य की ही होती है।

"सत्य की महिमा" नामक रोचक कहानी के माध्यम से हम जानेंगे कि सत्यपथ के अनुगामी की राह में थोड़े समय के लिए मुश्किलें आ सकती हैं पर अंत में  धन, यश और विजय उसी के हिस्से में आती है। 

कहानी:

प्राचीन काल में एक सत्यवादी धर्मात्मा राजा थे। उनके नगर में कोई भी साधारण मनुष्य बिक्री करने के लिए बाजार में अन्न, वस्त्र आदि कोई भी वस्तु लाता और वह वस्तु यदि सायंकाल तक नहीं बिकती तो उसे राजा खरीद लिया करते थे। राजा की यह प्रतिज्ञा लोकहित के लिए थी। अत: सायंकाल होते ही राजा के सेवक शहर में भ्रमण करते और किसी को कोई भी वस्तु लिये बैठे देखते तो वे उससे पूछकर और उसके संतोष के अनुसार कीमत देकर उस वस्तु को खरीद लेते थे। 

एक दिन की बात है, स्वयं धर्मराज ब्राह्मण का वेष धारण करके घर की टूटी-फूटी व्यर्थ की चीजें जो बाहर फेंकने योग्य कूड़ा-करकट थीं, एक पेटी में भरकर उन सत्यवादी धर्मात्मा राजा की परीक्षा करने के लिए उनके नगर में आये और बिक्री के लिए बाजार में बैठ गये, किन्तु कूड़ा करकट भला कौन लेता? जब सायंकाल हुआ तब राजा के सेवक नगर में सदा की भांति घूमने लगे। नगर में बेंचने के लिए लोग जो वस्तुएँ लाये थे, वे सब बिक चुकी थीं। केवल ये ब्राह्मण अपनी पेटी लिये बैठे थे। राजसेवकों ने उनके पास जाकर पूछा, "क्या आपकी वस्तु नहीं बिकी?" उन्होंने ने उत्तर दिया, "नहीं"। राजसेवक पुनः पूछा कि आप इस पेटी में बेंचने के लिए कौन सी चीज लाये हैं? और उसका मूल्य क्या है? ब्राह्मण ने कहा- " इसमें दारिद्र्य (कूड़ा-करकट) भरा हुआ है और इसका मूल्य एक हजार रुपये है।" यह सुनकर राजसेवक हंसे और उन्होंने कहा, "इस कूड़ा-करकट को कौन लेगा, जिसका मूल्य एक पैसा भी नहीं है?" ब्राह्मण ने कहा, "यदि कोई नहीं लेगा तो मैं इसे वापस अपने घर ले जाऊंगा। तब राजसेवकों ने तुरंत राजा के पास जाकर इस बात की सूचना दी। इस पर राजा ने कहा, "उन्हें उनकी वस्तु वापस मत ले जाने दो और मोलतोल करके किन्तु उन्हें संतोष कराकर वस्तु खरीद लो।" 

राजसेवकों ने आकर ब्राह्मण से उस टोकरी में रखे वस्तु का मूल्य दो सौ रूपये कहा किन्तु ब्राह्मण ने एक हजार रुपये में से एक पैसा भी कम लेना स्वीकार नहीं किया। फिर राजसेवकों ने पांच सौ रूपये देने को कहा किन्तु ब्राह्मण ने इन्कार कर दिया। तब राजसेवकों में से कुछ व्यक्ति उत्तेजित होकर राजा के पास गये और बोले, "ब्राह्मण की पेटी में दारिद्र्य (कूड़ा-करकट) भरा हुआ है। एक पैसे की भी चीज नहीं है और पांच सौ रूपये देने पर भी वे नहीं दे रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में आपको उनकी चीज नहीं खरीदनी चाहिए।" राजा ने कहा, "नहीं, हमारी सत्य प्रतिज्ञा है और हम सत्य का त्याग नहीं कर सकेंगे। इसलिए वो जो मांगें, मूल्य देकर खरीद लो।" यह सुनकर एवं राजा के आग्रह को देखकर राजसेवक खूब हंसे और वापस लौट आये। उन्होंने निरुपाय होकर ब्राह्मण को एक हजार रुपये दे दिये और उनकी पेटी ले ली। ब्राह्मण रूपये लेकर चले गए और राजसेवक पेटी राजा के पास ले आये। राजा ने उस दारिद्र्य से भरी पेटी को राजमहल में रखवा दिया। 

रात्रि में जब शयन का समय हुआ तब राजमहल के द्वार से वस्त्राभूषणों से सुसज्जित एक परम सुन्दरी युवती निकली। राजा बाहर बैठक में बैठे हुए थे। उस स्त्री को देखकर राजा ने पूछा- "देवि आप कौन है? किस कार्य से आयी हैं? और क्यों जा रही हैं? उस स्त्री ने कहा- "मै लक्ष्मी हूँ। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं, इस कारण मैं सदा आपके घर में निवास करती रही हूँ, पर अब तो आपके घर में दारिद्र्य आ गया है। जहाँ दारिद्र्य रहता है वहाँ लक्ष्मी नहीं रहती। इसलिए आज मैं आपके घर से जा रही हूँ। राजा बोले- "जैसी आपकी इच्छा।"

थोड़ी देर बाद राजा ने एक बहुत ही सुंदर युवा पुरुष को राजमहल के दरवाजे से निकलते देखा तो उससे पूछा- "आप कौन हैं? कैसे आये हैं और कहाँ जा रहे हैं?" उस सुंदर पुरुष ने कहा- "मेरा नाम दान है। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं, इस कारण मैं सदा आपके यहाँ निवास करता रहा हूँ। अब जहाँ लक्ष्मी गयी हैं, वहीं मैं जा रहा हूँ; क्योंकि जब लक्ष्मी चली गयी तो आप दान कहाँ से करेंगे? तब राजा बोले- "बहुत अच्छा।"

उसके बाद फिर एक सुंदर पुरुष निकलता दिखाई दिया। राजा ने उससे भी पूछा- "आप कौन हैं? कैसे आये हैं और कहाँ जा रहे हैं?" उसने कहा- "मैं यज्ञ हूँ। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं। अतः मैं सदा आपके घर में निवास करता रहा। अब आपके यहाँ से लक्ष्मी और दान चले गए तो मैं भी वहीं जा रहा हूँ; क्योंकि बिना सम्पत्ति के आप यज्ञ का अनुष्ठान कैसे करेंगे?" राजा बोले- "बहुत अच्छा।"

तदनन्तर फिर एक युवा पुरुष दिखाई दिया। राजा ने पूछा- "आप कौन हैं? कैसे आये हैं और कहाँ जा रहे हैं?" उसने कहा- "मैं यश हूँ। आप सत्यवादी धर्मात्मा हैं, अतः मैं आपके यहाँ सदा से रहता आया हूँ; किन्तु आपके यहाँ से लक्ष्मी, दान और यज्ञ सब चले गए तो उनके बिना आपका यश कैसे रहेगा? इसलिये मैं भी वहीं जा रहा हूँ जहाँ वे गये हैं।" राजा ने कहा- "ठीक है।" 

तत्पश्चात् एक सुंदर पुरुष फिर निकला। उसे देखकर उससे भी राजा ने पूछा- "आप कौन हैं? कैसे आये हैं और कहाँ जा रहे हैं?" उसने कहा- "मैं सत्य हूँ। आप धर्मात्मा हैं, अतः मैं सदा आपके यहाँ रहता आया हूँ; किन्तु अब आपके यहाँ से लक्ष्मी, दान, यज्ञ, यश- सब चले गए तो मैं भी वहीं जा रहा हूँ।" राजा ने कहा-"मैंने आपके लिए ही इन सबका त्याग किया है, आपका तो मैंने कभी त्याग किया ही नहीं, इसलिए आप कैसे जा सकते हैं?" मैंने लोकोपकार के लिए यह सत्य प्रतिज्ञा कर रखी थी कि कोई भी व्यक्ति मेरे नगर में बिक्री करने के लिए कोई वस्तु लेकर आयेगा और सायंकाल तक उसकी वह वस्तु नहीं बिकेगी तो मैं उसे खरीद लूंगा। आज एक ब्राह्मण दारिद्र्य लेकर बिक्री करने आये जो एक पैसे की भी चीज नहीं थी; किन्तु सत्य की रक्षा के लिए ही मैंने विक्रेता को एक हजार रुपये देकर उस दारिद्र्य (कूड़ा-करकट) को खरीद लिया। तब लक्ष्मी ने आकर कहा कि आपके घर में दारिद्र्य का वास हो गया इसलिए मैं नहीं रहूँगी। इसी कारण मेरे यहाँ से लक्ष्मी के साथ-साथ दान, यज्ञ और यश सभी चले गए। ऐसा होने पर भी मैं आपके बल पर डटा हुआ हूँ।" यह सुनकर सत्य ने कहा- "जब मेरे लिए आपने इन सबका त्याग किया है, तब मैं नहीं जाऊँगा।" ऐसा कहकर वह राजमहल में प्रवेश कर गया। 

थोड़ी देर में यश राजा के पास लौटकर आया। राजा ने पूछा- "आप कौन हैं और क्यों आये हैं? " उसने कहा- "मैं वही यश हूँ, आपमें सत्य विराजमान है। चाहे कोई कितना भी यज्ञकर्ता, दानी और लक्ष्मीवान ही क्यों न हो, किन्तु बिना सत्य के वास्तविक कीर्ति नहीं हो सकती। इसलिये जहाँ सत्य है मैं वहीं रहूँगा। राजा बोले- "बहुत अच्छा।"

तदनंतर यज्ञ आया। राजा ने पूछा- "आप कौन हैं और किसलिये आये हैं?" उसने कहा- "मैं वही यज्ञ हूँ, जहाँ सत्य रहता है, वहीं रहता हूँ, चाहे कोई कितना ही दानशील और लक्ष्मीवान क्यों न हो, किन्तु बिना सत्य के यज्ञ शोभा नहीं देता। चूंकि आपमें सत्य है, इसलिए मैं यहीं रहूँगा। राजा बोले- " बहुत अच्छा।"

तत्पश्चात् दान आया। राजा ने उससे भी पूछा- "आप कौन हैं और कैसे आये हैं?" उसने कहा- "मैं वही दान हूँ। आपमें सत्य विराजमान है और जहाँ सत्य रहता है, वहीं मैं रहता हूँ; क्योंकि कोई भी कोई कितना ही लक्ष्मीवान क्यों न हो, बिना सद्भाव के दान निष्फल हो जाता है। आपके यहाँ सत्य है, इसलिए मैं यहीं रहूँगा।" राजा बोले- "बहुत अच्छा।"

इसके अनन्तर लक्ष्मी आयी। राजा ने उससे भी पूछा- "आप कौन हैं और क्यों आयी हैं?" उसने कहा- "मैं वही लक्ष्मी हूँ। आपके यहाँ सत्य विराजमान है। आपके यहाँ यश, यज्ञ, दान भी लौट आये हैं। इसलिए मैं भी लौट आयी हूँ।" राजा बोले- "देवि यहाँ तो दारिद्र्य भरा हुआ है, आप भला यहाँ कैसे निवास करेंगी?" लक्ष्मी ने कहा- "राजन! चाहे कुछ भी हो मैं सत्य को छोड़कर नहीं रह सकती।" राजा बोले- "जैसी आपकी इच्छा।"

तदनंतर वहाँ स्वयं धर्मराज उसी ब्राह्मण के रूप में आये। राजा ने पूछा- "आप कौन हैं और कैसे आये हैं?" धर्मराज बोले- "मैं साक्षात् धर्म हूँ, मैं ही ब्राह्मण का रूप धारण करके एक हजार रुपये में आपको दारिद्र्य दे गया था। आपने सत्य के बल से मुझ धर्म को जीत लिया। 

मैं आपको वर देने आया हूँ, बतलाइये, मैं आपका कौन सा अभीष्ट कार्य करूँ?" राजा ने कहा- "आपकी कृपा ही मेरे लिए बहुत है, और कुछ नहीं चाहिए।"

कहानी का सार:

इस दृष्टांत से यह सिद्ध हो गया कि जहाँ सत्य है, वहाँ सब कुछ है। वहाँ कभी सम्पत्ति, दान, यज्ञ, यश की कभी कमी हो भी जाये तो मनुष्य को घबराना नहीं चाहिए। यदि सत्य कायम रहेगा तो ये सभी देर-सबेर स्वत: आकर विराजमान हो जायेंगे।

किसी कवि की यह कथन बहुत प्रसिद्ध है- वंदा सत् नहिं छांड़िए, सत छांड़े पत जाय। सत की बांधी लक्ष्मी, फेरि मिलैगी आय।। 

कहानी का स्रोत: ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय श्री जयदयाल गोयंदका जी द्वारा लिखित पुस्तक, "उपदेशप्रद कहानियाँ"

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