प्रतिकूल परिस्थितियाँ -
आपके मार्ग में अवरोध बन जाती हैं या सीढ़ियां?
आपको निराश करती हैं या चुनौती देती हैं?
सीखें हर परिस्थिति को सीढ़ी बनाने की
कला......
परिस्थितियों की बात
हमेशा आदमी का एक बहाना है और हम बहाने बनाने में बहुत कुशल हैं। जो हमें नहीं
करना होता है, उसके लिए हम हमेशा बहाना ईजाद कर लेते हैं।
सौजन्य: Kuku FM
एक मंदिर बन रहा था। सारे आस-पास के गांवों के लोग, उस मंदिर को बनाने में
श्रमदान कर रहे थे। मंदिर के बनाने वालों ने गाँव के सभी लोगों से प्रार्थना की कि
सभी लोग आकर मंदिर बनाने में थोड़ा-थोड़ा सहयोग करें। कोई एक ईंट ले आए, कोई एक
ईंट जोड़ दे, कोई एक पत्थर ले आए, कोई एक पत्थर रख दे, कोई मिट्टी ढो दे, लेकिन वह
मंदिर सब लोगों के श्रमदान से बने। उस गाँव के लोग बड़े समझदार रहे होंगे। क्योंकि
जब एक आदमी मंदिर बनाता है तो वह मंदिर अहंकार का मंदिर हो जाता है और जब हजारों
लोग प्रेम से मिलकर बनाते हैं तो वह प्रेम ही उस स्थान को मंदिर बना देता है। तो
गाँव-गाँव, दूर-दूर से लोग उस मंदिर को बनाने के लिए आए हुये थे।
काम शुरू हो गया
था। लेकिन एक आदमी सुबह से ही आकर खड़ा हो गया है, चुपचाप उदास। वह कोई काम नहीं
कर रहा है। वह एक झाड़ के नीचे चुपचाप खड़ा है। मंदिर बनाने वाले दो-चार लोग उसके
पास गये और बोले, "मित्र! तुम कुछ हाथ नहीं बंटाओगे? तुम कुछ सहयोग नहीं करोगे?" उस आदमी ने कहा कि, "मैं भी चाहता हूँ कि कुछ श्रम करूँ। मैं भी
चाहता हूँ कि यह आनंद मुझे भी मिले। लेकिन आदमी भूखा पेट क्या कर सकता है? मैं भूखे पेट हूँ। भूखे पेट कैसे श्रम किया जा सकता है?" बात तो ठीक थी। वे लोग
उसे अपने घर ले गए और भर पेट भोजन कराया। फिर वे सब मंदिर की तरफ वापस लौटे। वे
चारों लोग तो मंदिर में काम करने लग गए।
वह आदमी फिर एक बृक्ष के नीचे वैसे ही
खड़ा हो गया जैसे कि वह सुबह खड़ा था। थोड़ी देर बाद उन्होंने देखा कि वह वहीं
उदास खड़ा है। उसने न एक पत्थर उठाया है न ही एक ईंट ढोया है। वे फिर उसके पास गए
और बोले कि महाशय! फिर कोई तकलीफ आ गईं क्या? आप फिर भी कोई सहायता नहीं कर रहे
हैं। उसने कहा कि मैं भी चाहता हूँ कि प्रभु के मंदिर में श्रम करूँ। लेकिन भरे
पेट कोई श्रम कर सकता है क्या? सुबह वह खाली पेट था इसलिए श्रम नहीं कर सकता अब वह
भरा पेट है इसलिए श्रम नहीं कर सकता है। अब यह आदमी कब श्रम करेगा? जरूर कोई बात
है।
परिस्थितियां असली कारण
नहीं हैं। असली कारण, जो हम नहीं करना चाहते हैं, इसके लिए हमेशा न्याययुक्त कारण
खोज लेते हैं। और निश्चिन्त हो जाते हैं। ऐसी कौन सी परिस्थिति है जिसमें आदमी
शांत न हो सके? ऐसी कौन सी परिस्थिति है जिसमें आदमी प्रेमपूर्ण न हो सके? ऐसी
कौन सी परिस्थिति है जिसमें आदमी थोड़ी देर के लिए मौन और शांति में प्रविष्ट न हो
सके? हर परिस्थिति में वह होना चाहे तो बिल्कुल हो सकता है।
यूनान में एक वजीर को उसके सम्राट ने फांसी की सजा दे दी थी। सुबह तक सब
ठीक था। दोपहर वजीर के घर सिपाही आए। उन्होंने घर को चारों ओर से घेर लिया और वजीर
को भीतर जाकर खबर दी कि आप कैद कर लिए गये हैं और सम्राट की आज्ञा है कि आज शाम को
छह बजे आपको फांसी दे दी जाएगी। उस दिन वजीर का जन्म-दिन था। वजीर के घर उसके
मित्र आए हुए थे। एक बड़े भोजन का आयोजन था। एक बड़े संगीतज्ञ को बुलाया गया था।
वह अभी वीणा लेकर हाजिर हुआ था। अब उसका संगीत शुरू होने को था। लेकिन जब संगीतज्ञ
को वजीर की फांसी की खबर हुयी तब उसके हाथ ढीले पड़ गए। वीणा को उसने एक ओर टिका
दी। मित्र उदास हो गये और पत्नी रोने लगी। लेकिन उस वजीर ने कहा कि छः बजने में
अभी बहुत देर है, तब तक गीत पूरा हो जायेगा और तब तक भोज भी पूरा हो जाएगा।
राजा
की बड़ी कृपा है कि उन्होंने कम से कम छः बजे तक फांसी नहीं देंगे। लेकिन वीणा बंद
क्यों हो गई? भोज बंद क्यों हो गया? मित्र उदास क्यों हो गये हैं? छः बजने में अभी
तो बहुत देर है और तब तक कुछ भी बंद करने की कोई जरूरत नही है।लेकिन मित्र
कहने लगे कि अब हम भोजन कैसे करें? संगीतज्ञ कहने लगा कि अब मैं वीणा कैसे बजाऊं?
परिस्थिति बिल्कुल अनुकूल नहीं रही। वजीर हंसने लगा और कहा कि इससे अनुकूल
परिस्थिति और क्या होगी? छः बजे मैं मर जाऊँगा। क्या यह उचित नहीं होगा कि उसके
पहले मैं संगीत सुनूं? क्या यह उचित न होगा कि उसके पहले मैं अपने मित्रों से हंस
लूं, बोल लूं और मिल लूं? क्या यह उचित नहीं होगा कि मेरा घर एक उत्सव का स्थान बन
जाए? क्योंकि शाम छः बजे मुझे दुनिया से हमेशा के लिए विदा हो जाना है। घर के
लोग कहने लगे इस प्रतिकूल परिस्थिति में क्या वीणा बजना चाहिए? भोज होना चाहिए?
लेकिन वह आदमी कहने लगा कि इससे अनुकूल परिस्थिति और क्या होगी? जब छः बजे मुझे
हमेशा के लिए विदा हो जाना है तो क्या यह उचित नहीं होगा कि विदा होते क्षणों में
मैं संगीत सुनूं, मित्र उत्सव करें और मेरा घर एक उत्सव बन जाए कि जाते क्षण में
मेरी स्मृति में हमेशा वे थोड़े से पल टिके रह जाएं जो मैंने विदाई के अंतिम क्षण
में अनुभव किये थे।
और उस घर में वीणा बजती रही तथा घर में भोजन चलता रहा।
यद्यपि लोग उदास थे, संगीतज्ञ उदास था लेकिन वह वजीर खुश था, प्रसन्न
था। राजा को खबर मिली। राजा देखने आया कि वह वजीर पागल तो नहीं हो गया है। और
जब वह वजीर के घर पहुंचा तो देखा कि वीणा बज रही है। मेहमान इकट्ठे थे और वजीर खुद
भी आनन्दमग्न बैठा था। तब उस राजा ने वजीर से कहा कि तुम पागल हो गये हो क्या?
तुमको यह खबर नहीं मिली कि शाम छः बजे तुम्हारी मौत आ रही है? वजीर ने कहा कि
खबर मिल गई है। इसीलिए तो आनंद के उत्सव को हमने और तीव्र कर दिया है। उसे शिथिल
करने का तो कोई सवाल ही नहीं था। क्योंकि छः बजे तो मैं विदा हो जाऊंगा। तो छः बजे
तक हमने आनंद के उत्सव को तीव्र कर दिया है क्योंकि ये अंतिम विदा के क्षण स्मरण
रह जाएं। राजा ने कहाः ऐसे आदमी को फांसी देना व्यर्थ है। जो आदमी जीना चाहता
है उसे मरने की सजा नहीं दी जा सकती है। और उसने कहा कि मैं सजा वापस लेता हूँ। ऐसे
प्यारे आदमी को अपने हाथों मारूं, यह ठीक नहीं। सारांश
जीवन में क्या अवसर है, क्या परिस्थिति है, यह इस बात पर निर्भर नहीं करता।
यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम उस परिस्थिति को किस भांति लेते हैं, किस
एटिट्यूड में, किस दृष्टि से। तो हमें ज्ञात नहीं होता कि कोई ऐसी भी परिस्थिति हो
सकती है जो हमें या आपको मनचाहे कार्य करने से रोकती हो। आप ही अपने को रोकना
चाहते हों तो बात दूसरी है। तब हर परिस्थिति रोक सकती है और यदि आप खुद अपने को
नहीं रोकना चाहते हों तो ऐसी परिस्थिति न तो कभी थी और न कभी हो सकती है जो आपको
रोक सके।
सौजन्य:- मासिक पत्रिका "ओशो" अप्रैल
२०१६ अंक
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